कबीर का जीवन परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालिए।
जीवन परिचय – निगुण शाखा के साधुक्कड़ी भाषी कवि कबीर के जीवन और इनके कृतित्व से सम्बन्धित विभिन्न सूचनाएँ अधिकांश बहिसाक्ष्य के आधार पर ही उपलब्ध हैं। इन साक्ष्यों में मुख्यतः नाभादास कृत ‘भक्तमाल’, अनन्तदास कृत ‘कबीर साहिब जी की परचयी’, प्रियादास कृत ‘भक्तमाल की रसबोधिनी टीका’, मुकुन्द कवि कृत ‘कबीर रचित’ तथा राघोदास कृत ‘भक्तमाल’ हैं। विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अलग-अलग साक्ष्यों के आधार पर ही जीवन परिचय और कृतित्व पर प्रकाश डाला जा सकता है-
कबीर दास का जन्म- इनका जन्म लहरतारा नामक स्थान, जो वाराणसी के निकट स्थित है, में संवत् 1456 को हुआ। इसे समस्त कबीरपंथियों निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं जन्म-तिथि का निर्धारण कबीर के शिष्य धर्मदास की कुछ काव्य-पंक्तियों द्वारा स्पष्ट है-
चौदह सौ पचपन साल गये, चन्द्रवार एक ठाट ठये।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रकट भये ।
घन गरजे दामिनि दमके, बूंदें बरसें झर लाग गये।
लहरतालाब में कमल खिले तहँ कबीर भानु परकास भये।
डॉ. श्यामसुन्दर दास ने ‘चौदह सौ पचपन साल गये’ का अर्थ 1456 (संवत्) निर्धारित किया है।
इसी प्रकार कबीर की मृत्यु का निर्धारण करनेवाली विभिन्न काव्य-पंक्तियाँ प्रचलित हैं, जिनके आधार पर विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है। एक रचना के अनुसार :
संवत् पन्द्रह सौ पछत्तरा, किया मगहर को गवन।
माघ सुदी एकादशी, रलो पवन में पवन ।
अन्य कई मृत्यु-तिथियों की ओर संकेत करने वाली पंक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, परन्तु अधिकांश विद्वान संवत् 1575 में ही इनकी मृत्यु स्वीकार करते हैं।
पारिवारिक जीवन- कबीर के सम्बन्ध में ऐसा माना जाता है कि उन्हें नीरू और. नीमा नामक मुस्लिम जुलाहे दम्पति ने लहरतारा के निकट पड़ा हुआ पाया था। इसी दम्पति ने इनका पालन-पोषण किया। इस सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि ‘इनकी उत्पति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। कहते हैं, काशी में स्वामी रामानन्द का एक भक्त ब्राह्मण था, जिसकी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ, जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आई। नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ।’ शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि कबीर का विवाह भी हुआ था और इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनके एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली का वर्णन मिलता है। कबीर अपने जीवन-यापन के लिए जुलाहे का पारम्परिक कार्य करते थे। वे कपड़ा बुनते और बेचते थे।
दीक्षा गुरु: कबीर के दीक्षा गुरू रामानन्द थे। वह शिष्यत्व उन्हें काशी में पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गुरु स्वामी रामानन्द की खड़ाऊँ से टकराने के बाद प्राप्त हुआ था। यद्यपि ये रामानन्द के शिष्य थे, परन्तु ज्ञान और भक्ति के क्षेत्र में इन्होंने कई मौलिक उद्भावनाएँ कीं, जो इनसे पहले की भक्ति-परम्परा में नहीं प्राप्त होतीं।
कबीर की रचनायें : ‘कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, जिसके तीन भाग किए गए हैं-रमैनी, संबद और साखी। इसमें वेदान्त-तत्व, कर्मकाण्डी हिन्दू-मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, हृदय की शुद्धि, प्रेम-साधना कठिनता, माया की प्रबलता, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन आदि की असारता, हज, नमाज, व्रत, . आराधना की गौणता इत्यादि अनेक प्रसंग हैं। साम्प्रदायिक शिक्षा और सिद्धान्त के उपदेश मुख्यतः ‘साखी’ के भीतर हैं, जो दोहों में हैं। इसकी भाषा सधुक्कडी अर्थात राजस्थानी पंजाबी मिली खड़ी बोली है पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं, जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है।’
“रेलिजस सेक्ट्स ऑफ दि हिन्दूज़’ (सन् 1846 ई.) में विल्सन ने कबीर की मात्र आठ रचनाओं का उल्लेख किया है-आनन्द रामसागर, बलख की रमैनी, चाँचरा, हिंडोला, झूलना, कबीर पंजी, कहरा, शब्दावली। मिश्र बन्धुओं ने अपने इतिहास- ग्रन्थ ‘नवरत्न’ तथा ‘विनोद’ में कबीर के ग्रन्थों की संख्या चौरासी बताई है।
(क) साखी : ‘साखी’ संस्कृत शब्द ‘साक्षी’ से बना है। साक्षी का सामान्य अर्थ है गवाह ‘गवाही’ के लिए संस्कृत में ‘साक्ष्य’ शब्द है। ‘साखी’ (साक्षी) वह है जिसने स्वयं अपनी आँखों से तथ्य देखा हो। कबीर ने ‘साखी’ के अन्तर्गत उन्हीं विषयों पर आधारित दोहे कहे हैं, जिनका उन्होंने स्वयं साक्षात्कार कर लिया था। इसमें उन्होंने किसी दूसरे से सुनकर अथवा दूसरे ग्रन्थों में उल्लिखित बातों को नहीं कहा है, यदि कहा भी है तो स्वानुभूति के उपरान्त ही कहा है। साखी के अन्तर्गत मात्र दोहे प्राप्त होते हैं। इन दोहों के माध्यम से कबीर ने विविध विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं, जैसे-गुरु-महिमा, नाम-स्मरण, ज्ञान, विरह, चेतावनी, माया, सत्संग, कुसंगति, दया, क्षमा, प्रेम इत्यादि ।
(ख) सबद: ‘सबद’ का तत्सम रूप ‘शब्द’ है। इसके अन्तर्गत कबीर के पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों में जीव-जगत, आत्मा-परमात्मा, ब्रह्म-माया आदि विषयों पर विचार प्रकट किए गए हैं। कहीं-कहीं पदों के ऊपर उनके राग भी लिखे मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि ये पद किस राग में गायन के लिए था। इन पदों का प्रयोग नाम सुमिरन और भजन-सन्ध्या इत्यादि में गाने के लिए किया जाता रहा होगा।
(ग) रमैनी ‘रमैनी’ को ‘रामणी’ या ‘रामायण’ का पर्याय माना जाता है। ‘राम’ : नाम से सम्बन्धित होने के कारण इसे ‘रमैनी’ कहा गया। कबीर की ‘रमैनी’ के बाद इसकी परम्परा अन्य परवर्ती कवियों में भी देखने को मिलती है। रमैनी की रचना अधिकांशतः दोहा और चौपाई छन्द में हुई है।
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