कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

भारत में ग्राम पंचायतें (Village Panchayats in India)

भारत में ग्राम पंचायतें (Village Panchayats in India)
भारत में ग्राम पंचायतें (Village Panchayats in India)

भारत में ग्राम पंचायतें (Village Panchayats in India)

भारत में पंचायती राज की अवधारणा तथा महत्त्व

किसी भी लोकतंत्र की सफलता अधिकाधिक लोगों की शासन में सहभागिता पर निर्भर करती है। इसी धारणा को ध्यान में रखते हुए भारत में प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण (democratic decentralisation) हेतु पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया गया है। इस सन्दर्भ में महात्मा गाँधी के ये शब्द उल्लेखनीय हैं, “स्वतन्त्रता का प्रारम्भ धरातल से होना चाहिए। प्रत्येक गाँव एक छोटा गणराज्य होना चाहिए जिसके हाथ में सभी अधिकार हो। भारत में पंचायती राज प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। अति प्राचीन काल से ही पंचायतें ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित रही हैं। महाभारत, रामायण आदि ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है। बौद्ध धर्म के जातकों कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र तथा शंकराचार्य के ‘नीतिशास्त्र’ में भी ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है। किन्तु मुस्लिम शासनकाल तथा ब्रिटिश शासनकाल में इनका पतन हो गया था।

पंचायती राज का महत्त्व (लाभ)- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने पंचायती राज के निम्न लामों को ध्यान में रखते हुए इसे शक्तिशाली बनाने के लिए निरन्तर प्रयास किए हैं-

(1) लोकतन्त्र का आधार- ग्राम पंचायतों के माध्यम से गांवों की सत्ता ग्रामीण जनता के हाथ में पहुँच जाती है। इससे ग्रामवासियों में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। इस प्रकार पंचायती राज देश में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराएं स्थापित करने के लिए ठोस आधार प्रदान करता है।

(2) भावी नेतृत्व का निर्माण- ग्राम पंचायतें ग्रामीण जनता को राजनीतिक अनुभव तथा राजनीतिक प्रशिक्षण प्रदान करती हैं। बाद में ऐसे कुछ व्यक्ति विधायक तथा मंत्री बनते हैं जिन्हें ग्रामीण भारत की समस्याओं का पर्याप्त ज्ञान होता है। ऐसे राजनेता ग्रामीण भारत का विकास करने में कहीं अधिक सक्षम होते हैं। इस प्रकार ग्राम पंचायतें देश में उचित नेतृत्व के निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

(3) जनता तथा सरकार से सम्पर्क- पंचायती राज का संस्थाएं जनता तथा सरकार के मध्य कड़ी का काम करती है। ग्रामीण उत्थान के लिए जनता तथा सरकार के मध्य सम्पर्क तथा सहयोग परमावश्यक है।

(4) स्वतन्त्रता को बढ़ावा- पंचायती राज से स्वतन्त्रता तथा स्वाधीनता को बढ़ावा मिलता है। इसके अभाव में ग्रामों का प्रबन्ध पूर्णतया केन्द्रीय अथवा प्रान्तीय सरकार के पास होने से देश में अधिनायकबाद में वृद्धि होगी।

(5) शासकीय शक्तियों का विकेन्द्रीकरण- भारत एक विशाल देश है। केन्द्रीय सरकार के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह इतने बड़े देश पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण रख सके तथा सभी ग्रामीण समस्याओं का समाधान कर सके। इस दृष्टि से पंचायती राज संस्थाएं केन्द्र तथा राज्य सरकारों को स्थानीय समस्याओं के भार से हल्का कर देती हैं।

(6) नागरिकों का जागरूक होना- पंचायती राज व्यवस्था ग्रामवासियों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग   शिक्षा देती है तथा उन्हें अपने कर्तव्यों का बोध कराती है।

ग्राम पंचायतों की आवश्यकता- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् निम्न कारणों से ग्राम पंचायतों की आवश्यकता अनुभव की गई-

(1) भारत के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तों में बताया गया है कि ग्राम पंचायतों को संगठित करने की दिशा में राज्य आवश्यक कदम उठायेगा।

(2) जमींदारी उन्मूलन के बाद सामाजिक अस्थिरता के भय को दूर करने के लिए ऐसे स्थानीय निकायों का गठन आवश्यक समझा गया जो ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक स्थिरता बनाए रख सके।

(3) राज्य द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रारम्भ किए गए विकास तथा निर्माण के कार्यक्रमों की देखभाल करने तथा उनमें अपना सहयोग प्रदान करने के लिए ग्रामीण स्तर पर पंचायतों के गठन की आवश्यकता अनुभव की गई।

(4) सामुदायिक विकास प्रायोजनाओं की सफलता के लिए जन सहयोग परमावश्यक है। अतः ऐसी व्यवस्था की खोज की गई जो राष्ट्र निर्माण के लिए जनतन्त्र के अन्तर्गत अधिक सक्रिय ढंग से कार्यशील हो सके। बलवन्त राय मेहता समिति ने भी जनतन्त्रीय विकेन्द्रीकरण की आवश्यकता अनुभव की मेहता समिति ने विकेन्द्रीकरण की त्रिसूत्री व्यवस्था प्रस्तुत की जो इस प्रकार थी— (1) गाँवों में ग्राम पंचायते, (ii) खण्डों में पंचायत समितियों, तथा (iii) जिले में जिला परिषद जनवरी 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने मेहता समिति की सिफारिशों को मानकर पंचायती राज की स्थापना के लिए कुछ सिद्धान्त निश्चित किए।

स्वतन्त्र भारत में ग्राम पंचायतें- भारत में पंचायती राज सन् 1959 में प्रारम्भ किया गया था। यह स्थानीय स्वशासन का ग्राम, खण्ड तथा जिला स्तर पर लागू किया गया त्रिस्तरीय ढांचा था। राज्यों को स्थानीय दशाओं के अनुसार इस ढाँचे में परिवर्तन करने की छूट थी। इसलिए पंचायतों का ढाँचा अलग-अलग राज्यों में पृथक-पृथक रहा और उसका सृजन राज्य कानूनों द्वारा किया गया। कुछ राज्यों में गाँव, बनाक और जिला स्तर पर त्रिस्तरीय ढाँचा और कुछ राज्यों में गांव और ब्लाक अथवा जिला स्तर पर द्वि-स्तरीय ढाँचा था। कुछ राज्यों में तो ग्राम स्तर पर पंचायतों का एक-स्तरीय ढाँचा ही था।

भारत में नवीन पंचायती राज प्रणाली

भारत में नवीन पंचायती राज प्रणाली’ सम्बन्धी संवैधानिक संशोधन संसद द्वारा दिसम्बर 1992 में पारित किया गया तथा 5 अप्रैल, 1993 को 73वें संवैधानिक संशोधन को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो गयी। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नाकित हैं-

(1) ग्राम सभा की परिभाषा- एक पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आए गांव के जिन लोगों के नाम मतदाता सूची में अंकित हैं वह सभी लोग सामूहिक रूप से ग्राम सभा का निर्माण करेंगे।

(2) तीन स्तरीय पंचायती राज प्रणाली- संविधान में निम्न स्तर पर ग्राम पंचायत, उसके ऊपर मध्य स्तर की पंचायत और सबसे ऊपर जिला स्तर की पंचायत की व्यवस्था की गयी है। 73वें संशोधन के लागू होने से एक वर्ष के अन्दर प्रत्येक राज्य में ग्राम मण्डल और जिला स्तर पर पंचायतों की स्थापना की जायेगी।

(3) पंचायतों की बनावट- प्रत्येक स्तर की पंचायत की बनावद सम्बन्धी व्यवस्था सम्बन्धित राज्य के विधान मण्डल द्वारा की जायेगी।

(4) सदस्यों का प्रत्यक्ष चुनाव- प्रत्येक पंचायत के क्षेत्र की चुनाव क्षेत्र में बाँटा जायेगा और इन चुनाव क्षेत्रों से पंचायत के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप में लोगों द्वारा किया जायेगा। राज्य मण्डल कानून द्वारा पंचायत के चुनावों सम्बन्धी सभी मामलों के बारे में व्यवस्था कर सकता है। उल्लेखनीय है कि लोक सभा, राज्य सभा तथा विधान परिषद् के सदस्यों को ग्राम स्तर की पंचायतों में प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता।

(5) सदस्यों की योग्यता- पंचायत के चुनाव लड़ने के लिए 21 वर्ष की आयु का होना आवश्यक है। राज्य विधान मण्डल पंचायतों के सदस्यों की अयोग्यताओं सम्बन्धी व्यवस्था कानून द्वारा कर सकता है।

(6) स्थानों का आरक्षण- पंचायतों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा स्त्रियों के लिए स्थान आरक्षित करने की व्यवस्था की गयी है। आरक्षित स्थानों की संख्या पंचायत क्षेत्र में जनसंख्या के अनुपात के अनुसार निश्चित की जायेगी।

(7) कार्यकाल – प्रत्येक पंचायत का कार्यकाल पाँच वर्ष का होगा जो पंचायत की पहली बैठक की तिथि से प्रारम्भ होगा। किसी पंचायत के कार्यकाल की समाप्ति से पहले उसके चुनाव कराना आवश्यक है। यदि किसी पंचायत को भंग किया गया है तो उसके भंग होने की तिथि से छः महीने के अन्दर चुनाव कराना आवश्यक है।

(8) अध्यक्षों का चुनाव व पद से हटाना- (1) ग्राम स्तर की पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से लोगों द्वारा होगा। अध्यक्ष को ग्राम सभा द्वारा हटाया जा सकता है। ग्राम सभा ऐसी कार्यवाही क्षेत्र की पंचायत की सिफारिश पर ही कर सकती है। (ii) मध्य स्तर तथा जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्षों के चुनाव सम्बन्धित पंचायत के चुने हुए सदस्यों द्वारा उनके बीच में से ही किए जायेंगे। किसी अध्यक्ष को चुने हुए कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और वोट देने वाले सदस्यों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके हटाया जा सकता है।

(9) पंचायतों की शक्तियाँ तथा दायित्व- राज्य विधान मण्डल कानून द्वारा इन विषयों सम्बन्धी पंचायतों को शक्तियों तथा दायित्व सौंप सकता है- (1) आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करना तथा ऐसी योजनाएं लागू करना; (ii) कृषि, भूमि सुधार, सिंचाई, पशुपालन, वन, लघु उद्योग, ग्रामीण आवास, ईंधन व पशुओं का चारा, सड़कें, ग्रामीण विद्युतीकरण, स्वास्थ्य व सफाई।

(10) कर लगाने की शक्ति- राज्य विधान मण्डल कानूनों द्वारा पंचायतों को कर लगाने व एकत्र करने की शक्ति सौंप सकता है।

(11) वित्त आयोग का निर्माण- प्रत्येक पांच वर्ष के पश्चात् राज्य के राज्यपाल द्वारा एक वित्त आयोग नियुक्त किया जाएगा जिसके गठन की व्यवस्था राज्य के कानून द्वारा की जायेगी।

(12) राज्य चुनाव आयोग- पंचायतों के चुनाव के लिए सूचियाँ तैयार करवाने तथा पंचायतों के सभी चुनावों का प्रबन्ध करने का दायित्व राज्य चुनाव आयोग को सौंपा गया है।

(13) अदालतों के हस्तक्षेप से मुक्त- पंचायतों के चुनाव क्षेत्र निश्चित करने वाले किसी कानून के औचित्य को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।

(14) कुछ में लागू न होना- संविधान के 73वें संशोधन की व्यवस्थाएँ नागालेण्ड, मेघालय तथा मिजोरम राज्यों में लागू नहीं होंगी।

भारत में पंचायतों की संख्या का अनुमान- उक्त संवैधानिक संशोधन के तहत पहले स्तर की पंचायतों की संख्या लगभग 2.22 लाख होगी तथा सदस्य संख्या 22.2 लाख होगी। इसकी एक-तिहाई अर्थात् 7.4 लाख सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। दूसरे स्तर पर ऐसी इकाइयों की संख्या लगभग 5-6 हजार होगी तथा सदस्य संख्या अनुमानतः 1.25 लाख होगी। जिला परिषदों की संख्या लगभग 500 तथा सदस्य संख्या लगभग 15 हजार होगी। अभी तक सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव सम्भव नहीं हो पाए हैं जिस कारण देश में पंचायतों की कुल संख्या की स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है।

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Anjali Yadav

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