प्रबन्ध प्रक्रिया किसे कहते हैं? इसके आवश्यक तत्व कौन-कौन से हैं? What is the “Process of Management” ? What are its various elements?
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प्रबन्ध प्रक्रिया (Process of Management )
प्रत्येक उपक्रम के कुछ निर्धारित लक्ष्य होते हैं और इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये प्रबन्ध द्वारा जो क्रियाविधि अपनायी जाती है, उसे ‘प्रबन्ध प्रक्रिया’ कहते हैं। जिस प्रकार खेल के मैदान में एक फुटबाल, हॉकी या क्रिकेट टीम के सदस्य कितने ही प्रशिक्षित, अनुभवी एवं कुशल खिलाड़ी क्यों न हों, वह अपनी प्रतिद्वन्द्वी टीम को तब तक नहीं हरा सकते, जब तक कि वे एक कुशल कप्तान के नेतृत्व में मिलकर नियोजित, समन्वित प्रयास न करें। ठीक इसी प्रकार एक व्यावसायिक संस्था तब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकती जब तक उसके समस्त कर्मचारी, नियोजित समन्वित रूप से किसी कुशल निर्देशक के नियन्त्रण में कार्यरत न हों। इसी कुशल निर्देशन को प्रबन्ध की संज्ञा दी जाती है और उसके नियन्त्रण में जिस प्रक्रिया को अपनाते हुए संस्था अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है उस प्रक्रिया को प्रबन्ध प्रक्रिया कहा जाता है। प्रबन्ध प्रक्रिया को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है—
“प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जो, अपनी उपक्रियाओं अथवा आधारभूत कार्यों से पूरी होती है। पूर्ति की यह व्यवस्था एक अद्वितीय प्रक्रिया है और इसी को प्रबन्ध प्रक्रिया कहा जाता है।”
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धक जो कार्य करते हैं, उसे ही प्रबन्ध प्रक्रिया कहते हैं। संक्षेप में प्रबन्ध प्रक्रिया में नियोजन, संगठन, अभिप्रेरणा, नियन्त्रण एवं समन्वय आदि प्रबन्धकीय क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है।
प्रबन्धकीय प्रक्रिया के तत्व (Elements of the Management Process)
फेयोल ने अपनी पुस्तक में प्रबन्धकीय कार्यों को प्रबन्धकीय तत्वों का नाम दिया है। उसके अनुसार प्रबन्ध की प्रक्रिया में पाँच तत्व (elements) शामिल हैं-
(1) पूर्वानुमान और योजना बनाना, (2) संगठन बनाना, (3) आदेश देना, (4) समन्वय करना, तथा (5) नियन्त्रण करना।
फेयोल के अनुसार नियोजन प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह प्रबन्ध का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व भी है, क्योंकि योजना का असफल होना संगठन के अस्तित्व पर एकदम विपरीत प्रभाव डालता है। उन्होंने संगठन के मानवीय पहलू की ओर भी विशेष ध्यान दिया है। संगठन संरचना के निर्माण तथा आदेश देने के कार्य को योजना कार्यान्वित करने का महत्वपूर्ण आधार माना है। उनके अनुसार समन्वय का कार्य भी इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक व्यक्ति साथ-साथ कार्य करे और नियन्त्रण के अन्तर्गत यह देखा जाता है कि बनाई गई योजनाएँ ठीक प्रकार से कार्य करती हैं अथवा नहीं और यदि नहीं तो उनमें क्या-क्या कमियाँ हैं । नीचे इन तत्वों का विस्तृत वर्णन किया गया है-
(1) पूर्वानुमान और योजना बनाना (Forecasting and Planning) – प्रबन्धकीय प्रक्रिया भविष्य के बारे में अनुमान लगाकर व्यावसायिक अवसरों से लाभ उठाने के लिए योजना बनाने से आरम्भ होती है। अतः योजना व्यवसाय का आधार है। इसमें एक साथ चार बातें स्पष्ट दिखलाई देती हैं— (क) अपेक्षित परिणाम : जिन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किए जाएंगे (ख) कार्यवाही की रूपरेखा : जिसके द्वारा परिणाम अधिक कुशलता के साथ प्राप्त किए जा सकें, (ग) कार्यवाही की क्रमिक अवस्थाएँ : अर्थात् क्या-क्या काम कब-कब किया जायेगा, (घ) कार्य करने की विधियाँ : अर्थात् क्या-क्या कार्यवाही, कैसे की जाएगी और उसके नियम, कार्यविधि तथा सिद्धान्त क्या होंगे ? फेयोल के अनुसार कार्यवाही की योजना तीन बातों पर निर्भर करती हैं-
(i) फर्म के पास उपलब्ध साधन (Resources), (ii) चालू कार्य (Current Operations) की प्रकृति तथा उनका महत्व, तथा (iii) भावी प्रवृत्तियों (Future Trends) जिन पर तकनीकी वाणिज्यिक, वित्तीय तथा अन्य परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
(2) संगठन बनाना (Organisation) – फेयोल के अनुसार “संगठन बनाने का अर्थ है संस्था के भौतिक तथा मानवीय साधनों का दोहरा ढाँचा बनाना। दूसरे शब्दों में, संगठन केवल कार्यों एवं कर्मचारियों के संगठन तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें आवश्यक साधनों, जैसे कच्चे माल, यन्त्र एवं अन्य आवश्यक साजो-सामान, पूँजी और कर्मचारियों की प्राप्ति तथा इन्हें सही स्थान पर सही अनुपात से सुलभ कराना भी शामिल है। व्यावसायिक योजना तभी सफल हो सकती है जब संस्था के मानवीय तथा भौतिक साधन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त और सही हों, तथा इनका संगठन सही ढंग से किया जाए।
(3) आदेश देना (Commanding) – आदेश देने का अर्थ है— कर्मचारियों के बीच कार्यवाहियों को कायम रखना। योजना और संगठन बन जाने पर प्रबन्धक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को बतलाता है कि उन्हें क्या करना और यह देखना है कि वे इस कार्य को अधिकतम योग्यता के साथ पूरा करें।
(4) समन्वय करना (Co-ordination) – समन्वय का कार्य संस्था की सभी कार्यवाहियों में इस प्रकार ताल-मेल बैठाना है कि ये सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक हों इसके लिए भिन्न-भिन्न कार्यों के बीच संतुलन तथा समन्वय आवश्यक है। समन्वय के फलस्वरूप प्रत्येक कार्य दूसरे कार्यों से मेल खाता है। अतः स्पष्ट है कि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सामूहिक प्रयासों में सामन्जस्य नितान्त आवश्यक है।
(5) नियन्त्रण करना (Controlling) – नियन्त्रण का उद्देश्य यह देखना है कि व्यवसाय में सभी काम, जहाँ तक हो सकें योजनाओं, निर्देशों तथा नियमों के अनुसार किए जाएँ। यदि वास्तविक कार्यवाही में कोई दोष, त्रुटि या कमियाँ दिखाई दें तो उन्हें दूर किया जा सके तथा भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति को रोका जा सके।
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