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क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (Regional Rural Banks)
“आजकल जिस प्रकार की कृषि साख उपलब्ध है यह मात्रा में काफी कम है, सही प्रकार की नहीं है, सही उद्देश्य की पूर्ति नहीं करती और आवश्यकता की कसौटी के सन्दर्भ में प्रायः सही व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाती
-अखिल भारतीय ग्रामीण साथ सर्वेक्षण समिति
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना
भारत में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना ग्रामीण क्षेत्र के कमजोर वर्गों, छोटे तथा सीमान्त किसानों, भूमिहीन श्रमिकों, दस्तकारों तथा छोटे उद्यमियों को संस्थागत साख उपलब्ध कराने के लिए की गई थी। आरम्भ में 2 अक्टूबर, 1975 को पाँच क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किए गए उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद और गोरखपुर, हरियाणा में भिवानी, राजस्थान में जयपुर तथा पश्चिमी बंगाल में मादा में इन बैंकों की स्थापना की गई। बाद में देश के विभिन्न भागों में इन बैंकों का विकास तथा विस्तार किया गया। इन बैंकों की स्थापना भारत सरकार, राज्य सरकारों तथा वाणिज्यिक बैंकों के संयुक्त प्रयास से की गई है। इन बैंकों को विभिन्न क्षेत्रों में पृथक्-पृथक् राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा प्रायोजित (sponsor) किया गया है।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की आवश्यकता- देश में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की आवश्यकता मुख्यतया निम्न कारणों से अनुभव की गई-
(1) छोटे किसानों व कारीगरों की उपेक्षा- व्यापारिक बैंक तथा सहकारी बैंक छोटे व सीमान्त किसानों, ग्रामीण दस्तकारों तथा भूमिहीन किसानों की साख आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाते थे अतः ऐसी साख संस्था की आवश्यकता अनुभव की गयी जो ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़े तथा निर्धन वर्ग को साख प्रदान कर सके।
(2) व्यापारिक बैंकों की जटिल कार्यप्रणाली- व्यापारिक (वाणिज्यिक) बैंकों की कार्यप्रणाली काफी जटिल है। ये बैंक अपना अधिकांश काम अंग्रेजी भाषा में करते हैं। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों के लिए विशेष प्रकार के बैंकों की आवश्यकता अनुभव की गई।
(3) ग्रामीण मनोवृत्ति वाले कर्मचारियों का अभाव- व्यापारिक बैंकों में कार्यरत शहरी मनोवृत्ति वाले कर्मचारियों द्वारा ग्रामीण साख की व्यवस्था नहीं की जा सकती। वस्तुतः ग्रामीण क्षेत्र के व्यक्तियों की साख आवश्यकताओं को ग्रामीण स्वभाव की संस्थाओं द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इसलिए ग्रामीण बैंकों की स्थापना को आवश्यक समझा गया।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के उद्देश्य- देश के क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना मुख्यतया निम्न उद्देश्यों को लेकर की गई है-
(1) ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए साख-सुविधाओं का विस्तार करना।
(2) छोटे तथा सीमान्त किसानों की साख-सुविधाओं को सरलता से उपलब्ध कराना।
(3) ग्रामीण क्षेत्रों के कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास के लिए वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना।
(4) कृषि मजदूरों तथा ग्रामीण कारीगरों के आर्थिक कल्याण हेतु ठोस कार्य करना।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक तथा अनुसूचित बैंक की तुलना
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक भी अनुसूचित बैंक (Scheduled Banks) हैं, परन्तु अनुसूचित बैंकों से ये अनेक बातों में मित्र हैं जैसा कि निम्न बातों से स्पष्ट है-
(1) कार्यक्षेत्र- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक का कार्यक्षेत्र किसी एक राज्य में अथवा एक से अधिक जिलों में एक विशेष क्षेत्र तक ही सीमित रहता है।
(2) ऋण पाने वाले पात्र- ये बैंक अपने कार्यक्षेत्र में विशेष रूप से छोटे और सीमान्त किसानों (जिनके पास 2 हेक्टेयर से अधिक भूमि नहीं है), भूमिहीन मजदूरों, कारीगरी तथा अन्य उत्पादकों (जिनकी वार्षिक आय 2.400 रुपये से अधिक नहीं है) को ऋण और अग्रिम धनराशि देते हैं। ग्रामीण बैंकों द्वारा विभिन्न प्रकार की ग्रामीण सहकारी समितियों को भी ऋण दिए जा सकते हैं।
(3) ब्याज-दरें- इन बैंकों को ब्याज दरें उस राज्य में कार्यरत सहकारी साख समितियों द्वारा वसूल की जाने वाली ब्याज दरों से अधिक नहीं होती।
(4) वेतन-ढांचे का निर्धारण- ग्रामीण बैंकों के कर्मचारियों का वेतन-ढाँचा केन्द्रीय सरकार द्वारा निश्चित किया जाता है। ऐसा करते समय राज्य के कर्मचारियों द्वारा उस क्षेत्र में उसी स्तर के कर्मचारियों के वेतन-स्तर को ध्यान में रखा जाता था। परन्तु अब इन कर्मचारियों के वेतन वाणिज्य बैंकों के कर्मचारियों के वेतन के समान कर दिये जाने की माँग की जा रही है।
(5) प्रवन्ध- प्रत्येक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के लिए 9 सदस्यों का एक संचालन-मण्डल होता है, जिसके अध्यक्ष की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की जाती है। यह संचालक मण्डल भारत सरकार द्वारा पारित किये गए आदेशों के अनुसार कार्य करता है।
(6) नाबार्ड (पहले रिजर्व बैंक) से सहायता- ये बैंक भी अनुसूचित बैंक हैं, किन्तु अन्य अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की अपेक्षा इन बैंकों को रिजर्व बैंक से अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। इन्हें राष्ट्रीय कृषि साख (दीर्घकालीन कार्य कोष तथा राष्ट्रीय कृषि साख (स्थिरीकरण) कोष से सहायता प्राप्त हो सकती है। इन फोपों की व्यवस्था पहले रिजर्व बैंक द्वारा जात परन्तु अब ये कोष नाबार्ड (NABARD) को हस्तान्तरित कर दिए गए हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को कुछ अन्य सुविधाएँ भी प्राप्त हैं।
(7) वैधानिक तरल कोष- इनके वैधानिक तरल कोष भी अन्य बैंकों से भिन्न हो सकते हैं। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा बनाए रखी जाने वाली नकदी निधि उनके निवल माँग और मियादी जमाराशियों का 3 प्रतिशत ही रही है।
(8) सरल कार्यप्रणाली- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली अन्य बैंकों से मित्र तथा सरल है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लिए सिद्धान्त वह अपनाया गया है कि 15 लाख रुपए की जमाराशि प्राप्त होने पर ये 2 करोड़ रुपए तक के ऋण दे सकते हैं। शेष राशि प्रवर्तक बैंकों, रिजर्व बैंक तथा राज्य सरकारों से प्राप्त की जा सकती है। अक्टूबर 1976 में चालू को गयी योजना के अन्तर्गत रिजर्व बैंक इन्हें पुनर्वित (refinance) की सुविधा देता रहा है। नाबार्ड की स्थापना हो जाने पर अब रिजर्व बैंक की ग्रामीण बैंकों के प्रति जिम्मेदारियों यह संस्था (नाबार्ड) निमा रही है।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की प्रगति- 30 जून, 2006 को 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की 23 राज्यों में 500 जिलों के अन्तर्गत 14,500 शाखाएँ कार्य कर रही थीं। 30 जून 2010 को इन बैंकों की 15,486 शाखाएँ थीं। ये ग्रामीण बैंक अनुसूचित व्यापारिक बैंकों द्वारा प्रदत्त कुल ग्रामीण साख में 37.0% का योगदान देते हैं। 2010-11 में इन बैंकों ने कृषि क्षेत्र को ₹43,273 करोड़ के ऋण दिए। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक सिक्किम तथा गोवा के अलावा सभी राज्यों में कार्यरत हैं।
केलकर समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए अप्रैल 1987 के बाद कोई नया क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक नहीं खोला गया है। सितम्बर 2005 में प्रारम्भ की गई चरणबद्ध विलय-प्रक्रिया के परिणामस्वरूप इन बैंकों की संख्या 196 से घटकर 31 मार्च, 2010 को 82 रह गई थी जिनकी 30 जून, 2010 को 15,486 शाखाएँ थीं।
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की समस्याएँ- इन बैंकों को निम्न समस्याओं का सामना करना पड़ा है-
(1) संगठनात्मक समस्याएँ- इन बैंकों की अंश पूंजी में केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार तथा प्रायोजक बैंक का हिस्सा होता है। इस प्रकार की बहु-एजेन्सी नियन्त्रण व्यवस्था के अन्तर्गत क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(2) ऋण वसूली में कठिनाइयों- ग्रामीण बैंकों की ऋणों की वसूली दर अत्यन्त असन्तोषजनक है। ऋणों की वसूली में विलम्ब होने के कारण इन बैंकों की ऋण देने की क्षमता पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
(3) बैंकों को हानि में चलाने की समस्या- अनेक क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक आज भी घाटे में चल रहे हैं। कुछ बैंकों को तो इतनी हानि उठानी पड़ी है कि उन बैंकों की अंश पूंजी तथा संचित राशि भी समाप्त हो गई है। इन बैंकों को संकट से उबारने के लिए 1993-94 में पुनर्पूजीकरण प्रक्रिया (recapitalisation process) भी प्रारम्भ की गई। इसके अतिरिक्त, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यप्रणाली में सुधार लाने हेतु नाबार्ड इन बैंकों के कामकाज पर तिमाही आधार पर निगरानी रख रहा है।
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