कहानी कला की दृष्टि से जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुण्डा’ की समीक्षा कीजिए।
‘गुण्डा’ कहानी की समीक्षा
जयशंकर प्रसाद की कहानी गुण्डा में 18वीं शताब्दी के काशी के हालात का चित्रण किया गया है। इस समय की काशी प्राचीनकाल की काशी से बहुत भिन्न थी जब यहाँ देश विदेश से लोग धर्म दर्शन के ज्ञान हेतु आया करते थे। 18वीं शताब्दी में देश पर अंग्रेज़ों का शासन था और इस शासन ने समस्त भारतवासियों पर क़हर बरपा रखा था। अंग्रेजी आतंक से त्रस्त काशी के कुछ युवकों ने अंग्रेजी शासन का विरोध करने का बीड़ा उठाया। इन युवकों को अंग्रेजी शासन और उनके समर्थकों द्वारा ‘गुण्डा’ कहा जाता था। नन्हकू सिंह भी ऐसा ही एक गुण्डा है जो इस कहानी का प्रमुख पात्र है।
कहानी कला की दृष्टि से ‘गुण्डा’ कहानी की संक्षिप्त समीक्षा इस प्रकार है-
(1) कथावस्तु या कथानक- ‘गुण्डा’ कहानी का कथानक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – पर सृजित किया गया है। ऐतिहासिक के साथ-साथ देश भक्ति, प्रेम तथा सौन्दर्य की कल्पना का भी मधुर मिश्रण कहानी में है। कहानी में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की काशी की दशा को चित्रित किया गया है। जब अंग्रेजी शासन और उनके गुर्गों ने काशी की आम जनता को आतंकित कर रहा था। ऐसी स्थिति में काशी के अनेक नवयुवकों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाया। इन लोगों को आम जनता की सहानुभूति प्राप्त थी। ऐसे लोगों को काशी का ‘गुण्डा’ कहा गया है। ऐसा ही एक गुण्डा नन्हकू सिंह है जिसको कहानीकार जयशंकर प्रसाद ने इस प्रकार चित्रण किया है— “वह पचास वर्ष से ऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ एवं दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कड़ाती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछे बिच्छू के डंक की तरह वालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता था। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूँठ का बिछुआ खुंसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर से सुनहरे पल्ले के साये का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता था। ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गड़ासा, यह थी उसकी सज धज? पंजे के बल जब वह चलता था तो उसकी नसें चटापट बोलती थीं। वह गुण्डा था।” काशी का यह गुण्डा नन्हकूसिंह एक प्रतिष्ठित जमींदार का पुत्र है जो काशी नरेश बलवन्त सिंह द्वारा अपनी प्रेयसी पन्ना के बलात ग्रहण करने से मानसिक चोट खाकर गुण्डा हो गया है। कहने को तो यह गुण्डा है किन्तु दीन-दुखियों की सेवा और अत्याचारियों का सर्वनाश करना है। इसका काम है। यह काशी का उदार, दानी एवं वीर पुरुष है। समस्त कथानक इसी के चरित्र विकास को लेकर चलता है।
कहानी का विस्तार नाटकीयता एवं कलात्मकता से होता है। विकास के भी कई आयाम हैं। नन्हकूसिंह अँग्रेजों के पिट्टू मौलवी ‘अलाउद्दीन कुबरा’ को जो दुलारी वैश्या को रेजीडेण्ट की कोठी पर उसकी इच्छा के विरुद्ध मुजरा करने ले जा रहा था झापड़ मार कर अपमानित कर देता है। सारा नगर मौलवी अलाउद्दीन से आतंकित था किन्तु नन्हकूसिंह उसकी तनिक भी चिन्ता नहीं करता उसके इस साहसिक कार्य से सभी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह घटना कहानी को मध्य बिन्दु की ओर ले जाती है। मौलवी रेजीडेण्ट को उत्तेजित कर नगर के समस्त गुण्डों को पकड़वाने का आदेश जारी करा देता है और कोतवाल हिम्मतसिंह ने जहाँ गुण्डों को देखा वहीं पकड़ कर कोतवाली में बन्द कर देता है। कथानक धीरे-धीरे लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। अन्त में उस समय कथावस्तु अधिक विकसित होती है जबकि दुलारी। निस्तब्ध रात में नन्हकूसिंह के पास आती है और वह नन्हकूसिंह को यह भी सूचना देती है कि कोई हेस्टिंग्स साहब आ गया है। उसने शिवालय घाट पर तिलंगों की कम्पनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना वहीं अंग्रेज उन्हें पकड़ कर कलक्तता भेजने वाले हैं। इस सन्देश से नन्हकूसिंह का पन्ना के प्रति संचित प्रणय और दीप्त हो जाता है। उसे कर्तव्य एवं आत्म-बलिदान की दिशा दिखाई देती है। वह अधीर हो उठता है।
कथावस्तु उस समय अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाती है जब नन्हकूसिंह शिवालय भवन में पीछे से खिड़की के मार्ग से प्रवेश कर राजमाता पन्ना को रामनगर जाने के लिए डोंगी पर उतार देता है। महाराज चेतसिंह को बन्दी बनाने के लिए आये चेतराम, कुबरा मौलवी और लेफ्टिनैण्ट इस्टाकर को धराशायी कर महाराज चेतसिंह से ललकार कर कहता है— ‘आप देखते क्या हैं? उतरिये डोंगी पर।” नन्हकू के आत्म-समर्पण में कथा अपने चरम बिन्दु को पहुँच जाती है।
कहानी का अन्त भी कलात्मक है। पाठक उसे पढ़कर ठगा-सा रह जाता है। कहानी का अन्त नन्हकू की कर्तव्य-परायणता की दिशा में होता है। सच्चे प्रणय का यही लक्षण है कि वह आत्म-बलिदान कर दे। प्रणय की ज्योति से दीप्त चिरकुमार नन्हकूसिंह अपनी प्रेयसी तथा उसके के लिए आत्म-बलिदान कर रहा था। उसका एक-एक अंग कट कर गिर रहा था और पुत्र अन्ततः पर बलिदान हो जाता है। एक आत्म-बलिदान का यह अन्त किसके हृदय को आन्दोलित न करेगा? पाठक अवसन्न रह जाते हैं। उनके हृदय की सभी सहानुभूति उमड़ कर नन्हकूसिंह में केन्द्रित हो जाती है। तिलंगों से लोहा लेते इस अप्रतिम वीर का चित्र सभी के मानस पटल पर खिंचा रह जाता है।
(2) पात्र एवं चरित्र चित्रण- ‘गुण्डा’ कहानी में प्रमुख पात्रों की संख्या अधिक नहीं है। पुरुष पात्रों में नन्हकूसिंह सर्वाधिक प्रमुख हैं और नारी पात्रों में राजमाता पन्ना का सर्वोच्च स्थान है। कथा-नायक नन्हकूसिंह है जो वीर, देशप्रेमी, चरित्रवान, आन पर मर मिटने वाले, असहायों के रक्षक, मूक प्रेमी और मूक प्रेमी के लिये अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले एक वीर और साहसी युवक के रुप में सामने आते हैं। दूसरा प्रमुख पात्र राजमाता पन्ना हैं। इनको नन्हकूसिंह बचपन से प्रेम करते थे परन्तु काशी नरेन्द्र बलवंतसिंह जबरदस्ती इनसे विवाह कर लेते हैं। इससे नन्हकूसिंह को ठेस लगती है और वे अपना सर्वस्व लुटा देते हैं। राजमाता पन्ना का जीवन सुखी नहीं है। वे गृह-कलह के कारण रामनगर के महल को छोछकर शिवालय घाट के महल में अपने पुत्र चेतनसिंह के साथ रहती हैं और पूजापाठ में अपना समय व्यतीत करती हैं। में इन प्रमुख पात्रों के अतिरिक्त अन्य पात्रों में चेतसिंह, मल्लू तमोली, मलूकी, बोधी सिंह, मौलवी अलाउद्दीन कुबरा, मनियार सिंह तथा अंग्रेज पात्र इस्टाकर का भी उल्लेख आया है, स्त्री पात्रों में दुलारी है। उक्त सभी पात्र वर्गगत विशेषताओं के साथ अपने व्यक्तित्व की विशेषतायें लेकर ही सामने आते हैं।
(3) कथोपकथन- ‘गुण्डा’ कहानी के कथोपकथन अत्यन्त ही स्वाभाविक, नाटकीय और समयानुकूल हैं। वे कथानक को विकसित करते हैं। वातावरण की सृष्टि करते हैं और पात्रों के चरित्र चित्रण में सहायक होते हैं। कहीं पर छोटे-छोटे भावपूर्ण संवाद, कहानी को सशक्त बना देते हैं तथा कहीं-कहीं लिखे होने के कारण बोझिल भी हो गये हैं। सभी कथोपकथन की शैली नाटकीय है। उनका उपयुक्त प्रयोग कहानी को चित्रात्मक व्यंजनपूर्ण, स्वाभाविक और संगठित बना देता है।
एक घण्टे में दुलारी सामने आ गई और उसने मुस्कुराकर पूछा- “क्या दुःख है बाबू “दुलारी! आज गाना सुनने को मन कर रहा है। ” इस जंगल में क्यों – उनसे सशक्त हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा। “तुम किसी तरह का खटका न करो” – नन्हकूसिंह ने हँसकर कहा। “यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह कर आई हूँ।” “क्या किससे?” “राजमाता पन्ना देवी से । ” पन्ना का नाम सुनते ही नन्हकूसिंह की आँखें तर हो जाती हैं। उनके सामने पिछली घटनायें याद आ जाती हैं। इस प्रकार इस कहानी के संवाद अथवा कथोपकथन नन्हकूसिंह के चरित्र को उभारते हैं।
(4) देशकाल एवं वातावरण प्रसाद जी की कहानी में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की काशी की दशा का चित्रण किया गया है। जहाँ अंग्रेजी शासक और उनके वफ़ादारों आम लोगों पर अत्याचार ढा रखा है। आम जनता और राजा चेतसिंह अंग्रेजी अत्याचारों से त्रस्त हैं। नन्हकूसिंह अंग्रेजी शासन का विरोधी है और राजा चेतसिंह से सहानुभूति रखता है।
(5) भाषा-शैली-भाषा-शैली की दृष्टि से प्रसाद जी पर्याप्त धनी थे। उनकी कहानियों की भाषा विषयानुकूल थी। प्रस्तुत कहानियों की भाषा शुद्ध, तत्सम होने पर भी सरल है। उसमें सफलता और प्रेषणीयता है। मुहावरे का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु इनका अभाव खटकता नहीं है।
( 6 ) उद्देश्य प्रस्तुत कहानी में उपदेशात्मक या प्रचारात्मक कोई उद्देश्य नहीं है। यह कहानी, त्याग, बलिदान, मूक प्रणय और आन पर मिटने का आदर्श प्रस्तुत करती है। नायक नन्हकूसिंह के चरित्र में इन्हीं गुणों का उत्कर्ष दिखाया गया है। यह उद्देश्य बड़े कलात्मक रूप से साहब।” विकसित हुआ
(7) शीर्षक-उपरोक्त कहानी का शीर्षक ‘गुण्डा’ सार्थक वह सटीक है। वह समस्त कथावस्तु को अपने में समाहित किये हुये हुए हैं। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है कहानी के नायक नन्हकूसिंह (गुण्डा) का चरित्र उभरता है और पाठकों की सहानुभूति नन्हकूसिंह से होती जाती है।
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