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किराया क्रय पद्धति के लाभ तथा हानियां

किराया क्रय पद्धति के लाभ तथा हानियां
किराया क्रय पद्धति के लाभ तथा हानियां
किराया क्रय पद्धति के लाभ तथा हानियां बताइये।

किराया क्रय पद्धति से लाभ किराया क्रय पद्धति से लाभों को सुविधानुसार तीन भागों में विभक्त कर स्पष्ट किया जा सकता है:

(I) क्रेता को लाभ; (II) विक्रेता को लाभ; (III) अन्य लाभ।

(I) क्रेता को लाभ (Advantage to the Buyer)

इस पद्धति से क्रेता को प्राप्त लाभ निम्नानुसार हैं :

(1) मूल्यवान वस्तुओं का उपयोग (Use of costly goods)- इस पद्धति में वस्तुओं का मूल्य सुविधानुसार किस्तों में चुकाना सम्भव होता है जिससे क्रेता मूल्यवान वस्तुओं का उपयोग सरलतापूर्वक कर पाता है।

(2) वस्तु वापसी की सुविधा (Facility to return)- इस पद्धति में क्रेता वस्तु की उपयोगिता कम होने पर अगली किस्त के भुगतान के पूर्व वस्तु विक्रेता को वापस कर अनुबन्ध रद्द कर सकता है।

(3) मुफ्त मरम्मत की सुविधा (Facility of free Sepairing)- अन्तिम किस्त के भुगतान के पूर्व वस्तु पर स्वामित्व विक्रेता का होता है। अतः क्रेता को सामान्य टूट-फूट होने पर निःशुल्क मरम्मत की सुविधा प्राप्त होती है।

(4) भुगतान में सुविधा (Convenient in Payment)- इस पद्धति में वस्तु का पूरा मूल्य एक साथ नहीं चुकाया जाता वरन् क्रेता एवं विक्रेता के मध्य हुए समझौते के अनुसार किस्तों में चुकाया जाता है। फलस्वरूप क्रेता के लिए भुगतान सुविधाजनक होता है।

(5) मितव्ययिता की भावना (Economy)- इस पद्धति में अन्तिम किस्त के भुगतान के पूर्व वस्तु वापस पाने का अधिकार विक्रेता का होता है। वस्तु वापस जाने का डर क्रेता में मितव्ययिता को बढ़ावा देता है तथा वह किस्त भुगतान के लिए अधिक से अधिक बचत पर ध्यान देता है।

(6) ऋणों में कमी (Reducation in loan)- कभी-कभी परिस्थितिवश क्रेता के लिए वस्तु का क्रय आवश्यक हो जाता है। क्रय मूल्य का भुगतान एक साथ आवश्यक न होने के कारण उसे अन्य व्यक्तियों से तत्काल ऋण लेने की आवश्यकता नहीं होती।

(II) विक्रेता को लाभ (Advangate to the Seller)-

इस पद्धति से विक्रेता को प्राप्त लाभ निम्नानुसार हैं :

(1) विक्रय में वृद्धि (Increase in sales) – इस पद्धति में वस्तु के मूल्य का भुगतान किस्तों में सम्भव होने के कारण ऐसे व्यक्ति भी वस्तु का क्रय कर पाने में सफल हो जाते हैं जिनके पास धन का अभाव हो। अधिक व्यक्तियों द्वारा क्रय सम्भव होने से विक्रय में वृद्धि होती है।

(2) नियमित किस्तों की प्राप्ति (Receipt of regular instalments ) – वस्तु वापस ले जाने के भय से क्रेता किस्तों का भुगतान नियमित रूप से करते हैं अतः विक्रेता को किस्त की राशि एकत्रित करने में कठिनाई नहीं होती।

(3) अधिक मूल्य की प्राप्ति (Receipt of more amount)- इस पद्धति में विक्रेता को वस्तु के नकद मूल्य के साथ ही ब्याज के रूप में अतिरिक्त राशि प्राप्त होती है।

(4) अन्य वस्तुओं के विक्रय की सम्भावना (Possibility of sale of other goodes)- किस्त भुगतान के लिए क्रेता के बार-बार आने से उसकी दृष्टि विक्रेता की अन्य वस्तुओं पर पड़ती है जिससे अन्य वस्तुओं के विक्रय की सम्भावना बढ़ जाती है।

(5) मधुर सम्बन्ध (Cordial relation) – बार-बार क्रेता एवं विक्रेता का सम्पर्क दोनों पक्षकारों में विश्वास उत्पन्न कर मधुर सम्बन्ध बढ़ाता है जिससे भविष्य में अन्य वस्तुओं के विक्रय की सम्भावना बढ़ जाती है।

(III) अन्य लाभ (Other Advantages) :

(1) जीवन स्तर में वृद्धि (Increase in standard of living) अधिक वस्तुओं का क्रय एवं उपयोग सम्भव होने के कारण यह पद्धति समाज में व्यक्तियों के जीवन स्तर को बढ़ाने में सहायक होती है।

(2) उत्पादन में वृद्धि (Increase in Production)- इस पद्धति से विक्रय में वृद्धि होती हैं परिणामस्वरूप उत्पादन वृद्धि को बढ़ावा मिलता है। उत्पादन में वृद्धि से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है।

(3) रोजगार एवं आय में वृद्धि (Increase in employment and income)- यह पद्धति समाज के मध्यवर्गीय परिवारों को जीविका का साधन उपलब्ध कराने में सहायता पहुँचाती है जिससे उन व्यक्तियों के रोजगार एवं आय में वृद्धि होती है, जैसे-सिलाई मशीन, कम्प्यूटर्स आदि का क्रय।

किराया क्रय पद्धति से हानियाँ

किराया क्रय पद्धति से हानियों को निम्न तीन भागों में विभक्त कर स्पष्ट किया जा सकता है- (1) क्रेता को हानियाँ; (II) विक्रेता को हानियाँ; (III) अन्य हानियाँ

(I) क्रेता को हानियाँ (Disadvantages to the Buyer)

(1) अधिक मूल्य का भुगतान (Payment of higher Price)- इस पद्धति में क्रेता को वस्तु के नकद मूल्य के साथ ही साथ ब्याज की राशि का भुगतान करना पड़ता है। अतः उसे वस्तु का अधिक मूल्य चुकाना होता है।

(2) वस्तु बेचने या गिरवीं रखने का अधिकार नहीं (No right to sale or mortgage)- इस पद्धति में अन्तिम किस्त के भुगतान के पूर्व वस्तु पर स्वामित्व विक्रेता का होता है। स्वामित्व के अभाव में क्रेता वस्तु बेचने अथवा गिरवी रखने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाता।

(3) वस्तु वापसी का भय (Fear of return)- इस पद्धति में किस्त भुगतान में त्रुटि करने पर वस्तु विक्रेता को वापस प्राप्त करने पर वस्तु की वापसी तथा किस्त की राशि जब्त हो जाने का भय बना रहता है।

(4) अनावश्यक वस्तुओं का क्रय (Purchase of unnecessary Goods) –  सुविधानुसार भगतान की सुविधा कभी-कभी क्रेता को अनावश्यक वस्तुएँ क्रय करने में प्रोत्साहन प्रदान करती है। जिससे उसकी आर्थिक स्थिति एवं कार्यक्षमता प्रभावित होती है।

(II) विक्रेता को हानियाँ (Disadvantages to the Seller)

(1) अधिक पूँजी की आवश्यकता (Need of more capital)- वस्तु के क्रय मूल्य का भुगतान तत्काल करने तथा विक्रय मूल्य किस्तों में प्राप्त होने से इस पद्धति में विक्रेता को अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है जो सभी विक्रेताओं के लिए सम्भव नहीं हो पाता।

(2) किस्त वसूल करने में कठिनाई (Difficulty in realisation of instalments) – वस्तु के क्रेता से समय-समय पर किस्त की राशि प्राप्त करने में कठिनाई होती है तथा क्रेता से अनावश्यक विवाद का सामना करना पड़ता है।

(3) वस्तु वापस प्राप्त करने में कठिनाई (Difficulty in getting back the Goods) सैद्धान्तिक रूप से किस्त का भुगतान प्राप्त न होने पर विक्रेता को वस्तु लेने का अधिकार होता है किन्तु व्यवहार में क्रेता से वस्तु सरलतापूर्वक प्राप्त नहीं हो पाती।

(4) अवक्षयण या मूल्य ह्रास की क्षति (Loss of depreciation)- क्रेता से वस्तु वापस लेने पर मूल्य ह्रास (अवक्षयण) की क्षति विक्रेता को वहन करनी पड़ती है।

(5) अनावश्यक मरम्मत का भार (Unnecessary Burden of reparing)- इस पद्धति में अन्तिम किस्त के भुगतान तक वस्तु की मरम्मत का दायित्व विक्रेता पर होता है। कभी-कभी क्रेता द्वारा वस्तु के गलत प्रयोग से हुई क्षति की राशि विक्रेता को वहन करनी पड़ती है तथा मरम्मत न करने पर अनावश्यक विवाद को बढ़ावा मिलता है।

(6) खर्चीली पद्धति (Expensive method)- इस पद्धति में लेखांकन प्रविष्टियाँ एवं पत्र व्यवहारों की संख्या अधिक होती है, अतः खर्चीली पद्धति है।

(III) अन्य हानियाँ (Other Disadvantages)

(1) नाश्वान वस्तुओं के लिए अनुपयुक्त (Not useful for perishable goods) – यह पद्धति शीघ्र नाशवान वस्तुओं के लिए अनुपयुक्त है। अन्तिम किस्त के भुगतान तक वस्तु का अस्तित्व में होना आवश्यक है।

(2) सामाजिक अशांति को बढ़ावा (Increase in Social disturbance) – क्रेता द्वारा समय पर किस्सों का भुगतान न करने से सामाजिक अशांति को बढ़ावा मिलता है।

(3) मुकदमेबाजी में वृद्धि (Increase in Litigation)- यह पद्धति अनावशऋयक मुकदमेबाजी को प्रोत्साहित करती है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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