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प्रतिफल वृद्धि नियम (Law of Increasing Returns)
व्याख्या (Explanation) यदि किसी उत्पादन कार्य में अल्प-काल में किसी स्थिर साधन के साथ परिवर्तनशील साधन/साधनों की इकाइयाँ बढ़ाने पर उपादानों के अनुपात की अपेक्षा सीमान्त उत्पादन में अधिक वृद्धि होती है तो उत्पादन में पाई जाने वाली इस प्रवृत्ति को प्रतिफल या उत्पत्ति वृद्धि नियम’ कहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई उत्पादक अपने निवेश बढ़ाकर दुगुना कर देता है जिससे कुल उत्पादन बढ़कर दुगुने से भी अधिक हो जाता है तो ऐसी स्थिति में उत्पादन कार्य में प्रतिफल वृद्धि नियम लागू हुआ। इस प्रकार प्रतिफल वृद्धि नियम एक ऐसी स्थिति को दर्शाता है जिसमें स्थिर साधन के साथ परिवर्तनशील साधन साधनों की मात्रा बढ़ाने पर कुल उत्पादन बढ़ती दर से बढ़ता है। यदि अन्य बातें समान रहें तो विशालस्तरीय उद्योगों में श्रम तथा पूंजी की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन में बढ़ती हुई दर से वृद्धि होती है। इस प्रवृत्ति को ही अर्थशास्त्र में प्रतिफल वृद्धि नियम’ कहते हैं।
इस नियम को घटती लागत का नियम (Law of Diminishing Cost) भी कहते हैं क्योंकि सीमान्त उत्पादन के बढ़ने से प्रति इकाई औसत लागत तथा सीमान्त लागत दोनों घटती जाती हैं।
परिभाषाएँ (Definitions)- (1) मार्शल ने नियम की व्याख्या इन शब्दों में की है, “श्रम तथा पूंजी में वृद्धि से सामान्यतः संगठन में सुधार होता है जिसके परिणामस्वरूप श्रम तथा पूँजी की कार्यक्षमता में वृद्धि हो जाती है।
(2) चैपमैन के अनुसार, “किसी उद्योग का विस्तार करने पर, जिसमें उत्पादन के उपयुक्त उपादानों की कोई कमी नहीं है, अन्य बातों के समान रहने पर प्रतिफल वृद्धि नियम लागू होता है। “
(3) श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के शब्दों में, जब किसी कार्य में किसी उत्पत्ति के उपादान की अधिक मात्रा लगाई जाती है तो सामान्यतया संगठन में ऐसे सुधार सम्भव हो जाते हैं जिससे उपादान की इकाई (मनुष्य, एकड़, पूजी) की कार्यकुशलता में वृद्धि हो जाती है जिससे उत्पादन में वृद्धि करने के लिए उपादानों की भीतिक मात्रा को उसी अनुपात में बढ़ाना आवश्यक नहीं होता |
नियम के लागू होने के कारण- प्रतिफल वृद्धि नियम के लागू होने के मुख्य कारण निम्नांकित है-
(1) उपादानों की अविभाज्यता (Indivisibility of Factors) इस नियम के लागू होने का एक प्रमुख कारण कुछ उपादानों की अविभाज्यता है। उत्पादन के कुछ उपादानों को टुकड़ों में विभाजित नहीं किया जा सकता, जैसे मकान, मशीन, प्रबन्धक इत्यादि। एक निश्चित सीमा तक उत्पादन करने के लिए ऐसे उपादानों की कम से कम एक इकाई की आवश्यकता पड़ती है। जैसे जैसे उत्पादन का पैमाना बढ़ता है, वैसे-वैसे अविभाज्य (indivisible) उपादानों का अधिकाधिक उपयोग किया जाने लगता है जिससे प्रति इकाई औसत उत्पादन लागत कम होती जाती है। हाँ, यदि अविभाज्य उपादानों की पूर्ण क्षमता का उपयोग करने के पश्चात् भी उत्पादन का पैमाना बढ़ाया जाता है तो फिर प्रतिफल हास नियम लागू होने लगता है।
(2) आन्तरिक तथा बाह्य किफायतें (Internal and External Economies) उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होने पर फर्म को विभिन्न प्रकार की आन्तरिक तथा बाह्य किफायतें मिलने लगती हैं जिससे एक सीमा तक प्रति इकाई लागत घटती जाती है तथा सीमान्त उत्पादन में वृद्धि होती जाती है।
(3) श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण- उद्योगों में बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण (specialisation) की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं जिस कारण प्रति इकाई उत्पादन लागत घटती जाती है तथा उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि होती जाती है।
(4) नई-नई उत्पादन विधियों का प्रयोग-नए-नए आविष्कारों से एक तो उत्पादन विधि में सुधार होता है, दूसरे नई-नई विधियों ज्ञात कर ली जाती हैं जिससे सीमान्त लागत (Marginal Cost) घटती जाती है।
नियम का क्षेत्र (Scope)
मार्शल के विचार में यह नियम विनिर्माण उद्योगों (manufacturing industries) में लागू होता है। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने मार्शल के विचार का खण्डन किया है। उनके विचार में जब तक उत्पादन के उपादानों के अनुकूलतम संयोग (ideal combination) की अवस्था प्राप्त नहीं कर ली जाती तब तक प्रतिफल वृद्धि नियम उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्रतिफल वृद्धि नियम कृषि की अपेक्षा उद्योग-धन्धों में अधिक देर तक लागू रहता है। किन्तु उद्योग-धन्धों में भी एक सीमा के पश्चात् प्रतिफल हास नियम लागू होने लगता है।
उद्योग-धन्धों में प्रतिफल वृद्धि नियम के देर तक लागू होने के कारण- इस नियम के उद्योगों में लागू होने के प्रमुख कारण निम्नांकित हैं—
(1) प्राकृतिक तत्त्वों का कम प्रभाव- कृषि की अपेक्षा उद्योग-धन्धों पर जलवायु, वर्षा, मौसम आदि प्राकृतिक तत्त्वों का बहुत कम प्रभाव पड़ता है। उद्योगों पर मानवीय संसाधनों का अधिक प्रभाव पड़ता है। मनुष्य अपनी बुद्धि, योग्यता, कुशलता तथा तकनीकी ज्ञान द्वारा घटते प्रतिफल के नियम को देर तक लागू नहीं होने देते।
(2) श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण- श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण सम्बन्धी जितनी अधिक सम्भावनाएँ उद्योग-धन्धों में होती हैं उतनी कृषि व्यवसाय में नहीं होतीं श्रम विभाजन के परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ प्रति इकाई औसत लागत घटती जाती है।
(3) कुशल प्रवन्ध-कृषि की अपेक्षा उद्योग-धन्धों में उत्पादन-कार्य छोटे क्षेत्र में ही कर लिया जाता है। इससे कारखानों में उत्पादन कार्य का संगठन तथा प्रबन्ध अपेक्षाकृत अधिक सफलतापूर्वक कर लिया जाता है जिससे सीमान्त उत्पादन बढ़ता है तथा सीमान्त लागत घटती है।
(4) साधनों की लोचदार पूर्ति- उद्योग धन्धों में श्रम, पूंजी व संगठन की अपेक्षा भूमि का महत्त्व कम होता है। भूमि की पूर्ति सीमित होती है किन्तु अन्य साधनों की मात्रा में वृद्धि की जा सकती है। अतः उद्योग-धन्धों में साधनों की लोचदार पूर्ति (elastic supply) भी बढ़ते प्रतिफल के नियम के लागू होने का एक मुख्य कारण होती है।
(5) मशीनों का अधिक प्रयोग- विनिर्माण उद्योगों में मशीनों का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक होता है। मशीने अविभाज्य होती हैं और कच्चे माल की मात्रा बढ़ाकर इनका अधिक प्रयोग करने से उत्पादन लागत घटती जाती है।
(6) आन्तरिक तथा बाह्य किफायतें- उद्योग धन्धों में उत्पादन का पैमाना बढ़ाने पर कारखानों को अनेक प्रकार की किफायतें मिलती है जिस कारण सीमान्त लागत घटती जाती है।
(7) नए-नए आविष्कार-कृषि की अपेक्षा उद्योग-धन्धों में नए-नए आविष्कार तथा उत्पादन विधियों में सुधार अधिक मात्रा में होते रहते हैं। इससे औसत उत्पादन लागत घटती है।
(8) प्रशिक्षण की सुविधा-कृषि की अपेक्षा विनिर्माण उद्योगों में श्रमिकों के लिए प्रशिक्षण की सुविधा अधिक रहती है। प्रशिक्षित श्रमिक निःसन्देह अधिक कार्यक्षमता वाले होते हैं तथा कम लागत पर अधिक उत्पादन करते हैं।
(9) उपादानों को अनुकूलतम संयोग में जुटाने की सुविधा- प्रतिस्थापन के नियम (Law of Substitution) का प्रयोग जितना अधिक उद्योग-धन्धों में किया जा सकता है उतना कृषि में नहीं किया जा सकता। इस नियम की सहायता से उत्पादन के विभिन्न उपादानों की सर्वोत्तम अनुपात में मिलाया जा सकता है। इससे साधनों का अपव्यय नहीं होता।
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