कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

ग्रामीण शिक्षा (Rural Education)

ग्रामीण शिक्षा (Rural Education)
ग्रामीण शिक्षा (Rural Education)

ग्रामीण शिक्षा (Rural Education)

अपने आधुनिक रूप में लोकतन्त्र ऐसे राष्ट्र में बिल्कुल असम्भव है जहाँ बहुत से आदमी पढ़ नहीं सकते।”

– बर्ट्रेंड रसल

ग्रामीण शिक्षा की आवश्यकता

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है। इसलिए देश के विकास के लिए गाँवों की समस्याओं का समाधान परमावश्यक है। वर्तमान काल में भारत के गाँवों में बहुत सी समस्याएँ विद्यमान हैं जिन्होंने अभी तक स्वर्ग समान इन गाँवों को नरक-तुल्य बना रखा है। यूँ तो देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में गाँवों की समस्याओं में कुछ-न-कुछ स्थानीय अन्तर पाया जाता है, परन्तु इस स्थानीय अन्तर को छोड़कर भी कुछ समस्याएं ऐसी हैं जिन्हें देश के सभी गांवों की सामान्य समस्याएँ माना जा सकता है। ऐसी प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित है-

(1) खेती की असन्तोषजनक दशा- यद्यपि भारत एक कृषि प्रधान देश है, तथापि यहाँ पर खेती की दशा दयनीय है। खेतों के निरन्तर बिखण्डन के कारण अनार्थिक जोतों (uneconomic holdings) की संख्या बढ़ रही है। किसानों को खेती के नए-नए प्रयोगों, नए औजारों, नई पद्धतियों आदि का ज्ञान नहीं है। वे आज भी पुराने ढंग से खेती करते हैं और खेती के उन्नत तथा आधुनिक ढंगों से अनभिज्ञ होने के कारण खेती की समस्याओं को निपटाने के लिए पुराने दकियानूसी उपायों को ही काम में लाते हैं। इससे प्रति एकड़ उपज बहुत कम रहती है और वर्ष में फसलों की संख्या भी अन्य देशों की अपेक्षा कम है।

(2) कुटीर उद्योगों की कमी- भारत के गाँवों में कुटीर उद्योगों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है और न ही लोगों को उनके सम्बन्ध में नई-नई विधियों का ज्ञान है। मुर्गीपालन, मत्स्य पालन, कपड़ा बनाना आदि कुटीर उद्योगों का भारतीय गाँवों में समुचित विकास नहीं हुआ है और जहाँ कहीं ये है भी, पुराने दंगों को अपनाए जाने के कारण उनकी दशा बही असन्तोषजनक है।

(3) गरीबी और बेरोजगारी- भारतीय गाँवों में गरीबी और बेरोजगारी के भयंकर अभिशाप स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। असंख्य ग्रामीण ऐसे हैं जिनको दो वक्त पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता। किसी भी गांव में चले जाइए वहाँ आपको गलियों में चिथड़े पहने खेलते हुए मैले बालक-बालिकाओं को देखकर उनकी गरीबी का सहज ही आभास हो जायेगा। अधिकतर मकान कच्चे, अस्वास्थ्यकर और छोटे दिखाई पड़ेंगे भारत में अधिकांश ग्रामीणों को साल भर रोजगार नहीं मिलता। वे साल में कई महीने बेकार रहते हैं। गरीबी और बेकारी ने मिलकर भारतीय ग्रामीणों की दुर्दशा कर रखी है।

(4) गन्दगी- भारत में साफ सुथरे गांवों की संख्या बहुत कम है। अधिकतर गाँवों में घोर गन्दगी दिखाई पड़ती है। गलियों में खुली नालियों में गन्दा बदबूदार पानी बहता रहता है। बरसात में यह पानी फैलकर और गली में पड़े मल-मूत्र से मिलकर साक्षात् नरक का दृश्य उपस्थित करता है। गलियों के पक्के होने की बात ही क्या अधिकतर गाँवों में पक्की सड़कें भी नहीं हैं।

(5) ऋणग्रस्तता— भारत के गांवों में ऋणग्रस्तता का अभिशाप गाँव वालों को जीवन भर फलने-फूलने नहीं देता। कुछ थोड़े से साहूकार उनसे उल्टे-सीधे कागज पर अंगूठा लगवाकर उन्हें जीवन भर लूटते हैं।

(6) फूट और मुकदमेबाजी- साहूकारों के साथ वकील भी इस लूट में शामिल हैं। आज गाँव वाले जरा-जरा सी बात पर मारपीट और कत्ल तक कर डालते हैं और छोटी-छोटी बातों को लेकर सालों-साल एक दूसरे के विरुद्ध मुकदमे लड़ते रहते हैं तथा अपने बाल बच्चों का दूध-घी छीनकर वकीलों की जेबें भरा करते हैं।

(7) अन्धविश्वास और अज्ञान- गाँव वालों की प्रगति और समृद्धि में सबसे बड़े बाधक अन्धविश्वास और अज्ञान है। इस कारण जहाँ वे जीवनयापन के नए-नए उपाय न अपनाकर जीवन भर गरीबी में सड़ा करते हैं वहीं आसानी से छूतों के चंगुल में फंस जाते हैं। वे अनावश्यक बातों में बहुत-सा रुपया फूंक देते हैं और जीवन की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते।

उपयुक्त ग्रामीण समस्याओं के कारणों का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि उनके मूल में सबसे बड़ा कारण अशिक्षा है। अशिक्षा के कारण गाँव वालों को नए-नए वैज्ञानिक आविष्कारों का पता नहीं चल पाता। इससे खेती और कुटीर उद्योगों का समुचित विकास नहीं हो पाता। अशिक्षा के कारण ग्रामीण लोग स्वास्थ्य के मूल सिद्धान्तों को नहीं जानते और अनजाने ही रोगों के शिकार हो जाते हैं। अशिक्षा के कारण वे सुसंस्कृत नहीं हो पाते और गन्दे रहते हैं। ‘अशिक्षा’ अन्धविश्वास और अज्ञान का मूल आधार है। अशिक्षा के कारण गाँव याने साहूकारों ओर बकीलों की चालों को नहीं समझ पाते और उनके चंगुल में फंसकर लुटते रहते हैं। अशिक्षा के कारण वे एक-दूसरे को नहीं समझ पाते, उनका दृष्टिकोण बड़ा संकीर्ण और संकुचित रहता है और वे आपस में लड़ते रहते हैं। शिक्षा की कमी के कारण उनकी अर्थोपार्जन की योग्यता व क्षमता कम रहती है इसलिए वे गरीब रहते हैं। अशिक्षित ग्रामीण स्त्रियों अपनी सन्तानों का भली प्रकार पालन-पोषण नहीं कर पाती, समुचित पालन-पोषण के अभाव में यदि बच्चों का व्यक्तित्व नितान्त अविकसित रह जाए तो आश्चर्य ही क्या है? शिक्षा के अभाव में भारतीय ग्रामवासी जनतन्त्र के आवश्यक गुणों को विकसित कर ही नहीं सकते। बट्रेंण्ड रसल (Bertrand Russel) ने ठीक ही लिखा है, “अपने आधुनिक रूप में जनतन्त्र ऐसे राष्ट्र में बिस्कुल असम्भव है जहाँ बहुत से आदमी पढ़ नहीं सकते।” इसीलिए महात्मा गाँधी ने अपनी ग्रामीण विकास योजनाओं में बेसिक शिक्षा को इतना अधिक महत्त्व दिया था। परन्तु ग्रामीण समस्याओं के मूल में जिस शिक्षा का अभाव है यह केवल सूचनात्मक (Informative) न होकर व्यापक अर्थों में ऐसी होनी चाहिए जो मानव के भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास को समुचित प्रोत्साहन प्रदान करती हो। इस प्रकार की शिक्षा से निःसन्देह भारतीय ग्रामों की अधिकांश समस्याएं दूर हो सकती है। परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि शिक्षा भारत के ग्रामों की सभी समस्याओं का एकमात्र हल है। शिक्षा के साथ ही सामाजिक जागृति आर्थिक सुधार, सड़कों का निर्माण, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन, खेती के नए-नए आजारों और बीजों तथा आर्थिक सहायता का समुचित प्रबन्ध खाद का प्रबन्ध, सिंचाई के साधनों का विकास, सहकारी समितियों का प्रसार जमींदारी उन्मूलन, पंचायतों के पुनर्गठन आदि का भी ग्रामीण समस्याओं के समाधान में अपना स्थान है। परन्तु इतना अवश्य है कि इन सबका समुचित लाभ उठाने के लिए भी गाँव वालों को शिक्षित होना चाहिए। शिक्षा किसी भी ग्रामीण समस्या के समाधान की एकमात्र नहीं तो पहली शर्त अवश्य है।

गांवों में शिक्षा का प्रसार ग्रामीण समस्याओं को सुलझाने के लिए गाँवों में प्राथमिक शिक्षा तथा समाज शिक्षा का प्रसार परमावश्यक है। प्राथमिक शिक्षा बालकों को समाज के योग्य नागरिक के रूप में विकसित करेगी। समाज-शिक्षा से वयस्कों का सर्वांगीण विकास होगा। समाज-शिक्षा में साक्षरता के साथ-साथ कृषि और उद्योगों की शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, घरेलू तथा आर्थिक जीवन और नागरिकता की शिक्षा भी होनी चाहिए। इनमें कक्षा की पढ़ाई के अलावा रेडियो, नाच-गाने, कठपुतली का तमाशा, प्रदर्शनी, भजन-कीर्तन तथा अन्य उपायों से भी काम लिया जाना चाहिए। समाज-शिक्षा और प्राथमिक शिक्षा स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार होनी चाहिए और व्यावहारिक उपायों द्वारा दी जानी चाहिए। इसके लिए शिक्षक विशेष प्रकार के प्रशिक्षण महाविद्यालयों में प्रशिक्षित होने चाहिए। प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत भारतीय गांवों के बालकों को सर्वागीण शिक्षा मिलनी चाहिए। शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य होनी चाहिए।

भारत में अशिक्षा- 1991 की जनगणना के अनुसार देश में साक्षरता का प्रतिशत केवल 36.23 या जबकि विकसित राष्ट्रों में यह प्रतिशत 90 से 95 तक है। विश्व में कुल अशिक्षित प्रौढ़ 80 करोड़ हैं जिनमें से 18 करोड़ अशिक्षित प्रौद अकेले भारत में है। भारत के सभी आयु वर्गों में 41.01 करोड़ व्यक्ति अशिक्षित है। संख्या की दृष्टि से देश में निरक्षर व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि हुई है।

भारत में 1991 की जनगणना के अनुसार 52.21 प्रतिशत लोग शिक्षित थे। 64.13 प्रतिशत पुरुष तथा 40.29 प्रतिशत स्त्रियों शिक्षित थीं। सबसे कम शिक्षित लोग (38.55 प्रतिशत) राजस्थान में थे जबकि सबसे अधिक शिक्षित लोग केरल (89.7996) में थे। देश के अधिकांश अशिक्षित व्यक्ति गाँवों में रहते हैं।

2001 की जनगणना के अनुसार देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़कर 65.38 हो गया था। पुरुष साक्षरता 75.85 प्रतिशत तथा महिला साक्षरता 56.16 प्रतिशत थी। सर्वाधिक शिक्षित लोग केरल (90.92 प्रतिशत) में हैं। उत्तर प्रदेश में साक्षरता का प्रतिशत 57.36 है। देश में सबसे कम साक्षरता वाला राज्य बिहार (47.53 प्रतिशत) है।

जनगणना-2011 जनगणना 2011 के अस्थायी आकड़ों के अनुसार देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़कर 74.04 हो गया है, पुरुष साक्षरता 82.14 प्रतिशत तथा महिला साक्षरता बढ़कर 65-46 हो गई है। उत्तर प्रदेश में साक्षरता दर 69.72 प्रतिशत है (79.24% पुरुष तथा 59.26% महिला) सर्वाधिक साक्षरता दर वाला राज्य केरल (93.91%) है जबकि न्यूनतम साक्षरता वाला राज्य बिहार (63.82%) है।

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Anjali Yadav

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