कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

भारतीय कृषि : समस्याएँ तथा समाधान (Indian Agriculture : Problems and Solutions)

भारतीय कृषि : समस्याएँ तथा समाधान (Indian Agriculture : Problems and Solutions)
भारतीय कृषि : समस्याएँ तथा समाधान (Indian Agriculture : Problems and Solutions)

भारतीय कृषि : समस्याएँ तथा समाधान (Indian Agriculture : Problems and Solutions)

“भारत में कुछ पिछड़ी हुई जातियों हैं और कुछ पिछड़े हुए उद्योग भी है दुर्भाग्यवश कृषि इन उद्योगों में से एक है।”

-डॉ० कलाउस्टन

भारत में कृषि व्यवसाय की स्थिति

भारत एक कृषि प्रधान देश है, इसीलिए यहाँ की उन्नति तथा सभ्यता कृषि पर आधारित है। देश की 70% जनसंख्या प्रत्यक्ष रूप से अपनी जीविका के लिए कृषि पर आश्रित है। फिर देश की राष्ट्रीय आय का लगभग 33% भाग प्राथमिक क्षेत्र (कृषि, पशुपालन आदि) से प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त, देश के अनेक छोटे व बड़े उद्योग कच्चे माल की उपलब्धि के लिए कृषि पर निर्भर रहते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद यह पिछड़ी हुई अवस्था में है। प्रति हेक्टेयर कृषि-उपज के बहुत कम होने के कारण देश की समस्त जनसंख्या के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती। भारत में गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 2,891 किलोग्राम है जबकि फ्रांस में 6,490 किलोग्राम तथा इंग्लैण्ड में 6.910 किलोग्राम है। चावल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन भारत में 2.188 किलोग्राम है जबकि यह जापान तथा चीन में क्रमशः 6.330 तथा 5,730 किलोग्राम है। इसी प्रकार भारत में कपास का प्रति हेक्टेयर उत्पादन केवल 419 किलोग्राम है जबकि अमेरिका, रूस तथा आस्ट्रेलिया में यह क्रमश: 720, 830 तथा 1,330 किलोग्राम है।

भारत में कृषि-श्रम उत्पादकता भी अन्य राष्ट्रों की तुलना में बहुत कम है। जबकि कृषि-श्रम उत्पादकता अमेरिका में 19,264 ₹, जापान में 18, 120₹. इंग्लण्ड में 16,456 ₹ तथा जर्मनी में 27.690₹ प्रति वर्ष है तब भारत में यह मात्र 1.213₹ है।

भारत के विभिन्न राज्यों में कृषि उत्पादकता में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है। पंजाब में प्रति श्रमिक कृषि उत्पादकता 3.195 ₹ है जबकि हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा बिहार में यह क्रमश: 2.122 ₹1,134 ₹ तथा 755 ₹ है।

भारतीय कृषि की समस्याएँ (कम उत्पादकता के कारण)

भारत में कृषि उपज के प्रति हेक्टेयर कम होने के लिए निम्न कारण उत्तरदायी हैं-

(1) कृषि-जोतों का उप-विभाजन तथा विखण्डन- जबकि अमेरिका, डेनमार्क, इंग्लैण्ड तथा जर्मनी में खेतों का औसत आकार क्रमशः 145,80,62 तथा 21 एकड़ है तब भारत में यह केवल 5 एकड़ है। देश में खेतों के छोटे तथा बिखरे होने के कारण न केवल भूमि तथा कृषि यन्त्रों का अपव्यय होता है बल्कि कृषि में कोई स्थाई सुधार भी सम्भव नहीं है तथा न ही कृषि का आधुनिकीकरण सरलता से किया जा सकता है। कृषि जोतों के उप-विभाजन तथा विखण्डन के लिए मुख्यतया भूमि पर जनसंख्या का अधिक दबाव, जनसंख्या में तीव्र वृद्धि, उत्तराधिकार के दोषपूर्ण नियम, बेरोजगारी आदि कारण उत्तरदायी है।

(2) भूमि पर जनसंख्या का अत्यधिक भार- देश की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या अपनी जीविका निर्भर है। इतना ही नहीं अपनी जीविका के लिए भूमि पर आश्रित लोगों की संख्या में के लिए कृषि पर दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है।

(3) फसलों के रोग तथा कीटाणु- प्रतिवर्ष टिड्डी तथा जंगली पशु फसलों को नष्ट कर जाते हैं। अनुमानतः जंगली पशु-पक्षी तथा कीटाणु फसलों का 20% भाग नष्ट कर देते हैं।

(4) प्राचीन कृषि यन्त्र– जबकि पाश्चात्य देशों में ट्रैक्टर, हेरो व हारवेस्टर जैसे आधुनिक कृषि यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है तब भारत में हल, पटेला, दरीती, कस्सी आदि अत्यधिक प्राचीन यन्त्रों द्वारा कृषि की जाती है।

(5) वर्षा की अनिश्चितता- आज भी भारतीय कृषि का 80% भाग वर्षा पर निर्भर करता है। किन्तु देश के विभिन्न भागों में वर्षा का वितरण अत्यधिक असमान है। कुछ क्षेत्रों में अति-वृष्टि तथा बाढ़ों के कारण फसलें वह जाती हैं तो कहीं अनावृष्टि के कारण फसलें सूख जाती हैं।

(6) दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था- भारत में अनेक वर्षों तक देश की लगभग 40% भूमि जमींदार, जागीरदार, इनामदार आदि मध्यस्यों के पास रही जो कृषकों का विभिन्न प्रकार से शोषण करते थे।

(7) अच्छे पशुओं का अभाव- यद्यपि विश्व के कुल 25% पशु भारत में पाए जाते हैं किन्तु इनमें से अधिकांश पशु दुर्बल तथा अक्षम हैं। एक तो निर्धन होने के कारण भारतीय किसान पशुओं का वर्वाचित पालन-पोषण नहीं कर पाते; दूसरे, दुर्बलता तथा रोगों के शिकार होने के कारण पशु शीघ्र मर जाते हैं।

(8) कृषकों की ऋणग्रस्तता- भारतीय कृषक ऋण में ही जन्म लेता है, ऋण में ही अपना जीवन व्यतीत करता है तथा मृत्यु-उपरान्त ऋण के भार को अपनी सन्तान पर धरोहरस्वरूप छोड़ जाता है। अत्यधिक ऋणग्रस्त होने के कारण भारतीय कृषक अपना समय, शक्ति तथा धन कृषि की उन्नति में नहीं लगा पाता।

(9) उत्तम बीज, खाद व सिंचाई की सुविधाओं का अभाव- भारत में कृषि के पिछड़ेपन का मूल कारण उत्तम बीज जीर सिंचाई की पर्याप्त सुविधाओं का अभाव है। भारत में गोबर का केवल 40 प्रतिशत भाग खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, देश में कृषि भूमि के केवल 21-4 प्रतिशत भाग के लिए सिंचाई की व्यवस्था है। शेष भूमि की फसले वर्षा पर निर्भर करती हैं। वर्षा की निश्चितता, अपर्याप्तता तथा असामयिकता के कारण भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ (gamble in monsoon) कहा जाता है।

(10) अवैज्ञानिक कृषि पद्धति- देश में फसलों को बोने, खाद डालने, फसलों को काटने आदि की रीतिया प्राचीन है जिसका कारण कृषकों को रूढ़िवादिता तथा अज्ञानता है।

(11) निर्धनता तथा अशिक्षा- निर्धनता के कारण भारतीय कुपक आधुनिक यन्त्र, उत्तम बीज, खाद आदि खरीदने तथा उनका प्रयोग करने में असमर्थ है। फिर किसान मुकदमबाजी में अपना अत्यधिक धन तथा समय बर्बाद कर देते हैं।

(12) कुटीर उद्योग-धन्धों का पतन- भारत का कृषक 4-5 महीने बेकार रहता है। समुचित काम मिलने पर वह अपने जीवन-स्तर की उन्नत कर सकता है किन्तु  दुर्भाग्यवश देश में कुटीर तथा घरेलु उद्द्योग-धंधों का पतन होता जा रहा है।

(13) दोषपूर्ण विक्री व्यवस्था- सड़कों के अभाव कामता सम्बन्धी अज्ञानता महाजना तथा व्यापारियों द्वारा किए जाने वाले शोषण आदि के कारण किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। मण्डियों में शागिर्दी, धर्म-खाता, गौशाला, रामलीला आदि के नाम पर किसानों से पर्याप्त रुपया लिया जाता है।

(14) भूमि की उत्पादन- शक्ति में हास-भूमि में उबरक तत्वों को बनाए रखने के लिए फसलों का हेर-फेर आवश्यक होता है, किन्तु अत्यधिक जनसंख्या के कारण भारत में यह सम्भव नहीं है।

भारतीय कृषि के पिछड़ेपन को दूर करने के उपाय

(1) जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण- भूमि पर जनसंख्या के अत्यधिक भार को कम करने तथा कृषि जोतों के उपविभाजन तथा विखण्डन को रोकने के लिए देश की जनसंख्या में तीव्र गति से होने वाली वृद्धि को प्रभावी ढंग से नियन्त्रित करना आवश्यक है।

(2) सिंचाई सुविधाओं का विकास – भारतीय कृषि की वार्ग पर निर्भरता को कम करने के लिए गाँवों में ट्यूबवेल, कुएं, नहीं आदि का समुचित प्रबन्ध करके सिंचाई सुविधाओं का समुचित विकास तथा विस्तार करना आवश्यक है। ट्यूबवैल तथा कुओं के निर्माण के लिए सरकार द्वारा कृषकों को वित्तीय सहायता प्रदान की जानी चाहिए। नहरों के निर्माण पर राज्य सरकारों को समुचित ध्यान देना चाहिए।

(3) छोटे व बिखरे खेतों का एकीकरण- चकबन्दी की सहायता से जनार्थिक जोतों को आर्थिक जोतों में बदला जा सकता है। फिर खेती की सहकारी विधि को अपनाकर भी खेतों के आकार को बड़ा करके बड़े पैमाने पर खेती की जा सकती है।

(4) आधुनिक कृषि-यन्त्रों का प्रवन्ध- खेती के पुराने ढंग के आजारों की हानियों चतलाकर किसानों को आधुनिक कृषि यन्त्रों का प्रयोग समझाना चाहिए और जाधुनिक औजार उचित कीमत पर गांवों में ही उपलब्ध कराये जाने चाहिए।

(5) रासायनिक खाद का अधिक उत्पादन तथा प्रयोग- रासायनिक खाद के लाभों का प्रदर्शन और प्रचार होना चाहिए और ऐसी खाद उचित मूल्य पर गाँव में ही उपलब्ध होनी चाहिए। रासायनिक खाद का देश में उत्पादन बढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि यह किसानों की सस्ती तथा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके। गोवर से कम्पोस्ट खाद बनाने की प्रक्रिया का प्रचार होना चाहिए। इस सम्बन्ध में पंचायतों को सरकार से सहायता मिलनी चाहिए।

(6) उन्नत बीजों का वितरण- सरकारी गोदामों की स्थापना करके कृषकों को उचित मूल्य पर उन्नत बीज दिए जाने चाहिए ताकि कृषि-उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि की जा सके। पंचायतों तथा सहकारी समितियों द्वारा भी अच्छे बीजों की बिक्री की जानी चाहिए। छोटे व निर्धन कृषकों को बीज उधार दिए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त, उन्नत बीजों के लिए निरन्तर अनुसन्धान किए जाने चाहिए।

(7) फसलों की रक्षा- जंगली पशुओं, कीटी तथा रोगों से कृषि उपजों का बचाव किया जाना चाहिए। इसके लिए बचाव के उपायों का गाँवों में प्रदर्शन और प्रचार होना चाहिए तथा कीड़े मारने की दवाएँ उचित मूल्य पर गांवों में ही उपलब्ध करायी जानी चाहिए।

(8) भूमि-संरक्षण– वृक्षारोपण, बाँध, मेड़ आदि द्वारा भूमि-संरक्षण किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, देश में लगभग 160 लाख हेक्टेयर खेतीयोग्य भूमि बेकार पड़ी है जिसे खेती-योग्य बनाया जाना चाहिए।

(9) पशुओं की दशा में सुधार- भारत में पशु विभिन्न कृषि कार्यों में अत्यधिक सहायक सिद्ध होते हैं। अतः पशुओं के लिए चारे की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। उनके रहने के स्थान साफ-सुबरे होने चाहिए। उनकी बीमारियों का इलाज करने के लिए अधिकाधिक पशु चिकित्सालय खोले जाने चाहिए।

(10) कृषि उपज की बिक्री की उचित व्यवस्था- सरकार को ऐसे विपणन केन्द्रों की स्थापना करनी चाहिए जहाँ पर किसान अपनी उपज का उचित मूल्य प्राप्त कर सकें। इसके लिए अधिकाधिक संगठित मण्डियों का निर्माण किया जाए। साथ ही सहकारी विपणन समितियों को प्रोत्साहित किया जाए। ऐसे गोदाम बनाए जाएँ जिनमें किसान अपनी उपज को सुरक्षित ढंग से रख सकें। ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन के साधनों का विकास तथा विस्तार किया जाए जिससे किसान अपनी उपज की मण्डियों में सुगमता से ले जा सकें।

(11) साख-सुविधाओं का विस्तार- आजकल किसानों को अल्पकालीन व मध्यकालीन ऋण सहकारी साख समितियों से तथा दीर्घकालीन ऋण भूमि विकास बैंकों से मिलते हैं। व्यापारिक बैंक भी किसानों को साख सुविधाएँ प्रदान कर रहे हैं। कुछ स्थानों में किसानों की सहायता के लिए क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक भी खोले गए हैं। इन सभी साख-सुविधाओं को सुदृढ तथा विस्तृत करने की आवश्यकता है। प्राकृतिक विपत्तियों के समय सरकार द्वारा किसानों को तकावी कर्जे दिए जाने चाहिए।

(12) कुटीर व ग्राम उद्योगों का विकास- कृषि भूमि पर जनसंख्या के अत्यधिक दबाव को कम करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर व ग्राम उद्योगों का विकास किया जाना चाहिए। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध कराये जा सकेंगे।

(13) शिक्षा का प्रसार- भारतीय कृषि के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण किसानों का अशिक्षित होना है। किसानों में शिक्षा का प्रसार करके कृषि सम्बन्धी शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा के प्रसार से न केवल ग्रामीण लोगों के अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादी विचार कम होंगे बल्कि वे नए तरीकों को अपना सकेंगे। साथ ही किसानों को उत्पादन की नई विधियों का ज्ञान कराया जा सकेगा, आधुनिक कृषि यन्त्रों की जानकारी प्रदान की जा सकेगी, इत्यादि।

(14) वैज्ञानिक खेती का प्रचार- देश में खेती के वैज्ञानिक ढंग का प्रचार किया जाना चाहिए। फसलों के हेर-फेर (rotation of crops) के बारे में किसानों को बताया जाना चाहिए। सरकारी फार्मों पर वास्तविक प्रयोगों द्वारा किसानों को खेती की नई तथा अच्छी विधियों का ज्ञान कराना चाहिए जो किसान नई विधियों द्वारा उपज बढ़ाने में सफल हों उन्हें पुरस्कार दिए जाने चाहिए।

(15) फसल बीमा योजना- भारतीय किसानों को कई प्रकार की जोखिम का सामना करना पड़ता है। वर्षा की अनिश्चितता, बाड़े, बीमारियाँ, पशु व टिड्डी दल आदि कई कारणों से फसलों के नष्ट होने का डर बना रहता है। किसानों को ऐसे जोखिम से बचाने के लिए फसलों का बीमा (Crop Insurance) किया जाना चाहिए।

(16) कृषि अनुसन्धान पर विशेष ध्यान- केन्द्रीय अनुसन्धान संस्थान, कृषि विश्वविद्यालयों तथा राज्य के अनुसंधान केन्द्रों को कृषि अनुसंधान कार्यों पर अधिकाधिक गम्भीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए।

IMPORTANT LINK

Disclaimer

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com

About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment