कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

भारत में भूमि विकास बैंकों की कार्यप्रणाली (विशेषताएँ)

भारत में भूमि विकास बैंकों की कार्यप्रणाली (विशेषताएँ)
भारत में भूमि विकास बैंकों की कार्यप्रणाली (विशेषताएँ)

भारत में भूमि विकास बैंकों की कार्यप्रणाली (विशेषताएँ)

भारत में भूमि विकास बैंकों की प्रमुख विशेषताएँ (लक्षण) निम्नांकित हैं-

(1) कार्य- प्राथमिक भूमि विकास बैंक मुख्यतया ये कार्य करते हैं-(i) अचल सम्पत्ति की जमानत पर अपने सदस्यों को ऋण देना, (ii) सदस्यों में सहयोग व आत्मनिर्भरता की भावना जागृत करना, (iii) भूमि के उचित प्रयोग तथा भूमि सम्बन्धी समस्याओं के बारे में सलाह देना।

(2) ऋण के उद्देश्य —ये बैंक मुख्यतया इन कार्यों के लिए दीर्घकालीन ऋण देते हैं-(i) पैतृक या पुराने ऋणों का भुगतान करने के लिए, (ii) कृषि भूमि में स्थाई सुधार करने के लिए, (iii) भूमि खरीदने के लिए, (iv) अनुपजाऊ भूमि को कृषि योग्य बनाने के लिए, (v) आधुनिक कृषि यन्त्र खरीदने के लिए, (vi) सिंचाई के लिए कुआँ, नाला आदि बनवाने के लिए, (vii) कृषि-भूमि तथा मकान को रेहन से छुड़ाने के लिए, (viii) जंगल, झाड़ियों आदि को साफ करके कृषि योग्य भूमि बनाने के लिए, (ix) जोतों की चकबन्दी के लिए इत्यादि।

(3) प्रबन्ध- प्राथमिक भूमि विकास बैंकों का प्रबन्ध एक संचालक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसमें 7 से 9 संचालक होते हैं। 2 या 3 संचालकों की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा तथा एक संचालक की नियुक्ति केन्द्रीय भूमि विकास बैंक द्वारा की जाती है। शेष संचालकों को सदस्यों में से चुना जाता है। संचालकों को कोई वेतन नहीं मिलता।

(4) पूँजी- ये अपनी पूंजी मुख्यतः इन योतों से प्राप्त करते हैं-(1) अंश वेचकर, (ii) जनता से जमा स्वीकार करके, (iii) ऋणपत्र (debentures) निर्गमित करके, (iv) अन्य संस्थाओं तथा व्यक्तियों से ऋण लेकर, (v) संचित कोष का निर्माण करके, (vi) सदस्यों से प्रवेश शुल्क लेकर, (vii) अनुदान प्राप्त करके, आदि।

प्राथमिक भूमि विकास बैंकों की अंश पूंजी केवल ग्रामीण जनता द्वारा खरीदी जाती है जबकि केन्द्रीय भूमि विकास बैंको की पूंजी सरकार, प्राथमिक भूमि विकास बैंक, सहकारी समितियों तथा सहकारी बैंक, किसान आदि के द्वारा खरीदी जाती है।

ऋणपत्र केवल केन्द्रीय भूमि विकास बैंकों द्वारा जारी किए जाते हैं। इनके ऋणपत्रों खरीदने वालों में जीवन बीमा निगम, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, वाणिज्यिक बैंक, रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, सहकारी बैंक तथा केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकारें सम्मिलित हैं।

(5) ऋण नीति- प्राथमिक भूमि विकास बैंक केवल अपने सदस्यों को ऋण देते हैं, जबकि केन्द्रीय भूमि विकास बैंक, प्राथमिक बैंकों को ऋण देते हैं। किसी सदस्य द्वारा ऋण के लिए प्रार्थना पत्र दिए जाने पर प्राथमिक भूमि विकास बैंक उस पर विचार करता है। उसके बाद प्राथमिक बैंक प्रार्थना पत्र तथा उसके साथ संलग्न कागजात को केन्द्रीय भूमि विकास बैंक के पास भेज देता है। केन्द्रीय भूमि विकास बैंक की ऋण-समिति ऐसे प्रार्थना-पत्रों पर विचार करती है। ऋण की राशि, अवधि आदि के बारे में अन्तिम निर्णय केन्द्रीय भूमि विकास बैंक द्वारा ही लिया जाता है। ऋण की स्वीकृति के पश्चात् ऋणराशि प्राथमिक बैंक के माध्यम से प्रदान की जाती है। प्राथमिक भूमि विकास बैंक ऋणराशि देने से पहले केन्द्रीय भूमि विकास बैंक के नाम प्रार्थी की भूमि का बन्धक-नामा (Mortgage Deed) लिखवा लेता है।

इन बैंकों द्वारा 83% ऋण उत्पादक कार्यों के लिए प्रदान किए गए हैं। जब तक सबसे अधिक ऋण कुँओं के निर्माण व सुधार के लिए प्रदान किए हैं। कृषि यन्त्रों की खरीद के लिए भी पर्याप्त ऋण दिए गए हैं।

(6) ऋण की अवधि और सीमा- बन्धक राखी गई भूमि के अनुमानित मूल्य के 50% भाग तक ही ऋणराशि स्वीकृत की जाती है। ऋण प्रायः 7 से 20 वर्ष तक की अवधि के लिए दिए जाते हैं। विभिन्न राज्यों में ऋणराशि की न्यूनतम तथा अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी गई है।

(7) व्याजदर तथा ऋण वसूली– केन्द्रीय भूमि विकास बैंक, प्राथमिक भूमि विकास बैंकों से सामान्यतया 5% से 6.5% तक व्याज वसूल करते हैं। प्राथमिक भूमि विकास बैंक 6% से 10% तक ब्याज लेते हैं। वैसे विभिन्न राज्यों में भूमि विकास बैंकों की व्याज दरें भिन्न-भिन्न है।

(8) लाभांश का वितरण – ये बैंक लाभ की एक निश्चित मात्रा को सुरक्षित कोष में जमा करके शेष राशि को सदस्यों में लाभांश के रूप में वितरित कर देते हैं।

भारत में भूमि विकास बैंकों की धीमी प्रगति के कारण

तमिलनाडु को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में भूमि विकास बैंकों ने कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की है। इन बैंकों की धीमी प्रगति के कारण निम्न प्रकार हैं-

(1) ऋण देने की दोषपूर्ण व्यवस्था- इन बैंकों की ऋण देने की व्यवस्था अत्यन्त दोषपूर्ण है। किसानों को बैंकों से ऋण प्राप्त करने में काफी समय लग जाता है। फिर किसानों को ऋण के रूप में मिलने वाली रकम भी बहुधा उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होती किसानों से ऊंची प्रतिभूति मांगी जाती है तथा किस्तों की वसूली में कठोरता वरती जाती है।

(2) पूँजी की कमी- इन बैंकों द्वारा जारी किए जाने वाले ऋणपत्रों में जनता का बहुत कम विश्वास होता है जिससे ये बैंक आवश्यक कोष नहीं जुटा पाते।

(3) पुराने ऋणों के परिशोधन पर बल- अभी तक भूमि विकास बैंकों ने किसानों को पुराने कजों को चुकाने के लिए अधिक ऋण दिए हैं जबकि इन्हें भूमि तथा कृषि की उन्नति के लिए अधिकाधिक ऋण देने चाहिए। भूमि सुधार के लिए अभी तक इन बैंकों ने केवल 10% ही ऋण दिये हैं।

(4) कृषि सम्बन्धी ठीक-ठीक आंकड़ों का उपलब्ध न होना– भारतीय कृषकों की आय तथा व्यय सम्बन्धी ठीक-ठीक आँकड़े सुलभ नहीं हो पाते, जिस कारण ये बैंक ऋण से पूर्व ऋण सम्बन्धी आवश्यकता का सही आकलन नहीं लगा पाते।

(5) अकुशल कार्यप्रणाली- देश के अधिकांश भूमि विकास बैंकों की कार्यप्रणाली अत्यन्त दोषपूर्ण तथा अकुशल है। आय की कमी के कारण ये आवश्यक तथा कुशल स्टाफ भी नहीं रख पाते। ये बैंक प्रायः सहकारी विभाग के कर्मचारियों को ही कुछ समय के लिए नियुक्त कर लेते हैं।

(6) ऋण वापसी में विलम्ब- इन बैंकों द्वारा किसानों को जो ऋण दिए जाते हैं उनकी समय पर वसूली नहीं हो पाती। इससे बैंकों की पूंजी फंस जाती है और ये अन्य जरूरतमंद किसानों को पर्याप्त ऋण नहीं दे पाते।

(7) ऊँची व्याज दर – अन्य बैंकों की भांति प्राथमिक भूमि विकास बैंक भी किसानों को ऊँची व्याज दर पर ऋण प्रदान करते हैं।

(8) पक्षपातपूर्ण रवैया- अनेक बार बैंकों के कर्मचारी जरूरतमंद किसानों की अपेक्षा अपने सगे-सम्बन्धियों तथा मित्रों अथवा प्रभावशाली व्यक्तियों को ऋण दे देते हैं।

(9) विशेषज्ञों की कमी- किसानों को ऋण स्वीकृत करने से पूर्व उनकी आर्थिक स्थिति, बन्धक के रूप में रखी जाने बाली भूमि के मूल्य का ठीक-ठीक आकलन, भूमि पर किसानों का स्वामित्व आदि बातों की जाँच के लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु बैंकों के पास ऐसे विशेषज्ञों की कमी है।

(10) भूमि हस्तान्तरण में वैधानिक कठिनाइयाँ- किसानों से ऋण की वसूली न होने पर बैंकों के लिए किसानों की भूमि जब्त करना आसान नहीं होता क्योंकि इस सम्बन्ध में बैंकों को अनेक वैधानिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस कारण इन बैंकों की पर्याप्त पूँजी फँस जाती है।

(11) सहकारिता के सिद्धान्तों का पालन नहीं- इन बैंकों के सदस्य सहकारी भावना से काम नहीं करते। कई बार तो ये बैंक राजनीति का अखाड़ा बन जाते हैं।

(12) असन्तुलित विकास- गुजरात, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र को छोड़कर अन्य राज्यों में इन बैंकों ने कोई विशेष प्रगति नहीं की है।

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Anjali Yadav

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