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ब्याज दर में भिन्नता के कारण
भारत में विभिन्न स्थानों तथा उद्योगों में ब्याज की भिन्न-भिन्न दरें पाई जाती हैं। इसके लिए सामान्यतः निम्न कारण उत्तरदायी हैं-
(1) जोखिम की मात्रा- धनराशि उधार देने में दो प्रकार की जोखिम होती है—(1) व्यक्तिगत जोखिम, तथा (ii) व्यावसायिक हि जोखिम जोखिम के अधिक होने पर ब्याज दर ऊँची तथा जोखिम के कम होने पर ब्याज दर नीची होती है।
(2) ऋण की अवधि- यदि ऋण लम्बी अवधि के लिए लिया जाता है तो ब्याज-दर अधिक होती है जबकि ऋण अवधि छोटी होने पर ब्याज दर कम होती है।
(3) जमानत का स्वभाव- जब ऋण स्वर्ण, आभूषण आदि की जमानत (security) पर लिया जाता है तो ब्याजदर नीची होती है। इसके विपरीत, जमानत के पर्याप्त न होने पर ब्याज दर ऊंची होती है। इसके अतिरिक्त, यदि ऋण व्यक्तिगत जमानत पर लिया जाए तो व्याजदर अपेक्षाकृत अधिक होगी
(4) बन्धक-वस्तु की तरलता- जब कोई व्यक्ति स्वर्ण, चादी, जेवर आदि को गिरवी रखकर ऋण लेता है तो ब्याज दर कम होती है। यदि बन्धक-वस्तु कोई मकान या जमीन है जिनमें तरलता कम होती है तो व्याज की दर अधिक होगी।
(5) ऋण का उद्देश्य-उत्पादक कार्यों हेतु लिये गये ऋण पर ब्याज दर कम होती है, जबकि विवाह, प्रीतिभोज, घरेलू कार्य आदि अनुत्पादक कार्यों हेतु लिए गए ऋण पर ब्याज दर ऊँची होती है।
(6) ऋण की मात्रा – ऋण राशि अधिक होने पर ब्याज अधिक तथा ऋण राशि कम होने पर ब्याज कम होता है।
(7) ऋण लेने का समय–व्यवसाय में तेजी के समय ऋण लेने पर ब्याज दर ऊँची जबकि मन्दी के दिनों में व्याज दर नीची होती है।
(8) ऋण वसूली पर व्यय–यदि ऋण वसूली में कठिनाई की आशंका होती है तो ऋणदाता (creditor) अधिक ब्याज दर पर ऋण देता है। इसके विपरीत, यदि ऋण चाहने वाले व्यक्ति की साख अच्छी होती है तो व्याज दर अपेक्षाकृत कम होती है।
(9) आर्थिक उन्नति — धनी राष्ट्रों में पूँजी की माँग की अपेक्षा उसकी पूर्ति अधिक होती है जिस कारण वहाँ ब्याज दर कम होती है। इसके विपरीत, भारत जैसे अन्य विकसित राष्ट्रों में पूंजी की पूर्ति की अपेक्षा उसकी माँग अधिक होती है जिस कारण वहाँ व्याज दर अधिक होती है।
(10) पूँजी की गतिशीलता- पूंजी के गतिशील (mobile) होने पर विभिन्न स्थानों में ब्याज की दरों में अन्तर कम होता है, जबकि पूंजी के गतिहीन (immobile) होने पर विभिन्न स्थानों में ब्याज दरों में अधिक अन्तर पाया जाता है।
(11) एकाधिकारी शक्ति- यदि साख बाजार में ऋणदाता एक ही व्यक्ति हो अथवा कुछ व्यक्ति मिलकर कर लें तो वे ब्याज की भिन्न-भिन्न दरों पर ऋण देंगे।
(12) बैंकिंग सुविधाएँ- जिन देशों में बैंकों की अधिक सुविधाएँ होती हैं वहाँ ब्याज दरों में समानता की प्रवृत्ति पायी एकाधिकार स्थापित जाती है। किन्तु जिन देशों में बैंकों की सुविधाएँ कम होती हैं यहाँ व्याज दरों में अधिक मित्रता पाई जाती है।
भारतीय गाँवों में ब्याज दर के ऊँचा होने के कारण
(1) पूँजी की माँग का अधिक होना- अधिकांश भारतीय निर्धन हैं जिन्हें विभिन्न कार्यों के लिए समय-समय पर ऋण लेने पड़ते हैं। धनराशि की तुरन्त आवश्यकता होने के कारण उन्हें ऊँची ब्याज दर पर ऋण लेने पड़ते हैं।
(2) पूँजी की पूर्ति का कम होना- यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में विभिन्न राष्ट्रीयकृत बैंकों तथा सहकारी साख समितियों की शाखाएँ खोली गई हैं, तथापि आज भी गाँवों में बैंकिंग सुविधाओं का अभाव है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में पूंजी की कमी रहती है और ग्रामवासियों को विवश होकर महाजन, साहूकार आदि से ऊँची व्याज दरों पर ऋण लेने पड़ते हैं।
(3) अच्छी परोहर की कमी– निर्धन होने के कारण भारतीय किसान अच्छी जमानत नहीं दे पाते। उन्हें विवश होकर व्यक्तिगत जमानत पर ही ऋण लेना पड़ता है जिस कारण उनसे अधिक ब्याज वसूल किया जाता है।
(4) अनुत्पादक ऋण- ग्रामीण लोग शादी-ब्याह, मुण्डन, प्रीतिभोज, मुकदमेबाजी आदि अनुत्पादक कार्यों के लिए भी ऋण लेत रहते हैं। अनुत्पादक ऋणों में जोखिम अधिक होने के कारण ऐसे ऋणों पर अधिक व्याज वसूल किया जाता है।
(5) ऋण वसूली में कठिनाइयाँ- निर्धन होने के कारण ग्रामवासी ऋणों का भुगतान समय पर नहीं कर पाते जिस कारण महाजनों को बार-बार तकादा करना पड़ता है। फिर ग्रामीण लोग ऋण की अदायगी धीरे-धीरे करते हैं जिस कारण महाजनों को हिसाब रखना पड़ता है। ऋण वसूली में आने वाली इन कठिनाइयों के कारण भी महाजन ऊँची दर से ब्याज वसूल करते हैं।
(6) सूदखोरी-भारतीय महाजन व साहूकार ग्रामीण लोगों की मजबूरी का अनुचित फायदा उठाते हैं और ऊँची ब्याज दर पर ऋण देकर उनका शोषण करते हैं।
(7) ग्रामीण जनता की अज्ञानता- अधिकांश ग्रामीण जनता अशिक्षित है जिस कारण वह महाजनों की चालों मे आ जाती है और अधिक व्याज दे बैठती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में ब्याज दर कम करने के उपाय
(1) सहकारी साख समितियों की स्थापना- ग्रामीण क्षेत्रों में समुचित मात्रा में सहकारी साख समितियों तथा अन्य समितियों की स्थापना की जानी चाहिए जो कृषकों को विभिन्न कार्यों के लिए उचित ब्याज दर पर ऋण प्रदान कर सके।
(2) व्यापारिक बैंकों की अधिक शाखाएं खोलना- ग्रामीण क्षेत्रों में राष्ट्रीयकृत बैंकों की अधिक शाखाएं खोली जाएँ जो कृषि, कुटीर व ग्राम उद्योग-धन्चे आदि के लिए उचित ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध करा सकें।
(3) महाजनी व्यवसाय पर नियन्त्रण- सरकार को कठोर कदम उठाकर महाजनों द्वारा किसानों का शोषण समाप्त करना चाहिए। इस सम्बन्ध में सरकार को ब्याज की अधिकतम दर निर्धारित कर देनी चाहिए।
(4) शिक्षा का प्रसार- शिक्षित हो जाने पर ग्रामवासी स्वयं महाजनों के चंगुल में नहीं फँसेंगे।
(5) अन्य उपाय-(I) कुटीर व ग्राम उद्योगों का विकास किया जाए जिससे ग्रामीण लोगों की आय में वृद्धि होने पर उन्हें ऋण ही न लेना पड़े। (ii) गाँवों में डाकघर तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक खोलकर अल्प-बचतों को प्रोत्साहित किया जाए। (iii) कृषि के विकास के लिए समुचित प्रयत्न किए जाएँ ताकि किसानों की आय में वृद्धि हो सके और उन्हें ऋण न लेने पड़ें।
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