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भारत में सहकारी आन्दोलन का ऐतिहासिक विवेचन (Historical Study of Co-operative Movement in India)
भारत में सहकारी आन्दोलन का प्रादुर्भाव (Origin of Co-operative Movement in India)
भारत में सहकारी आन्दोलन का जन्म 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुई आर्थिक उथल-पुथल का परिणाम था औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था एकदम छिन्न-भिन्न हो गई और कान्ति के कई भयंकर परिणाम सामने आए। औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप मशीनों द्वारा निर्मित माल की स्पर्धा में ग्रामीण उद्योग-धन्धे टिक नहीं सके और उनका पतन हो गया जिससे बेकारी फैलती गई। बेरोजगार लोगों ने खेती का आश्रय लिया तो भूमि पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता गया उत्तराधिकार के नियमों के कारण खेत छोटे होते चले गए। मध्यस्थों द्वारा किए जाने वाले शोषण के कारण किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता था। किसानों को बार-बार महाजनों से अत्यधिक ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेने पड़ते थे। लगान का भुगतान उपज के बजाय मुद्रा में किया जाने लगा था जिससे किसानों के कष्ट और भी बढ़ गए थे। पंचायतों का अन्त हो जाने से ग्रामवासियों में बेईमानी तथा धोखेबाजी की बुराइयों बढ़ रही थी औद्योगिक क्रान्ति के कारण भारतीय समाज धनी तथा निर्धन इन दो वर्गों में बढ़ता जा रहा था।
किसानों की दुर्दशा तथा महाजनों के बढ़ते हुए प्रभाव की ओर अंग्रेजी सरकार का ध्यान गया। सरकार ने किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ नियम भी बनाए किन्तु उनका कोई प्रभाव नहीं हुआ सन् 1879 में दक्षिण कृषक रिलीफ अधिनियम बना जिससे भूमि को गैर-कृपकों के हाथों में जाने से रोक दिया गया। सन् 1883 में भूमि सुधार तथा ऋण अधिनियम बना और सन् 1884 में कृषक ऋण अधिनियम पारित किया गया जिसका उद्देश्य अकाल पीड़ित क्षेत्रों में कृषि कार्यों के लिए साख-सुविधाएँ प्रदान करना था। सर फ्रेडरिक निकलसन ने सन् 1895-97 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में सहकारी समितियों की स्थापना की सिफारिश की तथा सहकारी साख की रेफीसन पद्धति को लागू करने पर बल दिया। उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा मद्रास में सहकारी समितियों की स्थापना के लिए प्रयास किए गए। मद्रास में निधि संस्थाएँ अपने सदस्यों की आर्थिक सहायता कर रही थीं। सन् 1900 में ऐसी 200 संस्थाएँ थीं पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में एडवर्ड मैकलेगन और डुपरनैक्स ने सहकारी आधार पर समितियों की स्थापना के प्रयास किए।
प्रथम चरण- उन्हीं दिनों देश में भयंकर अकाल पड़े। आयोग ने गाँवों में सहकारी साख समितियों की स्थापना पर बल दिया। तभी छुपरनैक्स ने “उत्तरी भारत में जनता बैंक नामक योजना प्रस्तुत की। सन् 1901 में श्री एडवर्ड लॉ की अध्यक्षता में गठित समिति ने भी सहकारी साख समितियों के गठन को देशभर के लिए लाभदायक बताया। सन् 1903 में एक विधेयक पारित किया गया जिसने सन् 1904 में सहकारी साख समिति अधिनियम का रूप धारण कर लिया। इस प्रकार भारत में सहकारी आन्दोलन जर्मनी की भाँति जनता को ऋणग्रस्तता से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया। सन 1904 के सहकारी साख समिति अधिनियम को भारत के सहकारी आन्दोलन का प्रथम चरण माना जाता है।
सन् 1904 के सहकारी साख समिति अधिनियम की मुख्य बातें
(1) उद्देश्य- किसी एक गाँव कस्बे या ग्राम-समूह के कोई भी 10 व्यक्ति सहकारी समिति बना सकते हैं। समिति का मुख्य उद्देश्य आत्म-सहायता तथा मितव्ययिता की भावना उत्पन्न करना होगा।
(2) मुख्य कार्य- समिति का सर्वप्रथम कार्य निक्षेप (deposits) और ऋण प्राप्त करना तथा ऋण प्रदान कराना होगा। समिति सदस्यों, गैर-सदस्यों और सरकार से ऋण अथवा निक्षेप (जमाऐं) प्राप्त करेंगी। समिति के द्वारा समिति के सदस्य और अन्य सहकारी संस्थाएँ ऋण प्राप्त कर सकती हैं।
(3) ग्रामीण और शहरी समितियों में अन्तर- (1) यदि समितियों में 8096 सदस्यता किसानों की होगी तो उसे ग्रामीण साख सहकारी समिति’ कहा जायेगा। (ii) यदि समिति की सदस्यता का 8096 गैर-किसान होंगे तो उन्हें ‘शहरी साख समिति’ कहा जायेगा।
(4) निरीक्षण एवं अंकेक्षण- सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी सहकारी साख समितियों के निरीक्षण (Inspection) एवं उकिक्षण (auditing) का कार्य करेंगे समितियाँ सरकारी अधिकारियों के लिये कोई शुल्क नहीं देंगी।
(5) सहकारी समितियों का प्रवन्ध- यह कार्य एक विशेष अधिकारी अर्थात् पंजीयक (registrar) के द्वारा किया जायेगा।
(6) दायित्व- ग्रामीण समितियों के सदस्यों का दायित्व असीमित और समितियों का दायित्व सीमित रखा जाए। यदि शहरी समितियाँ चाहें तो वे भी असीमित दायित्व रख सकती हैं।
(7) ऋण नीति- समितियों अपने सदस्यों को उनकी व्यक्तिगत जमानत पर ऋण देंगी। गैर-सदस्यों को ऋण नहीं दिया। जायेगा। सम्पत्ति आदि के बन्धक रखने पर ऋण देने में कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा।
(8) सुरक्षित कोष तथा लाभ विभाजन- ग्रामीण सहकारी समितियों के लाभ को सदस्यों में न बाँटकर एक सुरक्षित कोष में जमा किया जाएगा। परन्तु इसकी एक वैधानिक सीमा होगी, जिससे अधिक सुरक्षित कोप हो जाने पर अतिरिक्त राशि को बोनस के रूप में सदस्यों में बाँट दिया जाएगा। शहरी साख समितियों के लिए यह व्यवस्था की गई कि वे अपनी वार्षिक लाभांश-राशि का एक चौधाई भाग सुरक्षित कोष में रखकर शेष को अंशधारियों में बाँट देंगी।
(9) कानूनी रियायतें– सहकारी समितियों आय कर, पंजीयन शुल्क, स्टाम्प कर आदि से मुक्त रखी गई थी। सदस्यों के सहकारी समितियों में अंशों को किसी भी अन्य प्रकार के ऋणों के लिए जब्त नहीं किया जाएगा।
(10) निजी हितों पर प्रतिबन्ध– समिति के कार्यों में किसी व्यक्ति विशेष के प्रभाव को स्थान नहीं दिया जाएगा। समिति की पूंजी में किसी सदस्य का निजी हित नहीं होगा। इसके अतिरिक्त, सदस्य को दिए गए ऋण का उसकी हिस्सा पूंजी से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं होगा।
सन् 1904 के अधिनियम के बाद ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सहकारी साख समितियों की स्थापना की गई। सन् 1906-07 में समितियों की संख्या 843 थी, जो सन् 1911-12 तक बढ़कर 8.177 हो गई थी। सन् 1906-07 में समितियों की सदस्य संख्या 90,844 और कार्यशील पूँजी 24 लाख र थी जो 1911-12 में बढ़कर क्रमशः 4.03,318 और 3,035 करोड़ ₹ हो गई थी। परन्तु इस अधिनियम में कुछ दोष रह गए थे, जैसे- (1) अधिनियम में गैर-साख समितियों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया था, (2) ग्रामीण और शहरी साख समितियों में असुविधाजनक और अवैज्ञानिक भेद किया गया था। [3] ग्रामीण सदस्यों के लिए असीमित दायित्व भी कठोर या नामांश वितरण पर प्रतिबन्ध भी अनुचित था।
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