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प्रबन्ध की अवधारणा से आप क्या समझते हैं ?
अवधारणा से तात्पर्य किसी वस्तु, कार्य या व्यक्ति के सम्बन्ध में विचारधारा या आकृति से है, जो उस वस्तु, कार्य या व्यक्ति की विशेषताओं के आधार पर किसी व्यक्ति के मस्तिष्क में बनती है।
मानव सभ्यता के उदय के साथ ही प्रबन्ध शब्द का जन्म हुआ। उस समय प्रबन्ध का कार्य मानव संगठन के कुशल संचालन एवं राज्यों के प्रशासनिक कार्यों के लिए प्रशासन सम्बन्धी सिद्धान्तों का निर्माण करना था। सभ्यता के विकास के साथ-साथ प्रबन्ध की अवधारणाएँ बदलती गयीं। प्रबन्ध को जिस व्यक्ति ने जिस रूप में देखा तथा उसकी जिन विशेषताओं को महत्वपूर्ण माना, उसी के अनुरुप उसने प्रबन्ध की धारणा बना ली है। प्रबन्ध की अवधारणाओं को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं- (I) सामान्य अवधारणाएँ, (II) नवीन अवधारणाएँ ।
(I) प्रबन्ध की सामान्य अवधारणायें (General Concepts of Management )
प्रबन्ध की सामान्य अवधारणायें निम्नलिखित हैं-
(1) प्रबन्ध अधिकार सत्ता की एक प्रणाली के रुप में- प्रशासनिक विशेषज्ञ प्रबन्ध को अधिकार सत्ता को एक प्रणाली मानते हैं। प्रबन्धकों की यह सत्ता उनके पद स्तर, अधिकारों, संविधान एवं ज्ञान पर आधारित होती है। एक संस्था में प्रत्येक स्तर पर प्रबन्धक होते हैं जो अपने-अपने स्तरों पर नीतियाँ, योजनाएँ, कार्य प्रणालियां एवं आपसी सम्बन्ध निर्धारित करते हैं।
(2) प्रबन्ध एक आर्थिक संसाधन के रूप में- अर्थशास्त्री प्रबन्ध को भी उत्पादन का एक महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। क्योंकि योग्य प्रबन्धकों पर ही फर्म की उत्पादकता एवं लाभदेयता निर्भर करती है। जिन उद्योगों में नवप्रवर्तनों का तेजी से प्रयोग किया जा रहा है, उनमें पूँजी एवं श्रम के स्थान पर प्रबन्ध का महत्व बढ़ जाता है। गतिशील उद्योगों में प्रबन्धकीय विकास के द्वारा उत्पादन एवं लाभों में वृद्धि की जा रही है।
(3) प्रबन्ध एक वर्ग एवं स्थिति के रूप में- प्रबन्ध व्यक्तियों का समूह है, जो अपने प्रबन्धकीय ज्ञान एवं शिक्षा के आधार पर व्यवसाय का संचालन करता है। विशेषज्ञों का यह समूह अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने के लिये विभिन्न प्रबन्धकीय कार्य जैसे नियोजन, संगठन, निर्देशन तथा नियन्त्रण करता है। इस प्रकार प्रबन्ध अपने अधीनस्थों के कार्यों के लिए उत्तरदायी होते हैं।
(4) प्रबन्ध एक विषय या ज्ञान की शाखा के रूप में- कानून, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, भौतिकी तथा अन्य विज्ञानों की भाँति प्रबन्ध भी वर्तमान में एक स्वतन्त्र ज्ञान एवं व्यवहार की शाखा के रुप में स्वीकार किया जाने लगा है। वर्तमान में प्रबन्ध एक विषय एवं संगठित ज्ञान समूह के रुप में विकसित हो चुका है, जिसका औपचारिक प्रशिक्षण किया जा सकता है। किन्तु मानव व्यवहार से सम्बन्धित होने के कारण प्रबन्ध एक जड़ विज्ञान नहीं बल्कि गत्यात्मक विधा है।
(5) प्रबन्ध एक कौशल तथा कला- कुछ विद्वानों ने प्रबन्ध को दूसरों से कार्य करवाने की एक कला तथा मानवीय व्यवहार एवं प्रयासों को निर्देशित करने की नेतृत्व योग्यता एवं शैली माना है।
(6) प्रबन्ध एक प्रक्रिया के रूप में- प्रबन्ध निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति संगठन के साधनों को समन्वित करने की प्रक्रिया है। प्रबन्ध मानवीय प्रयासों, कार्यों, तकनीक व अन्य संसाधनों को संयोजित करने एवं समन्वित करने की प्रक्रिया है ताकि संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति की जा सके।
(7) प्रबन्ध एक निर्वाह की शैली प्रबन्ध को जीवन निर्वाह की शैली एवं ढंग के रुप में देखा जाता है। इस अर्थ में प्रबन्ध वह कार्य है, जिसमें दूसरों से कार्य करवाने की जिम्मेदारी उठायी जाती है। प्रबन्ध व्यवसायिक संगठन एवं प्रशासन सम्बन्धी परामर्श देने का एक पेशा है।
(II) प्रबन्ध की नवीन अवधारणाएँ (New Concepts of Management )-
वर्तमान कम्प्यूटर के युग में प्रबन्ध की कुछ नवीन अवधारणाओं का जन्म हुआ है, जो निम्नलिखित हैं-
(1) वैज्ञानिक प्रबन्ध की अवधारणा- बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रबन्ध ने एक नया रूप ग्रहण किया जिसे वैज्ञानिक प्रबन्ध कहा जाता है। टेलेर, थियो हैमन एवं अन्य कुछ विद्वानों के अनुसार वैज्ञानिक अवधारणा आधुनिक प्रबन्ध की आधारशिला है। प्रबन्ध की वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार एक ऐसा विज्ञान है, जो नियोजन, संगठन, समन्वय, संचालन, अभिप्रेरणा तथा नियन्त्रण से सम्बन्धित सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। प्रबन्ध के अन्तर्गत की जाने वाली प्रत्येक क्रिया का कुछ न कुछ वैज्ञानिक आधार होता है। इसीलिए प्रबन्ध को एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विज्ञान कहते है।
(2) सामूहिक प्रयास अवधारणा- प्रबन्ध के आधुनिक दृष्टिकोण से एक व्यक्ति चाहे वह स्वयं में कितना ही निपुण क्यों न हो, वह अधिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। अतः निर्धारित उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये सामूहिक प्रयासों अर्थात् नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय, अभिप्रेरणा तथा नियन्त्रण की आवश्यकता होती है और इसी का नाम प्रबन्ध है।
(3) मानव प्रधान अवधारणा- इस अवधारणा की मुख्य मान्यता यह है कि, प्रबन्ध का विषय मानव है तथा प्रबन्ध मूलतः मनुष्यों का विकास है। संस्था अपने उद्देश्यों को तभी प्राप्त कर सकती है जबकि प्रबन्धक, कर्मचारियों के व्यक्तित्व, कार्य, गुणों तथा कार्यकौशल का ठीक विकास करे। तभी न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन सम्भव है।
(4) नेतृत्वरूपी अवधारणा- किसी भी उपक्रम की सफलता उनकी संगठन शक्ति द्वारा सम्भव है जो कुशल नेतृत्व से पायी जाती है। यही कारण है कि वर्तमान में यह अनुभव किया जाने लगा है कि कुशल नेतृत्व से ही संगठन में कुशलता व निरन्तरता बनायी जा सकती है और उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है।
(5) पेशेवर अवधारणा – आधुनिक प्रबन्धक प्रबन्ध को एक पेशा मानते हैं और उसी रुप में आज इसका तेजी से विकास हो रहा है।
(6) अन्य लोगों के साथ मिलकर कार्य करने की अवधारणा- प्रारम्भ में माना जाता था कि अन्य लोगों से कार्य लेना ही प्रबन्ध है चाहे यह कार्य किसी भी प्रकार से लिया जाये। यह प्रबन्ध का बड़ा संकीर्ण अर्थ था व उसमें तानाशाही प्रकृति की दुर्गन्ध आती है।
(7) सार्वभौमिकता की अवधारणा- यह अवधारणा हेनरी फेयोल की देन है। उनके अनुसार, “प्रबन्ध एक सार्वभौमिक क्रिया है जो प्रत्येक संस्था में चाहे वह धार्मिक हो, राजनैतिक हो, सामाजिक हो अथवा व्यावसायिक एवं औद्योगिक हो, समान रूप से सम्पन्न की जाती हैं।”
(8) कार्यात्मक अवधारणा- कार्यात्मक अवधारणा प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रुप में मानती है। यदि देखा जाये तो आधुनिक प्रबन्ध अवधारणा का व्यावहारिक रुप प्रबन्ध की प्रक्रिया है। यही कारण है कि आधुनिक प्रबन्धशास्त्री प्रबन्ध को एक प्रक्रिया के रुप में ही परिभाषित करते हैं।
प्रबन्ध के सम्बन्ध में विभिन्न अवधारणाएँ इस बात की प्रतीक है कि प्रबन्ध का अध्ययन ‘अर्थ विज्ञान के जंगल में एक लम्बी यात्रा है, प्रबन्ध के स्वरुप व क्षेत्र में अनेक परिवर्तनों के कारण इसका अर्थ गतिशील रहा है।’ बेच के शब्दों में, “वास्तव में प्रबन्ध शब्द का अर्थ सदैव स्पष्ट नहीं हो पाता और सदैव उस अर्थ को स्वीकार भी नहीं किया जा सकता है।” फिर भी अधिकांश विद्वानों ने प्रबन्ध का अर्थ एक प्रक्रिया एवं कार्य के रूप में ही लगाया है।
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