कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

भारत में सहकारी खेती को सफल बनाने के लिए सुझाव

भारत में सहकारी खेती को सफल बनाने के लिए सुझाव
भारत में सहकारी खेती को सफल बनाने के लिए सुझाव

भारत में सहकारी खेती को सफल बनाने के लिए सुझाव

भारत में सहकारी कृषि आन्दोलन को सफल बनाने के लिए समय-समय पर विभिन्न विद्वानों, विशेषज्ञों एवं समितियों ने विभिन्न सुझाव दिए हैं जिनमें से प्रमुख सुझाव निम्न है—

(1) सहकारी-कृषि समितियों वाले गाँवों में पहले चकबन्दी की जाए।

(2) चकबन्दी करते समय सहकारी खेती के लिए तत्पर किसानों को एक चक में भूमि दी जाए।

(3) वित्त, तकनीकी सहायता, विपणन आदि में सहकारी-कृषि तमितियों को प्राथमिकता दी जाए।

(4) सरकार द्वारा सुधारी गई भूमि को पट्टे पर देने में सहकारी-कृषि समितियों को प्राथमिकता दी जाए। जोतों की सीमा-निर्धारण के फलस्वरूप जो अतिरिक्त भूमि प्राप्त हो, उसे सहकारी-कृषि समितियों की ही दिया जाए।

(5) सहकारी कृषि-व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन के लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाए। इसके लिए देश के विभिन्न भागों में सहकारी प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किए जाएँ।

(6) सहकारी-कृषि कार्यक्रम बनाते समय स्थानीय परिस्थितियों एवं दशाओं को ध्यान में रखा जाए तथा प्रचार एवं प्रदर्शन का सहारा लिया जाए।

(7) कृषि कार्य न करने वाले भूस्वामियों को समितियों का सदस्य न बनाया जाए।

(8) जब तक देश में सहकारी संयुक्त कृषि की सफलता की अधिक सम्भावना नहीं है तब तक सहकारी उच्चतर कृषि समितियाँ ही स्थापित की जाएँ।

(9) समितियों का गठन पूर्णतया स्वेच्छा के आधार पर किया जाए तथा सदस्यों को इच्छानुसार समिति से पृथक् होने की स्वतन्त्रता दी जाए।

(10) सदस्यों को भूमि पर प्रतिफल वास्तविक लाभ में से दिया जाए।

(11) समितियों का प्रबन्ध जनतन्त्रीय होना चाहिए।

(12) विभिन्न स्तरों पर सहकारी कृषि समितियों के संघ बनाए जाएँ।

(13) केन्द्र तथा राज्यों में राष्ट्रीय सहकारी कृषि परामर्शदात्री परिषदों की स्थापना की जाए।

(14) पाँच वर्ष से पहले भूमि वापस लेने की अनुमति सदस्यों को विशेष दशाओं में ही दी जाए।

(15) सहकारी खेती को अपनाकर सम्भावित बेकार व्यक्तियों के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों का विकास किया जाए।

(ब) सहकारी विपणन समितियाँ (Co-operative Marketing Societies)- इस प्रकार की समितियाँ कृषि उपज के विपणन के लिए बनायी जाती हैं। अनेक कृषक इन समितियों के सदस्य बन जाते हैं तथा अपनी उपज को समिति के माध्यम से बेचते हैं। विपणन समितियों अपने सदस्यों की उपज को इकट्ठा कर लेती हैं, फिर उसे ग्रेड में विभाजित करती हैं। उसके बाद उपसमितियाँ उपज को शहरों में ले जाकर उचित कीमत पर बेचती हैं।

लाभ- सहकारी विपणन के प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं–(1) उत्पादकों तथा किसानों को लाभ-सहकारी विपणन समितियों से किसान कई प्रकार से लाभान्वित होते हैं- (i) किसानों को अपनी उपज बेचने में बड़ी सुविधा हो जाती है। उनकी उपज लगातार विकती रहती है तथा उन्हें अच्छे दाम मिलते हैं। (ii) मध्यस्थों की अनुचित कार्यवाहियों से किसानों को छुटकारा मिल जाता है। (iii) किसानों को अपने ही प्रयत्नों से अपनी आर्थिक दशा सुधारने की शिक्षा मिलती है। (iv) विपणन समितियों में शामिल होकर किसानों को इस बात का आभास हो जाता है कि कृषि केवल जीवनयापन का ढंग ही नहीं बल्कि लाभदायक व्यवसाय भी है। (2) उपभोक्ताओं को लाभ-व्यापारियों से वस्तुएँ खरीदने पर उपभोक्ताओं को कई प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती हैं, जैसे अधिक कीमत पर वस्तुएँ प्राप्त होना, वस्तुओं में मिलावट होना, तोल या नाप में कम वस्तु मिलना आदि। किन्तु सहकारी समितियाँ उचित कीमत, सही तील, अच्छी किस्म, उत्तम सेवा आदि आदर्शों में विश्वास करती हैं। अतः उपभोक्ता सहकारी विपणन समितियों पर बिना संकोच के विश्वास कर सकते हैं। (3) समाज को लाभ-(1) सहकारी व्यवस्था नैतिकता पर आधारित होती है। वह धन की अपेक्षा मानवता को अधिक महत्त्व देने की शिक्षा देती है। (II) उत्पादन की किस्म को सुधारने का प्रयास किया जाता है। (III) उपभोक्ता को उत्तम वस्तु उत्पादक को उचित कीमत तथा देश को अधिक राष्ट्रीय आय मिलती है। (iv) सरकार को भी करों से अधिक आय प्राप्त होती है।

सहकारी विपणन समितियों का संघटन

सहकारी विपणन समितयों को निम्न चार भागों में बाँटा गया है-

(1) प्राथमिक सहकारी विपणन समितियाँ- ऐसी समितियाँ ग्राम-स्तर पर कार्य करती हैं तथा ये दो प्रकार की होती है–(1) प्राथमिक उत्पादन तथा विक्रय कृषि सहकारी समितियाँ (11) प्राथमिक क्रय-विक्रय कृषि सहकारी समितियाँ। ये समितियाँ सभी नियमित मण्डियों में कार्य कर रही है। इस समय देश में लगभग 6,000 प्राथमिक विपणन समितियाँ कार्यरत हैं।

(ii) जिला या क्षेत्रीय विपणन समितियाँ- ये प्राथमिक सहकारी विपणन समितियों के संघ (federation) होते हैं। ये संघ कृषि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने के अलावा प्राथमिक सहकारी विपणन समितियों को साख प्रदान करते हैं। इस समय देश में जिला स्तर पर 160 केन्द्रीय विपणन समितियाँ हैं जो देश की सभी महत्त्वपूर्ण मण्डियों में कार्यरत हैं।

(iii) राज्य विपणन संघ- ऐसे संघ राज्य स्तर पर कार्य करते हैं ये कृषि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने के अतिरिक्त प्राथमिक विपणन समितियों तथा जिला विपणन समितियों को साख प्रदान करते हैं। इस समय देश में 29 राज्य विपणन संघ कार्य कर रहे हैं।

(iv) राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ- यह राष्ट्रीय स्तर पर सहकारी विपणन की शीर्ष संस्था (Apex Institution) है जिसकी स्थापना सन् 1964 में की गई थी। इस संघ का प्रमुख कार्य सहकारिता के माध्यम से कृषि के उत्पादन, विधायन, विपणन, भण्डारण तथा निर्यात को प्रोत्साहित करना है।

(स) चकबन्दी समितियाँ (Consolidation Societies)

ये समितियाँ भूमि की चकबन्दी करने के इच्छुक व्यक्तियों द्वारा बनाई जाती हैं। ये समितियाँ उप-विभाजित एवं विखण्डित भूमि के टुकड़ों को मिलाकर एक बड़ा चक बना लेती हैं और फिर उसमें से प्रत्येक कृषक को एक ही स्थान पर उतनी ही भूमि खेती करने के लिए देती हैं जितनी प्रत्येक कृषक के पास चकबन्दी से पहले थी। इससे भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों के स्थान पर बड़े-बड़े फार्मों पर खेती होने लगती है जिससे कृषि कार्य में धन, समय एवं शक्ति की बचत होती है तथा भूमि पर स्वायी सुधार सम्भव हो जाते हैं।

(द) सिंचाई समितियाँ (Irrigation Societies) कृषि के लिए सिंचाई व्यवस्था के सम्बन्ध में सिंचाई सहकारी समितियों ने प्रशंसनीय कार्य किए हैं। इन समितियों ने देश के विभिन्न राज्यों में सदस्य कृषकों को कुआँ खोदने, छोटे-छोटे बाँध बनाने, बिजली के कुएँ लगवाने आदि कार्यों के लिए ऋण दिए हैं। कृषक ही इस प्रकार की समितियों के सदस्य होते हैं। समितियों को कार्यशील पूँजी, प्रवेश शुल्क जमाएँ, ऋण तथा अनुदान से प्राप्त होती हैं। लाभ का 24% भाग रक्षित कोष (reserve) में जमा करके शेष लाभ को सदस्यों में उनके दिए गए सिंचाई-शुल्क के आधार पर बाँट दिया जाता है।

(य) कृषि वस्तुएँ सम्मरण समितियाँ- कृषकों को कृषि कार्य के लिए उन्नत औजारों, बीजों, उर्वरकों, कीटाणुनाशक औषधियों आदि की आवश्यकता होती है। अधिकांश राज्यों में इन वस्तुओं की पूर्ति के लिए पृथक् से समितियों नहीं हैं। प्रायः कृषि समितियों ही इन कार्यों को करती है। देश में सहकारी समितियों ने किसानों की सहायता हेतु कृषि के लिए आवश्यक सामान के उत्पादन तथा वितरण में उल्लेखनीय भूमिका अदा की है। देश में वितरित कुल उर्वरक का लगभग 47% भाग सहकारी वितरण प्रणाली द्वारा बेचा जाता है। महाराष्ट्र राज्य में कृषि सम्बन्धी सामग्री की पूर्ति के लिए पृथक् से सम्भरण समितियाँ (Supply Societies) कार्य कर रही हैं।

(र) अच्छा जीवन स्तर समितियाँ— ये समितियाँ अपने सदस्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने, उनकी नैतिक, आध्यात्मिक एवं शारीरिक दशा में सुधार करने, मितव्ययिता को प्रोत्साहित करने, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों के अवसर के जपव्यय को रोकने, स्वास्थ्य तथा रोग निवारण की शिक्षा देने तथा उनमें आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान की भावना जागृत करने के लिए बनाई जाती हैं। इस प्रकार की समितियों महाराष्ट्र व बंगाल में ही सफल हुई हैं, अन्य राज्यों में इन्हें सफलता नहीं मिली है।

(स) दूध व पशुपालन समितियाँ- ये समितियाँ पशुओं की नस्ल सुधारने, उनकी बीमारी एवं रोगों की रोकथाम करने तथा उत्तम सांतों की व्यवस्था करने का कार्य करती हैं। इस प्रकार की समितियों ने पंजाब व तमिलनाडु में अधिक प्रगति की है। भारत में दूध सम्मरण सहकारी समितियाँ भी हैं। ये समितियाँ ग्रामों से दूध इकट्ठा करके उसे शहरों में उचित मूल्य पर बेचती हैं। ये समितियाँ दूध को शुद्ध करने एवं उसे बोतलों में भरने का भी कार्य करती हैं। तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में इन समितियों ने अच्छी प्रगति की है।

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Anjali Yadav

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