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पूँजी का वर्गीकरण एवं महत्त्व (Classification and Importance of Capital)
पूंजी के निम्नलिखित भेद किए गए हैं—
(1) चल तथा अचल पूँजी (Circulating and Fixed Capital) – (i) चल पूँजी-‘चल पूंजी’ यह है जो एक ही बार के प्रयोग में समाप्त हो जाती है, जैसे खेत में डाली गई खाद, कपड़ा कारखाने में कपास तथा पुस्तक की छपाई में प्रयोग में लाई जाने वाली स्याही चल पूंजी हैं। मिल के शब्दों में, “चल पूँजी वह है जो उत्पादन में जिस कार्य के लिये प्रयोग की जा रही है अपने समस्त कार्य को एक ही प्रयोग में पूरा कर दे। हिक्स (Hicks) ने चल पूंजी को ‘एक प्रयोग वाली पूंजी’ (single use capital) कहा है। (ii) अचल पूंजी-जो पूंजी टिकाऊ होती है तथा जिसका उत्पादन में बार-बार प्रयोग किया जाता है, वह ‘अचल पूंजी’ कहलाती है। मशीने, कारखानों की इमारत, बैल-हल, ट्रैक्टर आदि अचल पूंजी के उदाहरण हैं। मिल के अनुसार, “अचल पूंजी वह है जो टिकाऊ होती है और जिससे कुछ समय तक बराबर आय प्राप्त होती है ।
(2) उत्पादन पूंजी तथा उपभोग पूंजी (Production Capital and Consumption Capital)–(i) उत्पादन पूंजी – जो पूंजी उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से सहायक होती है वह ‘उत्पादन पूंजी’ होती है, जैसे कच्चा माल, यन्त्र आदि। मार्शल के शब्दों में, उत्पादन पूंजी में वे सच पदार्थ सम्मिलित हैं, जो उत्पादन में श्रम की सहायता करते हैं। (ii) उपभोग पूंजी-जिस पूंजी का प्रयोग प्रत्यक्ष रूप से आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए किया जाता है, उसे उपभोग पूजी’ कहते हैं, जैसे श्रमिकों के भोजन, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन जादि पर व्यय किया जाने वाला धन उपभोग पूंजी उत्पादन में अप्रत्यक्ष रूप से सहायक होती है। मार्शल के शब्दों में, “उपभोग पूंजी के अन्तर्गत वे सब पदार्थ शामिल हैं जो आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष रूप से सन्तुष्टि करते हैं। “
(3) वेतन पूँजी तथा सहायक पूँजी (Remunerative Capital and Auxiliary Capital)-(i) वेतन पूँजी- उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों को उनके श्रम के बदले जो मजदूरी दी जाती है उसे वेतन पूजी’ कहते हैं। प्रबन्धकों को दिया जाने बाला येतन भी इसी पूंजी में जाता है। (ii) सहायक पूंजी-जो पूंजी उत्पादन कार्य में श्रमिकों की सहायता करती है वह ‘सहायक पूंजी’ कहलाती है, जैसे कच्चा माल, मशीन, यन्त्र शक्ति के साधन इत्यादि।
(4) भौतिक पूँजी आर वैयक्तिक पूजी (Material Capital and Personal Capital)–(i) भौतिक पूंजी— प्रो० थॉमस के अनुसार, भौतिक पूजा वह पूजा है जो स्थल तथा स्पेशनाय रूप में विद्यमान होती है और जिसे एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को हस्तान्तरित किया जा सकता है, जैसे कपड़े, जूते, औजार, बैल आदि। भौतिक पूंजी निश्चित आकार वाली तथा स्पर्शनीय, विनिमयसाध्य तथा हस्तान्तरणीय होती है। (ii) वैयक्तिक या अभौतिक पूंजी- इसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति के गुण, योग्यताएँ तथा क्षमताएँ आती है जो उसकी कार्यकुशलता को बढ़ा देती है, जैसे डॉक्टर का चिकित्सा ज्ञान, शिक्षक की पढ़ाने की योग्यता, गायक का स्वर इत्यादि वैयक्तिक पूंजी को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता। प्रो० थॉमस के शब्दों में “वैयक्तिक पूंजी के अन्तर्गत वे सब शक्तियों, क्षमताएँ तथा विशेषताएँ आती हैं जिनसे मनुष्य कार्यकुशल हो जाता है।
(5) एकअर्थी पूंजी तथा बहुअर्थी पूंजी (Sunk Capital and Floating Capital)-(i) एकअर्थी पूंजी- तो पूंजी केवल एक ही कार्य के लिए प्रयोग में लाई जा सकती है उसे ‘एकअर्थी पूंजी’ या ‘विशिष्ट पूंजी’ कहते हैं, जैसे सड़क, रेल के पुल व सुरंगे, नहरें, कु, बाँच आदि। इन कार्यों में लगी पूंजी को वापिस नहीं लिया जा सकता। (ii) बहुअर्थी या चल पूंजी- ‘बहुअर्थी पूँजी’ अथवा ‘अविशिष्ट पूंजी वह पूंजी है जिसे अनेक प्रयोगों में लाया जा सकता है, जैसे नकद मुद्रा, कच्चा माल, तेल, कार, मकान आदि। प्रो० थॉमस के शब्दों में, “यह वह पूंजी है जिसे आसानी से उत्पादन के किसी एक कार्य से हटाकर दूसरे कार्य में लगाया जा सकता है।”
(6) निजी पूंजी तथा सार्वजनिक पूँजी- (Private Capital and Public Capital) —जिस पूजी पर किसी व्यक्ति विशेष, फर्म या कम्पनी का स्वामित्व होता है उसे व्यक्तिगत पूँजी कहते हैं, जैसे किसी व्यक्ति का मकान, कपड़े, कारखाना आदि। सार्वजनिक या सामाजिक पूंजी वह है जिस पर समाज या राष्ट्र का स्वामित्व होता है, जैसे सड़कें, रेलें, स्कूल, नहरें, पार्क आदि।
(7) देशी पूंजी और विदेशी पूँजी (Indigenous Capital and Foreign Capital)—–(i) देशी पूंजी वह पूँजी होती है जिस पर देशवासियों का व्यक्तिगत अथवा सामाजिक अधिकार होता है। यह देशवासियों की बचत का परिणाम होती है। (II) जो पूँजी अन्य देशों से आयात की जाती है वह विदेशी पूँजी कहलाती है। यह पूँजी दूसरे देशों के निवासियों की बचतों का परिणाम होती है।
(8) राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी (National and International Capital)-(i) जिस पूंजी पर किसी राष्ट्र या राज्य का स्वामित्व होता है यह राष्ट्रीय पूंजी होती है, जैसे सड़के, रेल, सरकारी कारखाने आदि। (ii) अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी वह पूंजी है जिस पर विभिन्न राष्ट्रों का संयुक्त अधिकार होता है, जैसे विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की पूंजी, महासागर आदि ।
पूँजी का महत्त्व (Importance of Capital)
यद्यपि सभ्यता तथा आर्थिक विकास के प्रारम्भिक दिनों में पूंजी का कोई विशेष महत्त्व नहीं था, किन्तु आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न क्षेत्रों में पूंजी का महत्व निम्न बातों से भली-भाँति स्पष्ट हो जायेगा-
(1) उद्योग-धन्धों की स्थापना- आजकल पूँजी के बिना किसी भी प्रकार का उद्योग-धन्धा प्रारम्भ नहीं किया जा सकता। पूंजी के अभाव में न तो मशीनों, कच्चा माल आदि को खरीदा जा सकता है तथा न ही कारखानों का विस्तार किया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि पूंजी के बिना तो आधुनिक औद्योगिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
(2) विशालस्तरीय उत्पादन का आधार-बड़े स्तर पर वस्तुओं के उत्पादन को पूंजी ने ही सम्भव बनाया है। विशालस्तरीय उत्पादन के लिए बड़े-बड़े भवनों, बड़ी-बड़ी मशीनों, कुशल श्रमिकों एवं प्रबन्धकों, कच्ची सामग्री आदि विभिन्न साधनों को बड़ी मात्रा में जुटाने के लिए पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। अतः पर्याप्त पूंजी के अभाव में कोई राष्ट्र अपना औद्योगीकरण नहीं कर सकता।
(3) श्रम-विभाजन तथा विशिष्टीकरण- श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण को पुँजी ने सम्भव बनाकर श्रम की उत्पादकता में वृद्धि की है। इस प्रकार आधुनिक युग में पूंजी आर्थिक कुशलता (Economic Efficiency) का आधार है।
(4) श्रम की उत्पादकता में वृद्धि- पूंजी श्रम की उत्पादकता को बढ़ाती है। श्रमिकों के लिए सामान्य तथा व्यावसायिक शिक्षा, प्रशिक्षण, आधुनिक मशीनों आदि की व्यवस्था के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है। शिक्षित तथा प्रशिक्षित श्रमिक अधिक मात्रा में अच्छी किस्म की वस्तुओं का उत्पादन करने के योग्य हो जाते हैं।
(5) प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग-पूंजी के अभाव में कोई राष्ट्र अपने प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं कर सकता। कृषि, सिंचाई और शक्ति के साधनों, परिवहन तथा संवादबहन के साधनों, उद्योग-धन्यों आदि के विकास के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा आदि राष्ट्रों के विकसित होने का एक प्रमुख कारण वहाँ पर पर्याप्त मात्रा में पूंजी का उपलब्ध होना है।
(6) तकनीकी ज्ञान में वृद्धि-आजकल नए-नए आविष्कार होते रहते हैं। उत्पादन विधियों में न केवल सुधार होता रहता है बल्कि नई-नई उत्पादन-विधियों का आविष्कार होता रहता है। यह तकनीकी विकास पूंजी के कारण ही सम्भव हुआ है। तकनीकी विकास के कारण वस्तुओं का न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन किया जा सकता है।
(7) आर्थिक नियोजन की सफलता-आजकल विश्व के अधिकांश देशों में तीव्र आर्थिक विकास तथा आत्मनिर्भरता (Self reliance) के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आर्थिक नियोजन (Economic Planning) को अपनाया रहा है। योजनाओं की सफलता के लिए पर्याप्त मात्रा में पूंजी का उपलब्ध होना परमावश्यक है।
(8) व्यापार में वृद्धि—आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार में वृद्धि करने के लिए पूंजी की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि आवश्यक है। विज्ञापन द्वारा वस्तुओं के प्रभावी प्रचार के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है। पूंजी की सहायता से ही व्यापारी वस्तुओं को बड़ी मात्रा में खरीद पाते हैं। फिर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने दूसरे देशों में पूँजी का बड़ी मात्रा में निवेश करके अपने व्यापार का अत्यधिक विस्तार कर लिया है।
(9) रोजगार में वृद्धि–किसी देश में चेरोजगारी की समस्या को पूँजी की सहायता से ही दूर किया जा सकता है। विभिन्न सार्वजनिक निर्माण कार्य प्रारम्भ करके तथा नए-नए उद्योग व व्यवसाय स्थापित करके अधिक लोगों को रोजगार दिया जा सकता है।
(10) आर्थिक कल्याण में वृद्धि-पूँजी की सहायता से देश का तीव्रता से आर्थिक विकास होने से राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। इससे लोगों का जीवन स्तर उन्नत होता है तथा आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है।
(11) गरीबी के दुष्चक्र को तोड़ने में सहायक–अनेक अल्प-विकसित राष्ट्र ‘गरीबी के दुष्चक्र’ (Vicious Circle of Poverty) में फंसे हुए हैं। नर्क्स (Nurkse) के विचार में ये राष्ट्र भारी मात्रा में पूँजी का निवेश करके निर्धनता के दुष्चक्र को तोड़ सकते हैं।
(12) राजनीतिक स्थायित्व तथा सैनिक शक्ति–किसी देश में राजनीतिक स्थायित्व के लिए वहाँ की रक्षात्मक शक्ति का सुहृद होना आवश्यक होता है। रक्षात्मक शक्ति को बढ़ाने के लिए रक्षा सामग्री, सेना परिवहन के साधनों आदि पर बड़ी मात्रा में धन खर्च किया जाता है। इस प्रकार पूंजी के बिना किसी देश को सैनिक दृष्टि से मजबूत नहीं बनाया जा सकता। पूंजी की बहुलता तथा उसके व्यापक प्रयोग के कारण ही आज संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र बना हुआ है।
पूँजी का कृषि में महत्त्व (Importance of Capital in Agriculture)—आजकल पूँजी के अभाव में कृषि का समुचित विकास सम्भव नहीं है। अब कृषि केवल जीविका का साधन न रहकर एक व्यवसाय बन गई है। कृषि में पूंजी के महत्त्व को निम्न बातों से भली-भाँति समझा जा सकता है-
(1) विभिन्न कृषि-कार्यों के लिए पूंजी की आवश्यकता-कृषकों को अनेक कार्यों के लिए पग-पग पर पूँजी की आवश्यकता पड़ती है, जैसे भूमि खरीदना, कुआँ बनवाना, ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि यन्त्र खरीदना, खाद, बीज आदि खरीदना, बैल तथा उपकरण खरीदना इत्यादि। इन साधनों के अभाव में कृषक कृषि कार्य नहीं कर सकता। अतः देश में कृषि उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए आवश्यक है कि कृषि में पूंजी का अधिकाधिक निवेश किया जाए। ग्रामीण साख सर्वेक्षण में बताया गया है कि पूँजी कृषि को उसी प्रकार सहायता पहुँचाती है जिस प्रकार फाँसी पर लटकते हुए व्यक्ति को जल्लाद की रस्सी।
(2) हरित क्रान्ति-सन् 1967-68 में भारत में कृषि के क्षेत्र में हरित क्रान्ति (Green Revolution) प्रारम्भ हो गई थी। यह क्रान्ति मुख्यतः इसलिए आई थी क्योंकि कृषि के क्षेत्र में उन्नत बीज, रासायनिक खाद, अधिक सिंचाई सुविधाओं, विभिन्न कृषि यन्त्र आदि का अधिक मात्रा में प्रयोग किया गया था। इन सब कृषि साधनों की पूर्ति पूंजी की सहायता से ही की जाती है।
(3) भारतीय कृषि तथा पूंजी-भारत में जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ रही है जिस कारण खाद्यान्न की माँग में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। खाधान्न के उत्पादन में समुचित मात्रा में वृद्धि करने के लिए पर्याप्त मात्रा में पूंजी की उपलब्धि आवश्यक है। इसके अतिरिक्त भारतीय कृषि जब भी पिछड़ी हुई अवस्था में है। इसकी उन्नति के लिए अनेक उपाय करने की आवश्यकता है, जैसे सिचाई सुविधाओं का विकास, भूमि सुधार, उन्नत बीज, रासायनिक खाद, आधुनिक कृषि यन्त्रों का प्रयोग आदि। इन सब कार्यों के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है। अतः भारतीय कृषि के समुचित विकास के लिए बड़ी मात्रा में पूजी की आवश्यकता है।
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