कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

ग्राम्य जीवन का उद्भव तथा विकास (Origin and Development of Rural Life)

ग्राम्य जीवन का उद्भव तथा विकास (Origin and Development of Rural Life)

ग्राम्य जीवन का उद्भव तथा विकास (Origin and Development of Rural Life)

ग्रामीण समाज स्वायत्त शासन की छोटी-छोटी इकाइयाँ है-ऐसा प्रतीत होता है कि जब कोई व्यवस्था स्थिर रहेंगी ये तब भी स्थिर रहेंगे।”

– सर चार्ल्स मेटकाफ

ग्रामों का उदय (Origin of Villages)

जब मनुष्य ने खेती करना नहीं सीखा था तब वह खाने पीने की वस्तुओं की खोज में भटकता फिरता था और किसी स्थान पर जमकर नहीं रहता था। धीरे-धीरे जब मनुष्य ने खेती करना सीख लिया तब वह एक ही स्थान पर भूमि से अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ उत्पन्न करने लगा। इससे उसकी इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं रही। जहाँ जहाँ ऊपजाऊ भूमि मिली वहीं पर लोग स्थायी रूप से बसने लगे और खेती करने लगे। इस प्रकार कुछ परिवारों के एक भूखण्ड में निवास करने से, मुख-दुख में एक दूसरे का हाथ बँटाने से तथा मिलकर प्रकृति से संघर्ष करने से उनमें सामुदायिक भावना का विकास हुआ। इस सामुदायिक भावना के फलस्वरूप ही ‘ग्राम’ नामक आर्थिक तथा सामाजिक संगठन का उदय हुआ।

 

ग्रामों का विकास (Development of Villages)

यद्यपि सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में काफी आयोगीकरण (industrialisation) हुआ है तथापि अब भी देश की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है। इसलिए भारत को गाँवों का देश कहा जाता है। किन्तु यदि हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि भारत में गाँवों का महत्त्व कोई नई बात नहीं है। पूर्व ऐतिहासिक काल से ही भारतीय सामाजिक और आर्थिक संगठन में गाँव एक महत्त्वपूर्ण इकाई रहा है। भारतीय ग्रन्थों में सबसे पुराने ग्रन्थ वेद हैं। इनमें भी ऋग्वेद के अनुसार समाज अनेक समूहों में विभाजित होता है। इनमें सबसे छोटी इकाई परिवार है। अनेक परिवारों को मिलाकर एक ‘ग्राम’ बनता है। अनेक ग्रामों को मिलाकर एक ‘विश’ बनता है। अनेक विशों को मिलाकर एक जन’ बनता है और अनेक जनों को मिलाकर एक ‘राष्ट्र’ बनता है। इस प्रकार ऋग्वेद के अनुसार भारत के सामाजिक और राजनीतिक संगठन की इकाई ‘गाँव’ है। प्राचीन साहित्य में ‘गाँव’ शब्द का अर्थ एक स्थान पर रहने वाले अनेक परिवारों के समूह से लिया गया है। ग्राम का मुखिया ‘ग्रामीण’ कहलाता था किन्तु ऋग्वेद में ग्राम के आन्तरिक संगठन का विस्तृत वर्णन नहीं मिलता।

वेदों के बाद वाले साहित्य में ‘गाँव’ के विषय में विस्तृत वर्णन मिलता है। महाभारत में अनेक प्रकार के समूहों का वर्णन मिलता है। महाभारत के अनुसार, स्थानीय समूहों की रक्षा करने के लिए दुर्ग होते थे। दुर्ग के चारों ओर बसी हुई आबादी ‘ग्राम’ कहलाती थी। ग्रामों से बड़े ‘पट्टन’ या ‘कस्बे’ होते थे और कस्बों से बड़े नगर’ कहलाते थे। महाभारत में गाँव की व्यवस्था के साथ-साथ अन्तर्ग्रामीण संगठनों (inter-village organisations) का भी उल्लेख किया गया है। महाभारत के अनुसार, ‘ग्राम’ देश के प्रशासन की मूलभूत इकाई थी। उसका मुखिया ‘ग्रामीण’ कहलाता था। ग्रामीण का कर्त्तव्य दो मील की परिधि में गाँव की सीमाओं की रक्षा करना होता था। अनेक गाँवों के समूह पर उनका एक नेता शासन करता था। प्रायः 10 गाँवों को मिलाकर एक समूह बनता था जिसका नेता ‘देश ग्रामीण’ कहलाता था दस-दस गाँव के दो समूहों पर विशतिक नेता होता था। इस प्रकार विशतिक की अध्यक्षता में बीस गाँव होते थे। सौ गाँवों तथा हजार गाँवों का भी समूह होता था। सौ गाँवों के समूह का नेता ‘शत ग्रामीणी’ तथा हजार गांवों का नेता ‘अधिपति’ कहलाता था।

महाभारत के बाद मनुस्मृति में गाँव का विस्तृत वर्णन मिलता है। मनु ने ग्राम, पुर तथा नगर में अन्तर बताया है। ये क्रमशः एक-दूसरे से बड़ी आबादी के समूह होते थे। मनुस्मृति के अनुसार, गाँव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी गाँव के अपने कर्मचारी तथा अपना संगठन होता था। महाभारत के समान मनुस्मृति में भी ग्राम का नेता ग्रामीण माना गया है। गाँव की अधिकतर समस्याओं को गाँव वाले ही सुलझाते थे। उदाहरणार्थ, कुएं, तालाब, पोखर, जलाशय, चरागाह, पार्क आदि की देखभाल गाँव वाले ही करते थे। इसके अतिरिक्त, परिवार, जाति प्रथा तथा समाज के अन्य पहलुओं से सम्बन्धित अनेक समस्याएँ भी गाँव के लोगों द्वारा ही सुलझाई जाती थीं मनुस्मृति के अनुसार सी गाँवों पर एक ‘शतेश’ होता था जबकि बीस तथा दस गाँवों पर क्रमशः ‘विंशी’ तथा ‘दशी’ होते थे। एक हजार गांवों के ऊपर ‘सहस्त्रोश’ होता था।

इस प्रकार भारत में गाँवों का हजारों-लाखों वर्षों में क्रमिक विकास हुआ है। यद्यपि महाभारत और मनुस्मृति के समय से लेकर आज तक भारत के गाँवों में असंख्य परिवर्तन हुए हैं, फिर भी मूल रूप में गाँव अब भी देश की प्रशासनिक इकाई है। आज भी प्रत्येक गाँव का एक मुखिया होता है जो गाँव की अनेक बातों के लिए जिम्मेदार होता है। आज भी सैकड़ों गाँव मिलकर एक सांस्कृतिक क्षेत्र बनाते हैं जिनमें कुछ समान सांस्कृतिक विशेषताएँ पाई जाती है। किन्तु प्राचीन गाँवों तथा आधुनिक गाँवों में एक मूलभूत अन्तर यह है कि प्राचीन गाँव आत्मनिर्भर होते थे, किन्तु आज भारत में कोई भी गाँव आत्मनिर्भर तथा स्वतन्त्र नहीं है। आज सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी दृष्टि से गाँव बहुत कुछ शहरों पर निर्भर हैं। आज का ग्रामीण केवल एक गाँव का ही सदस्य नहीं है बल्कि यह एक जाति, एक धर्म और एक राष्ट्र का भी सदस्य है।

भारतवर्ष एक गणराज्य है जिसमें छोटे बड़े अनेक राज्य हैं। प्रत्येक राज्य जिलों में बैटा हुआ है और प्रत्येक जिला तहसीलों में बँटा हुआ है। प्रत्येक तहसील में बहुत से गाँव होते हैं। प्रशासन की दृष्टि से गाँव के मुखिया तथा अन्य नेता तहसील के अधिकारियों पर निर्भर होते हैं। कई गाँवों की एक पंचायत होती है जो अपने अधीन गाँवों के अधिकांश सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक मामलों को सुलझाती है। देश का भविष्य गाँवों पर निर्भर है। ये गाँव जितने अधिक संगठित तथा समृद्ध होंगे देश भी उतना ही अधिक संगठित तथा समृद्ध होगा।

भारत में गाँवों की संख्या- 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में आबादी वाले ग्रामों (inhabited villages) की संख्या 5,93,616 थी।

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Anjali Yadav

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