कबीर की दार्शनिकता पर प्रकाश डालिए ।
कबीर दास की दार्शनिकता- कबीर के दीक्षा गुरु स्वामी रामानन्द थे और उन्होंने कबीर को राम नाम का दीक्षा मंत्र भी दिया था किन्तु कवीर को सगुण राम की उपासना ठीक नहीं जँची विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का उन्होने अपने प्रत्यक्ष जीवन में कसा और खरा पाकर ही अपनाया है। यदि उन सिद्धान्तों को उन्होंने अपूर्ण समझा तो कुछ घटा-बढ़ाकर उनमें परिमार्जन उपस्थित किया है। इसलिए उन्होंने राम का जो रूप लिया है। वह वेदान्त दर्शन के ब्रह्म के अधिक निकट हैं। कबीर ने सगुणोपासक को कदाचित इसलिए भी नहीं अपनाया कि मुसलमानों को राम ब्रह्म के रूप में कभी स्वीकार्य नहीं थे और कबीर को हिन्दु-मुस्लिम एकता रूप बहुत बड़ा कार्य करना था। इसलिए उन्होंने निराकार राम को स्वीकारा और हिन्दुओं तथा मुसलमानों की सीमा रेखाओं को मिटाते हुए कहा-
“कहै कबीर एक राम जयहि रे हिन्दू तुरक न कोई ।
हिन्दू तुरक का कर्ता एकै ता गति लखी न जाई॥”
कबीर का राम घट-घट में व्याप्त है, उसे खोजने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना पड़ता, उसकी प्राप्ति हृदय में ही हो सकती है यदि मन शुद्ध हो –
“कहै कबीर विचार करि, जिन कोई खोजे दुरि।
ध्यान धरौ मन सुद्ध करि, राम रहना भरपूरि ॥ “
कबीर ने बहुदेवाद का भी जोरदार खण्डन किया और साधना के क्षेत्र में ऐसे एकेश्वरवाद की स्थापना की, जो हिन्दू और मुसलमान दोनों को मान्य थ। इस एकेश्वरवाद में अद्वैतवादी सिद्धान्तों के अधिकांश तत्व सामाहित थे। साथ ही वे मुसलमानों के एकेश्वरवाद से भी दूर नहीं पड़ना था। बहुदेवोपासना को कबीर ने इतना हेय माना है कि उसे उन्होंने व्याभिचारिणी स्त्री का रूप दे डाला है और उसके साधक को वेश्या पुत्र तक कहा है। वस्तुतः कबीर का जो एकेशवरवाद है वह उनके अपाने जीवनानुभवों का परिणाम है। कबीर को ब्रह्म का सर्वाधिक प्रिय रूप निर्गुण ही है। यद्यपि कहीं-कहीं पर वे सगुणोपासक के रूप में भी दिखाई पड़ते हैं तथापि उन्होंने निराकार ब्रह्म को ही अधिक अपनाया है और उसे सत, रज, तम इन तीनों गुणों से परे माना है-
“राजस, तामसं, सातिग, तीन्यूँ, ये सब तेरी माया।
चौथे पद को जो जन चीन्हें, तिनहि परम पद पाया॥”
इतना सब कुछ होने पर भी कबीर ने अपने ब्रह्म को एक विशुद्ध सगुणोपासक की भाँति माँ, बाप, पीर, साहब आदि तक कह डाला है। वस्तुस्थिति यह हैं कि जब कबीर एक दार्शनिक के स्तर से बोलते हैं उस समय वे ब्रह्म को अविगत, निराकार, निर्गुण, निरंजन आम तथा अगोचार ही मानते है।
किन्तु जहाँ धार्मिक स्तर से बोलना पड़ा और वहाँ वे ब्रह्म को माँ, बाप, पीर, साह आदि कहकर पुकारते हैं। वस्तुतः कबीर का ब्रह्म सर्वथा निराला है, वह तर्कतीत है। इसी कारण वे कहते हैं-
“जस तूं है तस कोउ न जान लोक कहँ सब आनहि आन,
कहै कबीर तरक दुई साथे, तिनकी मति है मोटी॥”
कवीर ने अपने दार्शनिक सिद्धान्तों के किन-किन विभिन्न दर्शनों का अवलम्बन किया है।
वस्तुत में कबीर की दार्शनिक मान्यताओं पर सर्वाधिक पुट अद्वैतवाद का है। जिस प्रकार अद्वैतवादियों का विश्वास है कि जीवात्मा और परमात्मा अलग-अलग नहीं हैं। वे एक ही है उसी प्रकार कबीर भी जीवात्मा तथा परमात्मा की एकता पर बल दिया है-
कबीर यह मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी में परम तत्व की अवस्थिति है किन्तु अज्ञान का पर्दा पड़ा होने से प्राणी उस परम तत्व का साक्षात्कार नहीं कर सकता। उसे उस तत्व की उपलब्धि से तभी हो सकती है जब वह सामान्य बुद्धि के क्षेत्र से पृथक समझ बैठता है उसे ऐसा ज्ञात होता है कि पंचतत्व ही सत्य है प्राणी की परम तत्व से अभिन्नता की स्थिति तभी हो सकती है जब वह हृदय कपाट को रखकर अपने अंतरमन को ज्ञान से दीप्त कर कबीर के लिए ब्रह्म और जीव जा सकता। अलग पदार्थ नहीं है। उनकी दृष्टि में तो इन दोनों में इतना भेद नहीं है कि उन्हें एक तत्व से निर्मित दो भिन्न पदार्थ कह सकें। पूर्ण ब्रह्म को दो खण्डों में विभक्त किया जा सकता इसी अद्वैत स्थिति में ही कबीर ने अपने को समस्त संसार में परिव्याप्त किया है ।
कबीर ने माया का जो रूप लिया है, वे भी वेदान्त के ही अद्वैतवाद से मेल खाता है। भाषा को कबीर ने आत्मा का परमात्मा के साथ ऐक्य स्थापित करने में बाधक माना है। उनके विचार से माया अविद्या का ही अपराप्तिधान है। माया का कार्य जीव को अपने जाल में फाँसना है और उसे ब्रह्म से दूर से दूरतर करना है।
मानव शरीर को क्षणभंगुर माना है। इसलिए वे कहते हैं कि इस शरीर को पाकर माता-पिता, भाई-बहन, धन-दौलत आदि किसी से भी मोह मत करो। संसार की क्षणभंगुरता का वर्णन करते हुए कबीर कहते हैं-
“झूठे सुख की सुख कहैं मानत हैं मन मोह |
जगत चबेना काल का कुछ मुख कुछ गोद ॥
कबीर की निर्गुण ब्रह्म साधना भी अद्वैतवाद से ही प्रभावित है। उनकी इस साधना में ज्ञान को प्रमुख स्थान मिला है। किन्तु फिर भी उसमें यत्र तत्र भक्ति की धारा आकर मिलती दिखाई पड़ती है। ऐसे स्थलों पर कबीर ने ब्रह्म का स्मरण द्वेत बुद्धि से किया है और उसमें प्रेम वही प्रागाढ़ता लक्षित होती है तो भक्तों के भगवद्विषयक प्रेम है। ऐसा लगता है कि जैसे कबीर ने इस भक्ति भावना को कदाचित सूफियों से लिया है। क्योंकि कबीर ने अपनी अधिकांश रचनाओं में जीव और ब्रह्म दाम्पत्य भाव की स्थापना की है। दाम्पत्यभाव की उपासना सूफियों में ही प्रचलित है। जिस प्रकार सूफियों में संयोग जन्य उल्लास और वियोग जन्य विकलता देखी जाती है।
कबीर दर्शन पर सांख्य दर्शन का भी प्रभाव देखा जा सकता है। सांख्य दर्शन तीन गुण, पाँच तत्वों एवं पच्चीस प्रकृतियों से सृष्टि का निर्माण माना गया है। कबीर ने इन तत्वों की स्थिति को स्वीकार की है, किन्तु दूसरे प्रकार से ।
कबीर दर्शन का निष्कर्ष निकालते हुए एक आधुनिक आलोचना के शब्दों में कहा जा सकता है कि कबीर ने विविध मतों का सार सहेज करके अपने विवेक बुद्धि का परिचय दिया है। सांख्यदर्शन, वेदान्त, औपनिषिदक, आध्यातम, विद्या योगदर्शन, शंकर का अद्वैतमत रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद आदि विविध मतों का कबीर की विचारधारा पर प्रभाव पड़ा है। और उन्होंने इन सब मतों की विशेषताओं का अपने निर्गुण मत में समावेश किया है।
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