निर्णयन की प्रकृति को समझाइये।
निर्णयन की प्रकृति (Nature of Decision)
निर्णयन आदेश, निर्देश, नीति अथवा नियम के रूप में व्यक्त किए जाते हैं। निर्णयन की प्रकृति में निम्नलिखित बातें सम्मिलित की जाती हैं-
(1) प्रबन्धक का प्राथमिक कार्य – प्रत्येक प्रबन्धक को समय-समय पर आवश्यक निर्णय लेने पड़ते हैं। प्रबन्ध की सफलता या असफलता का श्रेय बहुत कुछ सीमा तक प्रबन्धकीय निर्णयों पर निर्भर करता है और इसे प्रबन्धकीय कुशलता का मापदण्ड माना जाता है।
(2) निरन्तरता – निर्णयन का कार्य किसी न किसी रूप में भूत, वर्तमान और भविष्य सभी से सम्बन्धित होता है। कोई समस्या एक समय उत्पन्न होती है, दूसरे समय में उस समस्या के समाधान के लिए विचार-विमर्श किया जाता है अर्थात् सर्वोत्तम विकल्प का निर्धारण किया जाता है।
(3) ‘निर्णयन’ और निर्णय में अन्तर है – निर्णयन एक प्रक्रिया है जिसके आधार पर निर्णय लिया जाता है और यह माना जाता है कि निर्णय इस प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम है।
(4) वचनबद्धता – निर्णय लेने वाला व्यक्ति कोई निर्णय लेने के बाद अपने निर्णय से वचनबद्ध हो जाता है कि वह सभी कार्य अपने निर्णय के अनुसार ही करें। नियोजन के सम्पूर्ण कार्यों एवं अन्य व्यावसायिक क्रियाओं पर इस निर्णय का प्रभाव पड़ता है। एक प्रबन्धक की कुशलता एवं ख्याति उसके द्वारा लिए गए निर्णयों की सफलता या अवसफलता के आधार पर आँकी जाती है। अतः निर्णयकर्ता को निर्णय लेते समय बहुत सावधानी रखनी चाहिए और स्वयं के द्वारा लिए गए सभी निर्णयों के प्रति वचनबद्ध होना चाहिए।
(5) निर्णयन नियोजन का अंग है— इस सन्दर्भ में न्यूमैन तथा समर का यह कथन उल्लेखनीय है कि “निर्णयन नियोजन का एक महत्वपूर्ण भाग है जिसे हम नियोजन का पर्यायवाची भी कह सकते हैं। अतः यही कारण है कि निर्णयन को नियोजन का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है।
(6) मानसिक एवं विवेकपूर्ण क्रिया— निर्णयन की प्रक्रिया एक मानसिक एवं विवेकपूर्ण क्रिया है जो केवल मनुष्य के द्वारा ही सम्पन्न की जा सकती है। यह आवश्यक नहीं है कि जो भी निर्णय लिया जाए वह शत-प्रतिशत सत्य हो लेकिन फिर भी तथ्यों पर आधारित सर्वोत्तम निर्णय होना चाहिए।
(7) नया निर्णय लेना — कभी-कभी पुराने निर्णय में सुधार करने और उसे कार्यरूप में परिणित करने के लिए नया निर्णय भी लेना पड़ता है। इस संदर्भ में यह कहना न्यायसंगत है कि नये निर्णय केवल सुधारात्मक रूप में ही लिए जाते हैं।
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