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कहानी किसे कहते है? कहानी के प्रमुख तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
कहानी से अभिप्रायः कहानी के लिए कथा शब्द को प्रयोग किया जाता हैं जो संस्कृत के ‘कथ अथवा कृत्थ’ से बना है। जिसका अर्थ है-कहना। प्राचीनकाल में ‘कथा’ के साथ वार्ता शब्द भी जुड़ा होता था जिसका अर्थ है- वर्णन करना। इस प्रकार कहानी का अर्थ है-कहना और वर्णन करना। मानव में कहने की प्रवृत्ति उतनी ही प्राचीन है जितना कि स्वयं मानव इस प्रकार कहानी का इतिहास सभी मानव के इतिहास जितना ही पुराना है।
हिन्दी की प्रथम कहानी हिन्दी में कहानी तो बहुत पहलें से लिखी जा रही हैं लेकिन हिन्दी की प्रथम कहानी के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान ‘इंशा अल्ला खाँ” द्वारा रचित ‘रानी केतकी की कहानी को हिन्दी की पहली कहानी स्वीकार करते हैं लेकिन कहानी के तत्वों के अभाव में इसे हिन्दी की प्रथम कहानी नही माना जा सकता। इस समय में राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द नें ‘राजा भोज का सपना और भारतेन्दु हरिशच ‘ने ‘एक अद्भूत स्वप्न’ को जन्म दिया जो की अपेक्षा निबंध की कोटि में अधिक आती है। इसका उद्देश्य मात्र मनोरजन अथवा उपदेश मात्र रहा है। इसका शिल्पविंधान भी सर्वथा शिथिल रहा है। वास्तव में हिन्दी कहानी का आरम्भ सन् 1900 से ‘सरस्वती’ के प्रकाशन से होता है जिसमें ‘इन्दुमती कहानी प्रकाशित हुई। आचार्य शुक्ल ने अपनी हिन्दी साहित्य के इतिहास में इन्दुमती’ को हिन्दी की सर्वप्रथम कहानी के रूप में स्वीकार करते हुए लिखा है- यदि मर्मिकता की दृष्टि से भावप्रधान कहानियों को चुन लें तो तीन मिलती है ‘इन्दुमती’ ग्यारह वर्ष का समय, दुलाई वाली विद्वान ‘इन्दुमती की हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी स्वीकार करते हैं। हिन्दी के प्राख्यात कहानी समीक्षक डॉ० श्री कृष्ण लाल ‘इन्दुमती’ पर टेम्पस्ट की छाप मानते हैं। इसके बाद 1907ई0 में ‘दुलाई वाला’ कहानी प्रकाशित हुई जिसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी स्वीकार किया जाता है।
कहानी के तत्व
हिन्दी कहानी के प्रमुख तत्व छः होते हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) कथावस्तु अथवा कथानक, (2) पात्र तथा चरित्र चित्रण, (3) कथोपकथन अथवा संवाद, (4) स्थिति काल अथवा वातावरण, (5) भाषा शैली, (6) उद्देश्य ।
(1) कथावस्तु (कथानक ):- कहानी में जो वर्णित होता है वहीं कहानी की कथावस्तु होती है। कहानी में कथावस्तु प्रधान होती हैं। एक या एक से अधिक पात्रों के अनुभवों विचारों तथा क्रिया-कलापों (घटनाओं) के क्रमिक संगठन को कथावस्तु कहते हैं। यही कथानक है। कथावस्तु किसी न किसी प्रकार के संघर्ष द्वारा विकसित होती है। साधारणतया कथानक में एक ही घटना या भाव का चित्रण होता है। अधिक घटनाओं और जटिल कथानक को कहानी में स्थान नहीं मिलना चाहिए।
कथानक के विकास की पाँच स्थितियाँ- कथानक के विकास की पाँच स्थितियाँ होती है। (1) प्रारम्भ (2) आरोह (3) चरम स्थिति (4) अवरोह और (5) अन्त या उपसंहार।
कथानक के गुण- कथानक आकर्षक, रोचक संक्षिप्त एवं कथन योग्य होना चाहिए। उसकी संरचना में सन्तुलन होना चाहिए।
( 2 ) पात्र और चरित्र चित्रण- चरित्र चित्रण कहानी का महत्वपूर्ण अंग होता है। इसका आधार मनोवैज्ञानिक होना चाहिए। इससे स्वाभाविक, सजीव, और वास्तविक रूप से पात्रों के व्यक्तिव का निखार हो सकेगा। कहानी की कथावस्तु पात्रों द्वारा ही अग्रसर होती है। वस्तुतः कथावस्तु और चरित्र-चरिण दोनों ही अन्योन्याक्षित हैं एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असम्भव है। लेकिन दोनों में चरित्र चित्रण का अधिक महत्व है। पात्रों को विश्वसनीय होना चाहिए। रोचक, और आकर्षक होना चाहिए उनमें मानव सुलभ गुण होने चाहिए। चरित्र-चित्रण मुख्यतः दो प्रकार के होतें है। (1) कथानक प्रधान (2) चरित्र प्रधान ।
(3) कथोपकथन अथवा संवाद- कहानी में कथोपकथन अथवा संवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। देशकाल और पात्रों के अनुरूप होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि अनपढ़ पात्र अनपढ़ की तरह बोले शिक्षित पात्र शिक्षित व्यक्तियों की तरह, इसी तरह बालक, वृद्व और युवा के संवादों में भी भिन्नता होनी चाहिए। पात्र विशेष कि स्थिति के अनुरूप भाषा का प्रयोग होना चाहिए। संवाद स्वाभाविक, उपयुक्त एव कलात्मक होना चाहिए।
(4) देशकाल अथवा वातावरण- कहानी के कथानक और उसके पात्रों का किसी देश और काल से सम्बन्ध होता है। प्रत्येक कहानी में वातावरण की उपयुक्तता पर विशेष ध्यान देना होता है। कहानी के सभी पात्र किसी न किसी पृष्ठभूमि पर क्रिया करते हैं। इस पृष्ठ भूमिका कथानक पर बहुत प्रभाव उत्पन्न होता है। आदतें, व्यवहार, जीवन पद्धति इत्यादि वातावरण के निर्माण में सहायक होती है। जिस समय विशेष पर कहानी लिखी जा रही हो उसी समय की परिस्थिति तथा वातावरण का चित्रण कहानी में स्वाभाविकता और सहजता उत्पन्न कर सकता है। वातावरण की उपेक्षा से कहानी की मूल संवेदना समाप्त हो जाती है। पाठक भावक्षेत्र से अपना तादात्म्य ही नहीं स्थापित कर सकता।
( 5 ) भाषा एवं शैली- कहानी की भाषा सजीव, तथा रोचक होनी चाहिए। भाषा विषयानुकूल, रसात्मक तथा ओज और माधुर्यगुण से युक्त हो। उसमें आवश्यकतानुसार व्यंग्य एवं हास्य का पुष्ट होना चाहिए। मुहावरों कहावतों के प्रयोग से भी भाषा सशक्त एवं प्राणवान हो सकती है। कहानी की शैली तो लेखक की स्वाभाविक प्रतिच्छवि है। शैली ही कथाकार के व्यक्तित्व और अस्तित्व का परिचय देती है। हर कलाकार की शैली तथा उसका स्तर अलग अलग कोटि का होता है। शैली से भी कभी-कभी कलाकार को पहचान लिया जाता है। शब्दों का चयन, वाक्य खण्डों की योजना, वाक्य रचना और इन सबसे उत्पन्न लय, ध्वनि, ताल आदि सब लेखक की अपनी विशेषता के अनुसार होता है। शैली की नकल भी की जाती है। किन्तु श्रेष्ठ कलाकार अपनी विशिष्ट शैली विचारों का मूर्त रूप होती है। हर कलाकार की शैली को दूसरे कलाकार की शैली के सामने पहचान सकते हैं।
( 6 ) उद्देश्य – प्रत्येक कहानी की रचना के पीछे लेखक का एक उद्देश्य होता है। कहानी का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं होता है। कहानी लेखक का उद्देश्य उसके जीवन दर्शन के अनुसार होता है। कहानी का उद्देश्य समाज को शिक्षित करते, जातिवाद, भेदभाव, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता के विष को समाप्त करना होना चाहिए। चूँकि कहानी का मानव मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है अतः इसका उद्देश्य सदैव सकारात्मक होना चाहिए।
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