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प्रबन्ध के सांयोगिकी दृष्टिकोण | Contingency Approach of Management in Hindi

प्रबन्ध के सांयोगिकी दृष्टिकोण | Contingency Approach of Management in Hindi
प्रबन्ध के सांयोगिकी दृष्टिकोण | Contingency Approach of Management in Hindi

 संयोगिक दृष्टिकोण (Contingency Approach)

सांयोगिकी अथवा परिस्थितिगत प्रबन्ध सिद्धान्त का आधुनिकतम दृष्टिकोण है। इस विचारधारा की यह मान्यता है कि “प्रबन्ध करने की कोई एक श्रेष्ठ विधि नहीं हैं।” बल्कि सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर करता है। अतः प्रबन्धक को उसी विधि या मार्ग को अपनाना होता है जो विद्यमान परिस्थितियों में प्रासंगिक होता. है। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रबन्धक के कार्य एवं निर्णय तत्कालीन परिस्थितियों से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए कौन सा प्रत्येक उपयुक्त रहेगा यह परिस्थिति पर निर्भर करेगा। इस प्रकार कौन सी नेतृत्व शैली अपनायी जाये यह भी कर्मचारियों के प्रकार, संख्या तथा तत्कालीन परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रबन्ध एवं संगठन का कोई एक सर्वोत्तम मार्ग नही है बल्कि वह प्रदत्त परिस्थितियों तथा पूर्ण वातावरण के आधार पर निर्धारित किया जाता है। इसीलिए इसे संयोगिकी दृष्टिकोण के नाम से जाना जाता है। हरबर्ट जी० हिक्स के अनुसार, “सांयोगिकी विचारधारा विद्यमान प्रश्नों (समस्याओं) का व्यावहारिक उत्तर विकसित करने के उद्देश्य से विश्लेषणात्मक तथा परिस्थितियात्मक हैं।”

आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञों का विचार है कि व्यवसायिक संगठनों के लिए सांयोगिकी सिद्धान्त सर्वोपयुक्त है। यह वास्तव में प्रणाली सिद्धान्त का सुधारा हुआ रूप है। इसमें अन्तर्सम्बन्धों तथा आश्रितताओं की प्रकृति का विश्लेषण किया जाता है और उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप उपयुक्त संगठन संरचना तथा प्रबन्धकीय तकनीक अपनाने पर जोर दिया जाता है।

 संयोगिक दृष्टिकोण की विशेषताएँ (Characteristics of Contingency Approach)

इस विचारधारा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) सांयोगिक – संयोगिक दृष्टिकोण की यह विचारधारा प्रबन्ध कार्य को संयोगिक मानती है अर्थात् प्रबन्धकों के सभी निर्णय व कार्य परिस्थिति पर निर्भर करते हैं।

(2) वातावरण – यह विचारधारा विधि एवं निर्णयों को वातावरण से जोड़ने पर बल देती है।

(3) परिणामों पर ध्यान— यह विचारधारा निर्णयों व कार्यों को करने से पूर्व उनके प्रभावों से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर भी ध्यान देती है।

(4) दशाओं का अनुभाव — यह प्रबन्धकीय ज्ञान का उपयोग करने से पूर्व वास्तविक दशाओं तथा भावी परिणामों का अनुभव करने पर बल देती है।

(5) माँग के अनुभूत – इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्धक वही करते हैं जो परिस्थिति की मांग के अनुकूल होता है।

(6) सिद्धान्त एवं तकनीकी का ध्यान— इसमें प्रत्येक प्रबन्ध के सिद्धान्त व तकनीकी को अपनाते समय तत्कालीन परिस्थितियों, प्रसंगों, संयोगिक घटनाओं आदि को ध्यान में रखना होता है ।

(7) इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध संयोगिक या परिस्थितिगत है ।

गुण (Merits) –

इस विचारधारा के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

(1) यह विचारधारा अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है ।

(2) इसमें ठोस निर्णय लिये जा सकते हैं।

(3) यह प्रबन्धक को परिस्थिति की कठिनाइयों के प्रति जागृत करती है ।

(4) यह परिस्थितियों की जोखिम, अनिश्चितताओं तथा दुष्प्रभावों से संगठन की सुरक्षा करती है।

(5) यह व्यक्तियों, कार्यों तथा प्रबन्ध की आत्मनिर्भरता को समझने में सहायक होते हैं।

दोष (Demerits) –

इस विचारधारा की प्रमुख कठिनाई या दोष निम्नलिखित हैं-

(1) इसे समझना आसान है परन्तु व्यवहार में प्रयोग करना कठिन है।

(2) कुछ विद्वान इसे एक पृथक विचारधारा नहीं मानते बल्कि चिन्तन का एक तरीका मान लेते है।

(3) सांयोगिकी दृष्टिकोण पर अभी शोध बहुत कम हुए है अतः यह सिद्धान्त विकसित नही हो सका ।

उपयोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण आधुनिक प्रबन्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है किन्तु अभी इस पर शोध बहुत कम हुए है अतः कौन-सी विधि किन परिस्थितियों में श्रेष्ठ है यह कहना सम्भव नहीं है ।

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Anjali Yadav

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