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कीमत (मूल्य) निर्धारण का सामान्य सिद्धान्त (General Theory of Price)
प्राचीन काल से ही अर्थशास्त्रियों में कीमत निर्धारण के सम्बन्ध में काफी मतभेद रहा है। एडम स्मिथ तथा रिकार्डो विचार या कि वस्तु की कीमत उसकी उत्पादन लागत (सम्मरण) द्वारा निर्धारित होती है। किन्तु यह विचार एकपक्षीय था क्योंकि इसमें केवल सम्भरण पक्ष (supply side) पर ही ध्यान दिया गया था। तत्पश्चात् जेवन्स (Jevons) ने यह विचार व्यक्त किया कि वस्तु की कीमत पूर्णतया उसके तुष्टिगुण (माँग) द्वारा निर्धारित होती है जेवन्स का दृष्टिकोण भी एकपक्षीय था क्योंकि उन्होंने वस्तु के केवल माँग पक्ष (demand side) पर ही ध्यान दिया था। प्रो० मार्शल ने एडम स्मिथ तथा जेवन्स दोनों के दृष्टिकोणों को समन्वित करके बताया कि वास्तव में किसी वस्तु की कीमत उसकी मांग तथा सम्भरण दोनों को सापेक्ष शक्तियों द्वारा तय होता है।
वस्तु की माँग (Demand for Commodity)–प्रश्न उठता है कोई क्रेता या उपभोक्ता किसी वस्तु की माँग क्यों करता है तथा उसे पाने के लिए वह अधिक से अधिक कितनी कीमत चुकाने को तैयार होता है कोई उपभोक्ता किसी वस्तु की मांग इसलिए करता है क्योंकि वह वस्तु उसकी किसी आवश्यकता की सन्तुष्टि कर सकती है। इस प्रकार किसी वस्तु की मांग उसमें निहित तुष्टिगुण (utility) के कारण की जाती है। किसी वस्तु के लिए किसी उपभोक्ता की माँग जितनी अधिक तीव्र (intense) होगी, उस वस्तु के लिए यह उतना ही अधिक कीमत देने के लिए तैयार होगा। वैसे तो उपभोक्ता वस्तु को कम से कम कीमत पर खरीदना चाहते हैं किन्तु वे किसी भी दशा में वस्तु के लिये उसके सीमान्त तुष्टिगुण (marginal utility) से अधिक कीमत देने को तैयार नहीं होंगे। इस प्रकार माँग पक्ष की ओर से वस्तु की कीमत की एक अधिकतम सीमा (maximum limit) होती है जो वस्तु के सीमान्त तुष्टिगुण द्वारा निर्धारित होती है।
कम कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा तथा अधिक कीमत पर वस्तु की कम मात्रा मांगी जाती है। इस प्रकार किसी वस्तु की माँग ‘मांग के नियम’ (Law of Demand) द्वारा प्रभावित होती है। बाजार की मांग-रेखा बायें से दायें नीचे को झुकी हुई होती है।
वस्तु का सम्मरण (Supply of Commodity)- प्रश्न उठता है विक्रेता या उत्पादक वस्तु की कीमत क्यों लेता है तथा वस्तु के लिए यह कम से कम कितनी कीमत लेना चाहेगा ? उत्पादक वस्तु की कीमत इसलिए लेता है क्योंकि वस्तु उत्पन्न करने या प्राप्त करने में उसे कुछ न कुछ खर्च करना पड़ता है। स्पष्टतया कोई भी विक्रेता अपनी वस्तु को उसकी उत्पादन लागत से कम कीमत पर बेचना नहीं चाहेगा, अन्यथा उसे हानि उठानी पड़ेगी। इस प्रकार सम्भरण पक्ष की ओर से वस्तु के कीमत की एक न्यूनतम सीमा (minimum limit) होती है जो वस्तु की उत्पादन लागत द्वारा निर्धारित होती है।
जिस प्रकार वस्तु की माँग ‘माँग के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होती है, उसी प्रकार वस्तु का सम्मरण ‘सम्मरण के नियम’ द्वारा नियन्त्रित होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि कम कीमत पर वस्तु की कम मात्रा तथा अधिक कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा बेची जायेगी। बाजार की सम्भरण-रेखा बायें से दायें नीचे से ऊपर की ओर उठती हुई रेखा होती है।
माँग तथा सम्भरण का सन्तुलन (Equilibrium of Demand and (Supply)-बाजार में वस्तु की कीमत निर्धारित करने के लिए क्रेता तथा विक्रेता में प्रतियोगिता होती है तथा ये मोल-भाव करते हैं। खरीदने वाला (क्रेता) यह प्रयत्न करता है कि वस्तु कम से कम कीमत पर मिल जाए तथा यह अधिक से अधिक जो कीमत दे सकता है वह वस्तु के सीमान्त-तुष्टिगुण के बराबर होती है। इसके विपरीत, बेचने वाला (विक्रेता) वस्तु को अधिक से अधिक कीमत पर बेचने का प्रयास करता है तथा वह वस्तु को उसकी सीमान्त लागत से कम कीमत पर बेचने के लिए तैयार नहीं होता। वस्तु की कीमत इन्हीं दो अधिकतम तथा न्यूनतम सीमाओं के बीच क्रेताओं तथा विक्रेताओं की सौदेबाजी के परिणामस्वरूप किसी बिन्दु पर निर्धारित हो जाती है। दूसरे शब्दों में, जब किसी विन्दु पर वस्तु की मांग तथा सम्भरण की शक्तियाँ सन्तुलित या बरावर हो जाती है तो वस्तु की कीमत निर्धारित हो जाती है। माँग तथा सम्भरण के सन्तुलन द्वारा जो कीमत निर्धारित होती है उसे सन्तुलन कीमत (equilibrium price) कहते हैं।
मार्शल ने मांग तथा सम्भरण की तुलना एक कैंची के दो फलकों से की है। जिस प्रकार कागज या कपड़ा काटने के लिए दोनों फलकों की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार किसी वस्तु की कीमत का निर्धारण मांग तथा सम्भरण दोनों के द्वारा होता है।
कीमत निर्धारण में समय-तत्त्व का महत्त्व (Importance of Time Element in Price Determination)—
कीमत निर्धारण में समय-तत्त्व के महत्व को स्पष्ट करने का श्रेय मार्शल को प्राप्त है। मार्शल ने बताया कि किसी वस्तु की कीमत उसकी माँग तथा सम्भरण दोनों की सापेक्ष शक्तियों के सन्तुलन द्वारा तय होती है। किन्तु माँग तथा सम्मरण की क्रियाशीलता सभी दशाओं में समान नहीं रहती। कभी माँग सम्मरण से अधिक प्रभावशाली होती है तो कभी सम्भरण मोग से अधिक क्रियाशील होता है। माँग तथा सम्भरण की प्रभावशीलता में अन्तर बाजार की अवधि पर निर्भर करता है।
मार्शल द्वारा समयावधि का वर्गीकरण-कीमत निर्धारण में समय-तत्व के महत्व को स्पष्ट करने के लिए मार्शल ने समय को चार भागों में बोटा है-
(1) अति अल्पकाल (2) अल्पकाल (3) दीर्घकाल तथा (4) अति दीर्घकाल।
(1) अति अल्पकाल (Very-Short Period)-अति अल्पकाल में समय की अवधि इतनी कम (कुछ पण्टे, एक दिन या सप्ताह) होती है कि मांग में परिवर्तन हो जाने पर वस्तु की पूर्ति (सम्मरण) में परिवर्तन करने का समय नहीं होता। किसी समय-विशेष पर वस्तु का जितना स्टॉक होता है उसके सम्मरण को उस स्टॉक तक ही बढ़ाया जा सकता है। वस्तु के सम्भरण के स्थिर होने के कारण अति अल्पकाल में कीमत-निर्धारण में मांग का अधिक प्रभाव पड़ता है। अति अल्पकाल में जो कीमत निर्धारित होती है उसे ‘बाजार कीमत’ (market price) कहते हैं।
(2) अल्पकाल (Short Period) ‘अल्पकाल’ समय की उतनी अवधि होती है जिसमें कोई फर्म केवल परिवर्तनशील उपादानों (variable factors) में परिवर्तन करके उत्पादन की मात्रा को कम या अधिक कर सकती है। फर्म के पास इतना समय नहीं होता कि उत्पादन की मात्रा को परिवर्तित करने के लिए बँधे उपादानों (fixed factors), जैसे मशीन, भूमि आदि में परिवर्तन कर सके। यद्यपि इस समयावधि में मांग का अधिक प्रभाव पड़ता है किन्तु वस्तु के सम्मरण का भी कीमत-निर्धारण पर कुछ प्रभाव पड़ता है। इस समयावधि में निर्धारित होने वाली कीमत को उप-सामान्य कीमत (sub-normal price) कहते हैं।
(3) दीर्घकाल (Long Period) मार्शल के शब्दों में, “दीर्घकाल समय की यह अवधि है जिसमें फर्म माँग के अनुसार सम्भरण में परिवर्तन कर सकती है। फर्म के पास इतना समय होता है कि वह माँग के बढ़ने पर नए प्लान्ट लगा सकती है। नई फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती हैं तथा पुरानी फर्म उद्योग को छोड़ सकती हैं। इस प्रकार दीर्घकाल में समय इतना लम्बा होता है कि वस्तु सम्भरण को उसकी मांग में परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित किया जा सकता है। चूंकि उत्पादन को माँग के अनुसार घटाया-पढ़ाया जा सकता है इसलिए कीमत-निर्धारण में माँग की अपेक्षा वस्तु की उत्पादन लागत (सम्भरण) का अधिक प्रभाव पड़ता है। दीर्घकाल में उत्पादन के सभी साधन परिवर्तनीय (variable) होते हैं, अर्थात कोई भी साधन स्थिर (चैंधा) नहीं होता। दीर्घकाल में जो कीमत निर्धारित होती है उसे सामान्य कीमत (normal price) कहते हैं।
(4) अति दीर्घकाल (Secular Period)- अति दीर्घकाल’ समय की इतनी लम्बी अवधि होती है जिसमें मांग तथा सम्मरण में बुनियादी परिवर्तन हो जाते हैं। माँग की दृष्टि से जनसंख्या के आकार, लोगों की आदतों, रूचि आदि तथा सम्मरण की दृष्टि से पूंजीगत पदार्थ, कच्चा माल, उत्पादन-विधियों आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। मार्शल के विचार में, अति दीर्घकाल में कीमत-निर्धारण का अध्ययन करना सम्भव नहीं है जिस कारण कीमत सिद्धान्त में अति दीर्घकाल का केवल सैद्धान्तिक महत्व है। इस काल में जो कीमत निर्धारित होती है उसे माशंस ने अति-दीर्घकालीन कीमत (secular price) कहा है।
निष्कर्ष (Conclusion)- कीमत-निर्धारण में समय-तत्व के महत्व को स्पष्ट करते हुए मार्शल ने लिखा है, “सामान्यतया समय जितना कम होगा, जिस पर कि हम विचार कर रहे हैं, कीमत पर मांग का प्रभाव उतना ही अधिक होगा तथा समयावधि जितनी अधिक लम्बी होगी उतना ही उत्पादन लागत की कीमत पर अधिक प्रभाव पड़ेगा।
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