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भारत में कृषि सहकारिता के स्वरूप (Forms of Agricultural Co-operatives in India)
“सहकारी समितियों का कार्यो विशेषताओं तथा संगठन के आधार पर वर्गीकरण करने के लिए समय-समय पर अनेक प्रयास किए गए हैं, किन्तु इनका कोई पूर्ण विस्तृत तथा दोहरेपन से रहित वर्गीकरण अभी तक नहीं हो पाया है।”
-काटजू
भारत में विभिन्न सहकारी समितियाँ
भारत में पाई जाने वाली प्राथमिक सहकारी समितियों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है- (1) साख सहकारी समितियाँ (Co-operative Credit Societies) तथा (2) गैर-साख (Non-credit Co-operative Societies) समितियां सहकारी साख समितियाँ भी दो प्रकार की होती हैं—(1) कृषि साख सहकारी समितियों तथा (ii) गैर कृषि साख सहकारी समितियाँ गैर-साख सहकारी समितियों को भी दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-(i) गैर-साख कृषि सहकारी समितियों, तथा (ii) गैर-साख गैर-कृषि सहकारी समितियाँ
(I) कृषि साख समितियाँ (Agricultural Credit Societies)- इन्हें प्राथमिक कृषि साख समितियाँ’ भी कहते हैं। इस प्रकार की समितियों की स्थापना सन् 1904 के सहकारी साख अधिनियम के अन्तर्गत प्रारम्भ हुई थी। वर्तमान समय में ऐसी समितियों की संख्या कुल सहकारी समितियों की 90 प्रतिशत है। ये समित्तियां किसानों को साख उपलब्ध कराने का कार्य करती हैं। इनकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नांकित है-
(1) सदस्यता तथा आकार- कोई भी 10 व्यक्ति या अधिक से अधिक 100 व्यक्ति जो समान क्षेत्र, भाषा या जाति (tribe) के हो, मिलकर कृषि साख समिति का गठन कर सकते हैं। ऐसी समिति में कम से कम 75% सदस्य कृषक होने चाहिए।
(ii) कार्यक्षेत्र- इस प्रकार की समिति का कार्यक्षेत्र प्रायः एक गाँव होता है। एक ही गाँव के व्यक्ति मिलकर ऐसी समिति का गठन करते हैं और यह उन्हीं की आर्थिक सहायता के लिए कार्य करती है। जहाँ गाँव अधिक छोटे होते हैं वहाँ आस-पास के गाँवों को मिलाकर एक समिति गठित कर ली जाती है |
(iii) दायित्व- देश की अधिकांश कृषि साख समितियों में सदस्यों का दायित्व असीमित है। अतः समिति के ऋण के | लिए प्रत्येक सदस्य व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों ही प्रकार से उत्तरदायी होता है।
(iv) संचालन- प्राथमिक कृषि साख समितियों का संचालन लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है। समिति के प्रथन्ध के लिए दो समितियाँ होती हैं–(अ) साधारण सभा (General Assembly) समिति का प्रत्येक सदस्य इसका सदस्य होता है तथा प्रत्येक को एक मत देने का अधिकार होता है। साधारण सभा वर्ष में एक बार अवश्य बैठक करती है। (घ) प्रबन्ध समिति (Managing Committee)- यह सभा समिति के दैनिक कार्यों का प्रबन्ध करती है। प्रबन्ध सभा के 5 से 9 तक सदस्य होते हैं तथा उनका निर्वाचन साधारण सभा करती है। प्रबन्ध सभा मुख्यतः इन कार्यों को करती है- (1) जमा यस्वीकार करना, (2) समिति के लिए ऋण की व्यवस्था करना, (3) सदस्यों को ऋण प्रदान करना तथा वसूल करना, (4) समिति की वार्षिक आय और व्यय का प्रबन्ध करना, (5) समिति के कोपों की मात्रा को निर्धारित करना, (6) रजिस्ट्रार से लिखा पढ़ी करना, (7) साधारण सभा की बैठक बुलाना आदि।
(v) पूंजी- समिति को पूँजी प्रकार के स्रोतों से प्राप्त होती है-आन्तरिक स्रोत तथा बाह्य स्रोत आन्तरिक साधनों में अंश पूंजी, प्रवेश शुल्क, सदस्यों की जमाराशियाँ तथा सुरक्षित कोष जाते हैं। बाह्य साधनों में गैर-सदस्यों की जमाएँ, सरकार से ऋण, केन्द्रीय एवं राज्य सहकारी बैंक के ऋण आदि आते हैं। इन समितियों को भेंट, दान आदि के रूप में भी धन की प्राप्ति होती है।
(vi) कार्य तथा उद्देश्य– इन समितियों का प्रमुख उद्देश्य अपने सदस्यों को उचित ब्याज पर अल्पकालीन तथा मध्यकालीन ऋण प्रदान करना है। समितियों के अन्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-(1) सदस्यों तथा गैर सदस्यों से जमाएँ स्वीकार करना, (2) सदस्यों में बचत तथा मितव्ययता की भावना का विकास करना, (3) बीज, खाद, कृषि-यन्त्र आदि कृषि आगतों का उचित मूल्य पर वितरण करना, (4) दैनिक उपयोग की वस्तुओं, जैसे चीनी, साबुन, मिट्टी का तेल आदि का वितरण करना।
(vii) ऋण नीति—ये समितियों केवल अपने सदस्यों को ऋण प्रदान करती हैं, गैर-सदस्यों को नहीं साख समितियाँ मुख्यतः तीन प्रकार के कार्यों के लिए ऋण देती हैं-(1) उत्पादक कार्यों के लिए, जैसे बीज, खाद, कृषि यन्त्र आदि खरीदना (2) अनुत्पादक कार्यों के लिए, जैसे विवाह, भोज आदि, तथा (3) पुराने कर्मों के भुगतान हेतु। कृषि साख समितियाँ सदस्यों को अल्पकालीन तथा मध्यकालीन ऋण प्रदान करती हैं। सदस्यों को ऋण बहुधा उत्पादक कार्यों के लिए व्यक्तिगत जमानत पर दिए जाते हैं। कभी-कभी आभूषण, फसल तथा सम्पत्ति की भी जमानत रख ले जाती है। इनके द्वारा वसूल की जाने वाली ब्याज दर 8% से 12% तक होती है जो विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न है। ऋण राशि का दुरुपयोग किए जाने पर ऋणी को सम्पूर्ण राशि वापिस करने के लिए बाध्य किया जा सकता है ऋण की वसूली फसल की कटाई के बाद की जाती है ताकि किसानों को भुगतान करने में कोई कठिनाई न हो।
(viii) लाभ का वितरण जिन साख- समितियों की अंश-पूँजी नहीं होती उन्हें अपना समस्त लाभ संचित कोष में जमा करना पड़ता है। अंश-पूंजी वाली समिति शुद्ध वार्षिक लाभ का 25% सुरक्षित कोष में रखकर शेष 75% को अंशधारियों में लाभांश के रूप में वितरित कर सकती है। पंजीयक (registrar) की अनुमति से इसमें से 10% भाग शिक्षा, दान आदि कार्यों के लिए रखा जा सकता है। वैसे इन समितियों का प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना नहीं बल्कि साख-सुविधाएँ प्रदान करना है।
(ix) निरीक्षण तथा अंकेक्षण- समिति के कार्यों का निरीक्षण पंजीयक के अधीन निरीक्षकों द्वारा किया जाता है। समिति के हिसाब-किताब की जाँच भी पंजीयक अंकेक्षकों (auditors) द्वारा कराता है। अंकेक्षण (auditing) वर्ष में एक बार अवश्य होना चाहिए।
(x) विवाद का निपटारा- समिति तथा उसके सदस्यों के मध्य उत्पन्न विवाद का निबटारा पंचायत द्वारा किया जाता है। इससे मुकदमेबाजी में होने वाले व्यय तथा समय दोनों की बचत होती है।
(xi) समिति का भंग किया जाना- यदि पंजीयक चाहे तो वह नियमों के विरुद्ध कार्य करने वाली या निरन्तर घाटे में चलने वाली समिति को भंग कर सकता है।
प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियों की प्रगति– सन् 1950-51 में इन समित्तियों की संख्या 1-15 लाख, सदस्य संख्या 52 लाख, प्रदत्त पूजी 8 करोड़ रुपये तथा जमाएँ 4 करोड़ ₹ थीं। पुनर्गठन के कारण बाद में इन समितियों की संख्या घटती गई है। वर्ष 2003 में इन समितियों की संख्या 90,000 थी। वर्ष 2003 में इन्होंने कृषि क्षेत्र को 24.296 करोड़ ₹ के ऋण प्रदान किए।
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