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कबीर की भाषा शैली | Kabir’s language style in Hindi

कबीर की भाषा शैली | Kabir's language style in Hindi
कबीर की भाषा शैली | Kabir’s language style in Hindi

 कबीर की भाषा शैली

कबीर की भाषा के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। कुछ लोग उनकी भाषा को पंचमेल खिचड़ी कहते हैं जिसमें विभिन्न भाषाओं अरबी, फारसी, उर्दू, पंजाबी, ब्रज, बुंदेली आदि का सम्मिश्रण है। यह निर्विवाद सत्य है कि कबीरदास जी पढ़े लिखे नहीं थे। यह बात उन्होंने स्वयं स्वीकार की है-

मसि कागद छूयो नहिं कमल गही नहिं हाथ ।

उनके अनपढ़ होने के बाद भी उनकी भक्ति ज्ञान का अथाह सागर धरती को कागज़, सम्पूर्ण वन वृक्षों को लेखनी व सात समुद्र की स्याही बनाने की इच्छा का ज्ञान भी न था। उनके काव्य में रस, छंद, अलंकार आदि की खोज सर्वथा व्यर्थ ही है। उन्होंने कविता के लिये कविता की रचना नहीं की, उनके लिये काव्य साध्य नहीं था। कविता ही कबीर के भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र थी। उनकी भाषा के सम्बन्ध में विद्वानों ने अपने मत दिये। कबीर के नाथपंथ और मुस्लिम संस्कार के आधार पर उन्हें कुछ लोग खड़ी बोली के उस कवि रूप में स्वीकार करते हैं जो कि अमीर खुसरो, वली व दक्खिनी हिन्दी के अन्य कवियों व राजस्थानी कवियों की रचनाओं में प्राप्त होता है। दूसरी ओर अन्य लोग कबीर का काशी में निवास स्थान होने के कारण उनकी भाषा में भोजपुरी के प्रभाव को मानते हैं। विभिन्न विद्वानों जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनील कुमार चटर्जी व डॉ. उदय नारायण तिवारी ने कबीर को भोजपुरी का कवि माना है। इस सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ मिश्र कहते हैं- “साखियों की भाषा में खड़ी बोली का जितना अधिक व्यवहार मिलता है उतना शब्दों में नहीं। उसमें व्रजी के कुछ शब्द अधिक मिलते हैं। रमैनी में पूर्वी का रूप बराबर दिखाई देता है, जैसे- कोई कोई या कोऊ कोऊ के स्थान पर केऊ-केऊ । अतः विचार करने से कबीर की तीन प्रकार की स्थूल रूप से हिन्दी की तीन उपभाषाओं की स्पष्ट निश्चित प्रवृत्ति मिल जाती है। “

उनके शब्द भण्डार से ही उनकी मूल भाषा का परिचय प्राप्त होता है। कबीरदास की भाषा में तत्कालीन प्रचलित विभिन्न भाषाओं जैसे अवधी, ब्रज, बुंदेली, खड़ी बोली, राजस्थानी, भोजपुरी आदि के अतिरिक्त पंजाबी, गुजराती आदि भारतीय भाषाओं एवं अरबी, फारसी आदि वैदेशिक भाषाओं के शब्द मिलते हैं। बिना किसी प्रयास के कबीर के काव्य में वे सभी भाषिक शब्द आ गये हैं। नव निर्मित, स्वनिर्मित लोक शब्दों की भी प्रचुरता है। उनके द्वारा व्यवहार में लाये ये कुछ शब्द अर्थ गाम्भीर्य से इतने परिपूर्ण हैं कि इनका पर्याय खड़ी बोली में ढूँढ़ना कठिन हैं जैसे- पोटनहारी, कस, लाहनि, अभर, बिगुचै, बलाही निहोरा, नेवगी पतीला, दरंद दोबल, तलाबिलि, मुसि मुसि, अनियाले, लहुरिया, ठमुकडा, गाउर, तीतरबानी, हींगलू, हजारी, अलझिया, अहरणि, अनूठा, डूगरि, संपुटि, कोपीन, पासंग, चोधता, कसनी, बजनिया, कलाल, ढीकुली, कूप, अणी, चेजारा आदि।

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Anjali Yadav

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