प्रेमचंद की भाषा शिल्प पर एक निबंध लिखिए।
प्रेमचंद की भाषा शिल्प- सर्वप्रथम प्रेमचंद उर्दू भाषा में लिखा करते थे। हिन्दी में लेखन कार्य उन्होंने बाद में आरम्भ किया और यह तथ्य उनकी भाषा के स्वरूप निश्चित जानकारी देता है। प्रेमचंद भाषा की आत्मा को पहचानते हैं इसलिए हिन्दी लेखन में सम्बन्ध में प्रेमचंद ने उन्हीं उर्दू शब्दों को ग्रहण किया है जो हिन्दी प्रकृति के अनुकूल हैं, जो भाषा में प्रवाह और व्यंजकता लाने में समर्थ हैं। प्रेमचंद की भाषा का स्वरूप क्रमशः विकसित होता गया है। उनकी आरम्भिक कृतियों में भाषागत शिथिलता, वाक्य समूह की असम्बद्धता आदि पायी जाती है। शैली का प्रवाह या क्रम टूट जाता है। किन्तु धीरे-धीरे भाषा में प्रौढ़ता, व्यंजकता और प्रवाह आता गया है। प्रेमचंद की भाषा का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि वह जनमानस का स्पर्श करती चलती है, वह सरल और सहज है। जनभाषा को कलात्मक अभिव्यक्ति का साधन बनाकर प्रेमचंद ने कथा साहित्य को नयी देन दी है।
कथानक में जहां पात्रों के संवाद हैं वहां पात्रानुरूप तद्भव, देशज, विदेशी शब्दों का प्रयोग अधिक है। प्रेमचंद के उदाहरण के लिए आप निम्नलिखित पंक्तियों को देख सकते हैं- ‘रमा ने प्रसन्नचित्त बनने चेष्टा करके कहा- अब आपके हाथ में हूँ, रियायत कीजिए या सख्ती कीजिए। इलाहाबाद की म्यूनिसिपेलिटी में नौकर था हिमाकत कहिए या बदनसीबी, चुंगी के चार सौ रुपये मुझसे खर्च हो गये।”
उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों के प्रयोग भाषा में चुस्ती लाने और प्रवाह एवं व्यंजकता बढ़ाने की दृष्टि से किये गये हैं या फिर संवाद को पात्रानुकूल रखने के लिए, उदाहरणार्थ आपने ‘गबन’ से एक मुसलमान सिपाही को कहते सुना-“एक मुलजिम को शुबहे पर गिरफ्तार किया है। इलाहाबाद का रहने वाला है, नाम है रमानाथ पहले नाम और सकून दोनों गलत बतलायी थी। “
भाषा को सरल और सजीव बनाकर उसे जनजीवन के निकट पहुंचाने में मुहावरे और लोकोक्तियां प्रायः बहुत सहायक सिद्ध होती हैं। प्रेमचंद इस काम में सिद्धहस्त हैं। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण जीवन के भीतर प्रवेश कर वे मुहावरों का चयन कर लेते हैं और उन्हें देवीदिन जैसे निपट देहाती व्यक्ति में मुँह से अत्यन्त स्वाभाविकता से कहलाते हैं- “सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है! मुझे से कहो, मैं प्रयागराज के थाने में जाकर खड़ा कर दूं। अगर कोई तिरछी आंखों से भी देख ले तो मूंछ मुड़ा डालूँ।” यह सहज भारतीय उक्ति है।
प्रेमचंद ने भाषा की सहजता का ध्यान रखते हुए उसमें अवसरानुकूल उपमा, उत्प्रेक्षा. अलंकारों का भी प्रयोग किया है। उनका मन गांवों के अंचल में इतना रमा था कि उन्होंने उपमानों का चयन भी वहां के परिचित दृश्यों से ही किया है। प्रेमचंद के सम्पूर्ण भाषा- विज्ञान में आपको वैयक्तिकता के स्थान पर सामाजिक दृष्टि मिलेगी। भाषा की दृष्टि से ‘गवन’ प्रेमचंद की प्रतिनिधि रचना के रूप में स्वीकृत है। इसलिए कि ‘गबन’ में सरसता, माधुर्य व्यंजना, चुस्ती, उदार शब्द-योजना आदि सभी विशेषताओं के दर्शन हो जाते हैं।
शैली- शिल्प का दूसरा पक्ष शैली है। शैली में भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक वैयक्तिक पुट होता है। इस दृष्टि से प्रेमचंद अत्यन्त समर्थ शैलीकार के रूप में हमारे सामने हैं। प्रेमचन्द विशेष वातावरण में उपन्यास का आरम्भ करते हैं, परिस्थिति की क्रिया प्रतिक्रिया से कथानक को आगे बढ़ाते हैं, कथानक के साथ-साथ चरित्र भी विकसित होते चलते हैं। इस क्षेत्र में भी प्रेमचंद की शैली निरंतर परिष्कृत होती रहती है। कथावस्तु का शैथिल्य और बिखराब जो आरम्भिक कृतियों में मिलता है, वह धीरे-धीरे समाप्त होता गया है और ‘गबन’ तो इस दृष्टि से नितांत सफल रचना है। जनसामान्य के परिचित उपकरणों का प्रयोग करने के कारण उसमें कोई झटका लगने वाली घटना समाविष्ट नहीं हुई है, कोई रहस्यमय उलझन नहीं है। वह हमारे अनुभव की वस्तु है। उनकी वास्तु विन्यास प्रणाली को “अलौकिक रंजन शक्ति सम्पन्न” कहा गया है। वातावरण सजीव है और विकास में संगति है। प्रेमचंद स्वयं यह मानते थे कि कथावस्तु में घटना वैचित्र्य तभी तक वांछनीय है जब तक वह घटना वस्तु के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग बनी रही है। इस विवेचना से स्पष्ट है कि ‘गबन’ हमारे सामाजिक और यथार्थ जीवन के सन्निकट है।
प्रेमचंद उपन्यास को ‘मानव-चरित्र का चित्र मात्र’ समझते थे। इसलिये उनकी कला का पूरा निखार चरित्रांकन शैली में देखने को मिलता है। ‘गबन’ चरित्रांकन की दृष्टि से बहुत सफल उपन्यास है, जिसे पढ़ने के बाद ही सम्भवतः शुक्ल जी ने पात्रों की व्यक्तिगत स्वाभाविक विशेषताओं की प्रशंसा की थी। प्रेमचंद की चरित्रांकन शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने पात्रों को धीरे-धीरे हमारे समीप लाते हैं, क्रमशः उनके मनो रहस्य खोलते चलते हैं, कल्पना का सहारा लेते हैं किन्तु सत्य का आधार नहीं छुटता। इसलिए उनके पात्र जाने पहचाने लगते हैं।
प्रेमचंद की शैली में एक अद्भूत प्रवाह है, जो रस की अनुभूति में सहायक होता है। में अनावश्यक को छोड़ देने और आवश्यक को ढूँढ़ लाने की शक्ति, प्रेमचंद में मिलेगी। उनकी शैली समतल है; उसमें आवश्यक उतार-चढ़ाव नहीं है और यही कारण है कि वह जनमानस को छूती है किन्तु भावपूर्ण स्थलों में संक्षेप के साथ प्रभावोत्पादकता और कवित्व आ जाता है। “लोहित आकाश पर कालिमा का पर्दा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने पद डाल दिया।”
प्रेमचंद की शैली भावों का अनुगमन करती चलती है और उसमें व्यंग्य का भी अच्छा पुट रहता है; जन-जीवन के धुल-पचे अनुभव के कारण कहीं-कहीं मनोरम सूक्तियाँ भी मिलती हैं। जैसे-‘अनुराग स्फूर्ति का भण्डार है।’ द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता।’ ‘प्रेम अपने उच्चतम स्थान पर पहुँच कर देवत्व से मिल जाता है’ इत्यादि । इस प्रकार ‘गबन’ उपन्यास शिल्प की दृष्टि से प्रेमचंद की प्रतिनिधि एवं सफल रचना है। उसमें कथा वस्तु का सुगठन, चरित्रों का स्वाभाविक विकास, परिस्थिति और वातावरण का सजीव चित्रण, चुस्त वार्तालाप, सहज-सरल भाषा, परिचित मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग और शैली का अबाध प्रवाह सभी कुछ मिलता है।
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