कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

प्राथमिक कृषि साख समितियों के दोष

प्राथमिक कृषि साख समितियों के दोष
प्राथमिक कृषि साख समितियों के दोष

प्राथमिक कृषि साख समितियों के दोष

इनके प्रमुख दोष निम्नवत् हैं-

(1) देश में साख समितियों की स्थापना असमान ढंग से हुई है। असम, बंगाल, उड़ीसा तथा राजस्थान में अपेक्षाकृत कम समितियों की स्थापना की गई है।

(2) अकार्यकुशत साख समित्तियों की संख्या बहुत अधिक है।

(3) इन समितियों के पास धन की समुचित व्यवस्था नहीं होती जिस कारण ये किसानों को पर्याप्त मात्रा में ऋण प्रदान नहीं कर पाती।

(4) समितियों के काफी ऋण बकाया रहते हैं।

(5) ये समितियों अपने सदस्यों को अनुत्पादक ऋण भी प्रदान करती हैं।

(6) समितियों द्वारा वसूल की जाने वाली ब्याज दर काफी ऊँची होती है।

(7) ये समितियों अपनी ऋण राशि को उचित समय पर वसल नहीं कर पाती।

(8) अधिकांश समितियाँ राजनीतिक दलबन्दी का शिकार हैं।

(9) ये समितियाँ नियमानुसार ठीक-ठीक हिसाब नहीं रखती।

प्राथमिक कृषि साख समितियों के दोषों को दूर करने के उपाय- निम्न उपायों द्वारा इन समितियों के दोषों को दूर किया जा सकता है..

(1) समितियों को अपनी पूंजी में वृद्धि करने के लिए प्रयास करने चाहिए।

(2) सरकार को इन्हें पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए।

(3) समितियों को कुशल कर्मचारी उपलब्ध कराने हेतु प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किए जाने चाहिए।

(4) ऋण नकद न देकर वस्तुओं के रूप में दिए जाने चाहिए।

(5) ऋण के प्रयोग का समय-समय पर निरीक्षण किया जाना चाहिए।

(6) ऋण वसूली में चुस्ती से काम किया जाना चाहिए।

(7) समितियों के स्वस्य विकास के लिए राजनीतिज्ञी को समित्तियों के संचालक मण्डलों से दूर रखा जाए।

(8) सरकारी हस्तक्षेप कम से कम होना चाहिए ताकि सदस्यों में सहकारी भावना का विकास हो सके।

(9) समितियों के खातों का प्रत्येक वर्ष सामयिक अंकेक्षण किया जाना चाहिए।

(II) गैर-साख समितियाँ (Non-Credit Agricultural Societies) इस प्रकार की समितियाँ, ग्रामीण लोगों को विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करने के लिए गठित की जाती हैं। एक समिति का कार्यक्षेत्र एक गाँव या कुछ गाँवों तक सीमित होता है। इनके अन्तर्गत सहकारी कृषि समितियों, विपणन समितियाँ, चकबन्दी समितियाँ, सिंचाई समितियां, कृषि वस्तुएँ सम्भरण समितिया, अच्छा जीवन समितियों, दूध एवं पशुपालन समितियाँ, बीमा समितियों, सफाई एवं स्वास्थ्य समितियां आदि आती हैं। इनमें से कुछ समितियों का विवरण नीचे प्रस्तुत है-

(अ) सहकारी कृषि समितियाँ (Co-operative Agricultural Societies) —ऐसी समितिया जोतों के उप-विभाजन तथा उपखण्डन के दोषों को दूर करने के लिए गठित की जाती हैं। अनेक छोटे-छोटे कृषक अपनी जोतों को मिलाकर एक बड़ा फार्म बना लेते हैं तथा एक सहकारी कृषि समिति’ की स्थापना कर लेते हैं। फिर वे सब समिति के निर्देशन के अनुसार मिलजुल कर खेती करते हैं। सहकारी कृषि के अन्तर्गत किसानों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व बना रहता है। सभी कृषक खेती के काम में भाग लेते हैं। कृषि कार्य के लिए उन्हें मजदूरी मिलती है तथा सामूहिक उपज में से कृषि के खचों को निकालकर शेष राशि को सदस्यों के बीच उनकी भूमि के अनुपात में बाँट दिया जाता है। इस प्रकार किसानों को बड़े पैमाने की कृषि के लाभ प्राप्त होते हैं। भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत सहकारी कृषि समितियों की स्थापना पर पर्याप्त बत दिया गया है। देश में मुख्यतः चार प्रकार की सहकारी कृषि समितियों स्थापित की गई है- (1) सहकारी आसामी कृषि समितियों, (2) सहकारी संयुक्त कृषि समितियाँ (3) सहकारी सामूहिक कृषि समितियाँ तथा (4) उन्नत कृषि समितियाँ।

सहकारी खेती के स्वरूप (Forms of Co-operative Farming)

सहकारी खेती के प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित है-

(1) सहकारी उन्नत खेती (Co-operative Improved Farming) इस प्रकार की सहकारी कृषि के अन्तर्गत भूमि का स्वामित्व तथा प्रवन्ध कृषकों के हाथों में ही रहता है तथा ये व्यक्तिगत रूप से खेती करते हैं, किन्तु खाद, उन्नत बीज, कीटनाशक, कृषि यन्त्र आदि से सम्बन्धित अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ये एक सहकारी समिति का गठन कर लेते हैं, अर्थात् सहकारी समिति अपने कृषक सदस्यों को विभिन्न वस्तुएँ उपलब्ध कराती हैं। इस प्रकार सहकारी उन्नत कृषि समितियाँ एक प्रकार से सेवा सहकारिताओं के रूप में कार्य करती हैं। उत्तर प्रदेश में कार्यरत गन्ना सहकारी समितियाँ इसी प्रकार की समितियाँ हैं।

इस प्रकार की सहकारी खेती के प्रमुख लाभ ये हैं-(1) कृषकों का अपनी भूमि पर स्वामित्व बना रहता है, (ii) कृषक वैज्ञानिक ढंग से कृषि करने में समर्थ हो जाते हैं।

(2) सहकारी संयुक्त खेती (Co-operative Joint Farming) इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत कृषक सदस्य अपने छोटे व बिखरे खेतों को मिलाकर एक चक या बड़ा फार्म बना लेते हैं। कृषक अपनी भूमि के स्वामी तो बने रहते हैं, किन्तु खेती संयुक्त रूप से की जाती है। सदस्य एक सहकारी संयुक्त कृषि समिति का गठन कर लेते हैं जिसका प्रबन्ध व संचालन लोकतन्त्रीय आधार पर किया जाता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सदस्यों को दो प्रकार से आय प्राप्त होती है—(1) उन्हें लाभ में से भूमि के अनुपात में हिस्सा मिलता है, तथा (ii) उन्हें अपने श्रम के प्रतिफलस्वरूप मजदूरी मिलती है।

इस प्रकार की सहकारी खेती के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-(1) बड़े पैमाने पर खेती के समस्त लाभ प्राप्त होते हैं। (2) खेती आधुनिक ढंग से की जाती है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है। (iii) कृषि उपज की बिक्री सामूहिक रूप से करने से उपज का उचित मूल्य मिलता है।

(3) सहकारी शिकमी खेती (Co-operative Tenant Farming)-शिकमी का अर्थ है खेतों को किराये अथवा लगान पर देना सदस्य ‘सहकारी शिकमी खेती समिति का गठन कर लेते हैं। समिति सरकार या बड़े किसानों से भूमि दीर्घकाल के लिए पट्टे पर ले लेती है और फिर उसे खेती करने के लिये अपने सदस्यों में बांट देती है। समिति की योजना व नियमों के अनुसार सदस्य खेती करते हैं। समिति सदस्यों को खाद, बीज, कीटनाशक, कृषि यन्त्र आदि प्रदान करती है। उपज की बिक्री सामूहिक रूप से की जाती है तथा सदस्यों में लाभांश वितरित किया जाता है। सरकार या किसान जिससे भी भूमि पट्टे पर ली जाती है उसे लगान दिया जाता है।

(4) सहकारी सामूहिक खेती (Co-operative Collective Farming)-इस प्रकार की व्यवस्था के अन्तर्गत कृषक “सहकारी सामूहिक कृषि समिति का गठन कर लेते हैं। समिति कृषकों से उनकी भूमि को खरीद लेती है अथवा किराए पर पट्टे पर ले लेती है। इस प्रकार भूमि पर समिति का स्वामित्य हो जाता है। भूमि पर समिति द्वारा सामूहिक रूप से खेती की जाती है। कृषक मजदूर के रूप में कार्य करते हैं तथा उन्हें मजदूरी व बोनस दिया जाता है। लाभ का एक भाग संचित कोष में रखकर शेष को सदस्यों में उनके श्रम के अनुपात में बाँट दिया जाता है।

चूंकि सहकारी सामूहिक कृषि के अन्तर्गत भूमि पर कृषक का स्वामित्व नहीं रहता इसलिए इस प्रकार की कृषि भारत में लोकप्रिय नहीं हो सकी है।

भारत में सहकारी कृषि का स्वरूप

भारत में मुख्यतः सहकारी संयुक्त कृषि को अपनाया गया है। भारत में सहकारी खेती की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-

(1) कोई भी एक या अधिक कृषक स्वेच्छा से सहकारी कृषि समिति का गठन कर सकते हैं।

(2) सदस्यों द्वारा भूमि को मिलाकर एक बड़ा चक बना लिया जाता है।

(3) भूमि पर सदस्यों का स्वामित्व बना रहता है।

(4) कृषि संयुक्त रूप से की जाती है।

(5) सदस्य श्रमिक के रूप में काम करते हैं तथा उन्हें उनके श्रम के बदले पारिश्रमिक दिया जाता है।

(6) समिति के शुद्ध वार्षिक लाभ में से संचित कोष, दान आदि के लिए धनराशि निकालकर शेष धनराशि को सदस्यों में वितरित कर दिया जाता है।

(7) यद्यपि सरकार समितियों को संरक्षण प्रदान करती है, किन्तु कृषि कार्य में सरकार द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाता।

भारत में सहकारी खेती के मार्ग में कठिनाइयाँ- पद्यपि भारत में सहकारी कृषि की उन्नति के लिए व्यापक प्रयत्न किए गए हैं, तथापि अभी तक इस क्षेत्र में वांछित सफलता नहीं मिल सकी है। कारण, भारत में सहकारी कृषि के मार्ग में अनेक कठिनाइयों हैं जो निम्नलिखित हैं-

(1) किसानों की निरखता- यह सहकारी कृषि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। अशिक्षा के कारण अधिकांश कृषक अनुशासन में रहकर कार्य करने में असमर्थ हैं।

(2) भूमि से लगाव – भारतीय कृषकों को भूमि प्राणों के समान प्रिय है। अतः भूमि से व्यक्तिगत अधिकार छिनने के भय से भारतीय कृषक सहकारी कृषि का बड़ा विरोध करते हैं। ऐसी स्थिति में सहकारी-कृषि योजना की सफलता की आशा करना व्यर्थ है।

(3) सहकारी खेती को अपनाने सम्बन्धी समस्या- भारत में सहकारी-कृषि के मार्ग में एक प्रमुख समस्या यह है कि सहकारी कृषि को ‘स्वेच्छा के आधार पर अपनाया जाए या ‘अनिवार्यता’ के आधार पर यदि भारत में सहकारी कृषि का प्रचलन स्वेच्छा के आधार पर किया जाता है, तो भारतीय कृषक अपनी अनपढ़ता, रूढ़िवादिता तथा भूमि से अत्यधिक मोह के कारण कभी भी सहकारी-कृषि के लिए तैयार नहीं हो सकते। इसके विपरीत, यदि सहकारी-कृषि को अनिवार्य रूप से लागू किया जाता है तो ऐसा करने से सहकारी-कृषि एक ‘सरकारी-कृषि’ बन जाएगी।

(4) सहकारिता की भावना का अभाव- वर्तमान ग्रामीण समाज में सहकारिता की भावना का अभाव है। उसमें व्यक्तिवादी भावना प्रवल है। अतः सहकारिता द्वारा कृषि जैसे जटिल कार्य में सफलता की आशा करना व्यर्थ है।

(5) उत्साही एवं कुशल नेतृत्व का अभाव- भारत में उत्साही, ईमानदार, दूरदर्शी तथा मेहनती व्यक्तियों का अभाव है। सदस्य सेवा भावना से कार्य नहीं करते हैं। कारण भी देश में सहकारी कृषि अधिक सफल नहीं हो सकी है।

(6) आपसी भेदभाव और पक्षपात- भारत में सहकारी कृषि की धीमी प्रगति का एक कारण यह भी है कि यहाँ के लोगों में आपसी मनमुटाव बहुत जल्दी उत्पन्न हो जाता है तथा पक्षपात की भावना भी बहुत जल्दी उभरती है।

(7) वैधानिक औपचारिकताएँ- सहकारी खेती को कार्यान्वित करने से पूर्व अनेक कानूनी कार्यवाहियाँ करनी पड़ती हैं। इस कार्य में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती हैं, साथ ही समय भी बहुत लग जाता है। इन कठिनाइयों के कारण किसान सहकारी खेती को अपनाने में संकोच करते हैं।

(8) अन्य कठिनाइयाँ– उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त भारत में सामाजिक वर्गभेद, वर्णभेद, कृषकों की अज्ञानता एवं रूढ़िवादिता, पंन का अभाव, राजनीतिक दलों का प्रतिकूल प्रचार आदि बातें भी सहकारी खेती की प्रगति के मार्ग में बाधक रही हैं।

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Anjali Yadav

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