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ग्राम : अर्थ, सामाजिक गठन (Village : Meaning, Social Organisation)
ग्रामीण समुदाय एक पड़े में शान्त जत के समान है और शतरी समुदाय कतली में उबलते हुए पानी के समान….|
-सौरोकिन व जिमरमैन
गाँव या ग्रामीण समुदाय का अर्थ (Meaning of Village or Village Community)
जब मनुष्य ने खेती करना नहीं सीखा था तब वह खाने पीने की वस्तुओं की खोज में भटकता फिरता था और किसी स्थान पर जमकर नहीं रहता था। आज भी घुमक्कड़ जातियों के लोग स्थाई जीवन व्यतीत नहीं करते। धीरे-धीरे मनुष्य ने जब खेती करना सीखा तब वह एक ही स्थान पर भूमि से अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ उत्पन्न करने लगा। इससे उसको व्यर्थ घूमने की आवश्यकता नहीं रही। दूसरे, प्रत्येक स्थान पर उपजाऊ जमीन भी नहीं मिल सकती थी। अतः जहाँ-जहाँ उपजाऊ जमीन थी और पानी का साधन था वहाँ लोग स्थाई रूप से बस गए और खेती करने लगे। इस प्रकार, कुछ परिवारों के एक भूखण्ड में निवास करने से, सुख-दुःख में एक-दूसरे का हाथ बँटाने से और मिलकर प्रकृति से संघर्ष करने से उनमें सामुदायिक भावना का विकास हुआ और स्वभावतः एक आर्थिक संगठन का विकास हुआ जिसे ‘गाँव’ कहा गया। व्यवहार और रहन-सहन तथा सामाजिक सम्बन्धों के विषय में कुछ नियम बने जो क्रमशः परम्पराओं के रूप में सुदृढ़ हो गए। इस प्रकार ‘ग्राम’ या ‘ग्रामीण समुदाय’ की परिभाषा व्यक्तियों के एक ऐसे समूह के रूप में की जा सकती है जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में स्वाई रूप से रहता हो और जिसके सदस्यों में सामुदायिक भावना तथा सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक सम्बन्ध विकसित हो चुके हों जो उसको अन्य समुदायों से अलग करते हों।
आज गाँव तथा शहर का पारस्परिक सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन इतना घनिष्ठ होता जा रहा है कि इन दोनों के बीच स्पष्ट विभाजन नहीं किया जा सकता। फिर भी गाँव के अर्थ पर दृष्टिपात करते हुए यह कहा जा सकता है कि गाँव एक ऐसा समुदाय है जहाँ अपेक्षाकृत आर्थिक समानता, अनौपचारिकता, प्राथमिक समूह की प्रधानता, जनसंख्या का कम घनत्व तथा कृषि ही मुख्य व्यवसाय होता है।
ग्रामों का सामाजिक गठन (Social Organisation of Villages)
भारतीय ग्रामों के सामाजिक गठन सम्बन्धी प्रमुख बातें निम्न है-
(1) जाति- ग्रामीण समाज विभिन्न जातियों का संगठित समूह होता है। ये जातियाँ एक-दूसरे से ऊँचे सामाजिक संस्तरण से बंधी हुई होती हैं। इनमें आपस में जजमानी सम्बन्ध होते हैं। सभी जातियों एक-दूसरे का काम करती हैं। सामाजिक संस्तरण में ब्राह्मण सर्वोच्च हैं और अस्पृश्य कहलाने वाली निम्न जातियों सबसे नीचे आती हैं। जातियों के अपने-अपने संगठन तथा नियम हैं और जाति से बाहर विवाह वर्जित है। जातियों की पंचायतें आजकल कमजोर पड़ रही है। जाति-पंचायत सदस्यों पर सामाजिक नियन्त्रण रखती थीं। जाति-पंचायतों के अलावा वंश-समूह, जनजाति समूह तथा वर्ग-समूह के संगठन भी व्यक्ति पर सामाजिक नियन्त्रण रखते हैं। आमतौर से विभिन्न जातियों के लोग अपने-अपने विशिष्ट व्यवसाय करते हैं; किन्तु अब जातियों के व्यवसाय उतने निश्चित नहीं रह गए हैं जितने कि ये पहले थे।
(2) परिवार- व्यक्ति पर सबसे अधिक नियन्त्रण परिवार का होता है। पहले भारतीय गाँवों में संयुक्त परिवार अधिक थे। किन्तु 1951 की जनगणना से यह स्पष्ट हुआ कि ग्रामीण सामाजिक संगठन की इकाई संयुक्त परिवार न होकर एकाकी परिवार है। जनगणना ने चार प्रकार के परिवार बतलाए हैं-छोटा, मध्यम, बड़ा और बहुत बड़ा छोटे परिवार में तीन या उससे कम सदस्य होते हैं। मध्यम परिवार में चार पाँच या छः सदस्य होते हैं। बड़े परिवार में सात, आठ या नौ सदस्य होते हैं। 1951 की जनगणना के अनुसार भारत के प्रतिनिधि गाँव में छोटे परिवारों की संख्या 33 प्रतिशत और मध्यम परिवारों की संख्या 44 प्रतिशत, बड़े परिवारों की संख्या केवल 17 प्रतिशत और बहुत बड़े परिवारों की संख्या केवल 6 प्रतिशत थी। इस प्रकार गाँवों में गभग 77 प्रतिशत छोटे या मध्यम परिवार थे। इसका अर्थ यह हुआ कि गाँवों में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। वैसे भी वर्तमान में सामाजिक परिस्थितियों में तीव्रता से होने वाले परिवर्तनों के कारण संयुक्त परिवारों का विघटन निश्चित है। यह बात देखने की है कि उनके स्थान पर छोटे परिवार कहाँ तक बने रहेंगे।
(3) अन्य संगठन वर्ग- जाति समूह और परिवार समूह के अलावा ग्रामीण सामाजिक संगठन में वंश-समूह भी पाए जाते हैं। इनका संगठन परिवार से कम और जाति से अधिक दृढ होता है और संकट-काल में सदस्य एक दूसरे की सहायता करते हैं। बड़े-बड़े गाँवों में मोहल्ला और पट्टियों में भी एक प्रकार का संगठन पाया जाता है। इसके अलावा गाँवों में आर्थिक वर्ग भी देखे जा सकते हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय गाँवों में कृषक जमीदार, कृषक आसामी, कृषक श्रमिक और गैर-कृषक वर्ग के लोग देखे जा सकते थे।
(4) विवाह- गाँवों में विवाह बहुधा अपनी जाति में होते हैं। अधिकतर जिन गाँवों में लड़की दी जाती है उनसे लड़की तो नहीं जाती। वर पक्ष को लड़की के साथ काफी धन और वस्तुएं भी दी जाती है, परन्तु कहीं-कहीं वर पक्ष कन्या-पक्ष की एक बड़ी रकम देता है। विवाह बहुधा माता-पिता तय करते हैं। अब गाँवों में वर-वधू की आयु बढ़ रही है।
(5) परस्पर सम्बन्ध- ग्रामीण समाज की उपर्युक्त रूपरेखा से ही गाँव के जीवन का समाजिक पहलू स्पष्ट नहीं हो जाता। इसके लिए गाँवों में लोगों के सामाजिक सम्बन्धों को जानना भी आवश्यक है। अधिकतर सम्बन्ध पारिवारिक होते हैं। गाँव के सभी बूढ़ों की गाँव का हर एक युवा व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) काका, ताऊ, दादा, बाबा, चाचा आदि कहकर पुकारता है। इसमें धर्म अथवा जाति के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता। इसी प्रकार गाँव के सभी पुरुष गाँव की सभी लड़कियों को अपनी बहन या बेटी मानते हैं। गाँव की लड़कियाँ भी गाँव के नौजवानों को अपना भाई मानती हैं। इसी प्रकार गांवों की बूढ़ी स्त्रियाँ काकी, ताई, चाची, दादी, नानी आदि सम्बन्धों से पुकारी जाती हैं। इस प्रकार पूरा गाँव एक वृहद परिवार के समान होता है। जिन गाँवों में आजकल वैर और फूट का बोलबाला है उनमें भी यह पारिवारिक भावना बिल्कुल नहीं मिटी है। विपत्ति के समय विशेषतः प्राकृतिक आपदा या गाँव के बाहरी लोगों से झगड़े के समय गाँव के लोग एक-दूसरे की सहायता करते हैं। इधर साम्प्रदायिकता बढ़ने तथा दलगत प्रचार के कारण फूट बढ़ने से सामाजिक भ्रातृत्व कम होता जा रहा है, परन्तु भारत के जो गाँव इन प्रभावों से आते हैं उनमें यह भाई-चारा अभी भी देखा जा सकता है। गांव के धनी-निर्धन, जमींदार-आसामी, जजमान कमीन और लेनदार-देनदार में भी घर के से सम्बन्ध पाए जाते हैं। गाँव के सभी लोग सामाजिक त्योहार मिलकर मनाते हैं। इसी प्रकार गाँव के उत्सवों तथा शादी-ब्याह के अवसर पर भी विभिन्न धर्मों, जातियों और समूहों के परस्पर मिलने का अवसर आता है।
नगर का अर्थ (Meaning of City)
कोई भी नगर ऐसा नहीं है जिसमें नगर और गाँव दोनों की विशेषताएँ न पाई जाती हों। अतः नगर की कोई निश्चित तथा स्पष्ट परिभाषा देना कठिन है। वैसे मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि ‘नगर’ सामाजिक विभिन्नताओं का ऐसा समुदाय होता है जहाँ देतीयक समूह एवं नियन्त्रणों, व्यापार तथा उद्योग, घनी आबादी तथा अवैयक्तिक सम्बन्धों की प्रधानता होती है।
नगर में विभिन्न प्रकार के उद्योग-धन्ये, व्यापार तथा वाणिज्य संस्थान होते हैं। देश के विभिन्न भागों से हर जाति, धर्म तथा वर्ग के लोग नगर में आकर बस जाते हैं। इसलिए नगर की आबादी में अधिकता तथा विभिन्नता पाई जाती है। आबादी के अधिक होने वा नगरीय-समुदाय का आकार बड़ा होने के कारण अधिकतर लोगों के आपस में वैयक्तिक सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाते जिस कारण दैतीयक समूहों और नियन्त्रणों की प्रधानता होती है। धीरे-धीरे जब कोई गाँव शहर की विशेषताओं को ग्रहण कर लेता है तो वह नगर बन जाता है।
विशेषताएँ- नगरों में मुख्यतः ये विशेषताएँ पाई जाती है- (1) सामाजिक विभिन्नता, (2) व्यवसायों की बहुलता (3) घनी आबादी (4] श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण, (5) अवैयक्तिक सामाजिक सम्बन्ध (6) फिजूलखर्ची और ऊपरी ठाठ-बाट, (7) हम या सामूहिक भावना का जमाव (8) सामाजिक गतिशीलता (9) मानसिक संघर्ष, तथा (10) धर्म और परिवार का कम महत्व।
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