Contents
मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity Theory of Wages)
मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त एक प्राचीन सिद्धान्त है। इसका प्रतिपादन सर्वप्रथम सन् 1833 में जर्मन अर्थशास्त्री प्रो० वॉन धूनन (Von Thunen) ने किया था। तत्पश्चात् इसका प्रतिपादन बालरस, जेवन्स तथा जे०बी० क्लार्क ने किया।
व्याख्या (Explanation)-इस सिद्धान्त के अनुसार पूर्ण प्रतियोगिता तथा दीर्घकाल में श्रमिक की मजदूरी उसकी सीमान्त उत्पादकता के आधार पर तय होती है जिस प्रकार किसी उपभोक्ता के लिए वस्तु की मांग उसके सीमान्त तुष्टिगुण पर निर्भर करती है उसी प्रकार उत्पादकों द्वारा श्रमिकों की माँग उनको सीमान्त उत्पादकता पर निर्भर करती है। थॉमस के अनुसार, “किसी निश्चित समय में मालिकों तथा श्रमिकों में रोजगार की प्रतियोगिता के कारण मजदूरी दर उन श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता के बराबर निर्धारित होती है जिन्हें मालिक नौकरी देने को तैयार हैं।
सीमान्त आय उत्पादकता का अर्थ- सीमान्त आय उत्पादकता से तात्पर्य कुल आय में होने वाले उस परिवर्तन (वृद्धि या कमी) से है जो उत्पादन के अन्य साधनों को स्थिर रखते हुए एक श्रमिक के बढ़ाने या घटाने से होता है। मान लीजिए किसी फर्म में 10 श्रमिकों के कार्य करने से कुल आय 3.000 रु० की होती है। ग्यारहवें श्रमिक को कार्य पर लगाने से कुल आप बढ़कर 3,250 रु० हो जाती है। स्यारहवें श्रमिक की सीमान्त आय उत्पादकता रू० 260 (3,260-3,000 = 260 रु०) होगी। कोई मालिक श्रमिक को उसकी सीमान्त उत्पादकता से अधिक मजदूरी नहीं देगा अन्यथा उसे हानि होगी।
डूली (Dooley) के अनुसार, श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता, एक श्रमिक को अधिक लगाने से, कुल आय में होने बाला परिवर्तन है जबकि अन्य साधन स्थिर रहते हैं।
जब किसी उत्पादन कार्य में जन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रमिकों को उत्तरोत्तर बढ़ाया जाता है तो उत्पत्ति हास नियम के लागू होने के कारण प्रति श्रमिक उत्पादन घटता है। उत्पादक द्वारा श्रमिकों को उस सीमा तक बढ़ाया जाता है जहाँ पर श्रमिक को दी जाने वाली मजदूरी उसके द्वारा कुल उत्पादन में की जाने वाली वृद्धि के बराबर हो जाती है। दूसरे शब्दों में, सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार कोई उद्योग दीर्घकाल तथा पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में श्रमिकों को उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर मजदूरी देगा एक फर्म उद्योग द्वारा निर्धारित मजदूरी के आधार पर यह तय करेगी कि उसे कितने श्रमिकों को रोजगार पर लगाना है। कोई फर्म दीर्घकाल में श्रमिकों की उस संख्या को रोजगार प्रदान करेगी जिस पर श्रमिकों की सीमान्त उत्पादकता, औसत उत्पादकता, सीमान्त मजदूरी तथा ओसत मजदूरी एक दूसरे के बराबर हो जाती हैं।
सिद्धान्त की मान्यताएं (Assumptions)
मजदूरी का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित है-
(1) समान कुशलता—सभी श्रमिक समान रूप से कुशल हैं।
(2) पूर्ण प्रतियोगिता-वस्तु बाजार तथा साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पाई जाती है।
(3) प्रतिफल हास नियम-श्रम की सीमान्त उत्पादकता पर घटते प्रतिफल का नियम लागू होता है।
(4) दीर्घकाल- यह सिद्धान्त दीर्घकाल में लागू होता है।
(5) पूर्ण रोजगार- अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति पाई जाती है।
(6) स्थिर उत्पादन-तकनीक उत्पादन की तकनीक स्थिर रहती है।
(7) स्थिर श्रम-पूर्ति श्रमिकों की पूर्ति स्थिर रहती है।
(8) श्रमिकों की पूर्ण गतिशीलता-श्रम की इकाइयों पूर्णतया गतिशील (perfectly mobile) है जिस कारण एक ही प्रकार के कार्य के लिए मजदूरी विभिन्न स्थानों पर समान होगी।
आलोचना (Criticism)-मजदूरी के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त में निम्नलिखित दोष निकाले गए हैं-
(1) एकपक्षीय सिद्धान्त-इस सिद्धान्त में केवल श्रम की माँग को महत्त्व दिया गया है तथा श्रम की पूर्ति को स्थिर मान लिया गया है। वास्तविक जीवन में श्रमिकों की पूर्ति स्थिर नहीं रहती तथा श्रमिकों की पूर्ति का भी मजदूरी निर्धारण पर प्रभाव पड़ता है।
(2) पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक अवधारणा- यह सिद्धान्त पूर्ण प्रतियोगिता की अवास्तविक मान्यता पर आधारित है। वास्तविक जीवन में अपूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति पाई जाती है।
(3) सीमान्त उत्पादकता के माप में कठिनाई- किसी वस्तु का उत्पादन कई साधनों के संयोग का परिणाम होता है। अतः एक अतिरिक्त श्रमिक को लगाने से कुल उत्पादन में कितनी वृद्धि होगी यह मापना सम्भव नहीं है।
(4) उत्पादकता को प्रभावित करने वाले अन्य तत्त्वों की उपेक्षा- यह सिद्धान्त मशीनों, कारखाने का वातावरण, उद्यमी व प्रवन्धक की योग्यता आदि घटकों के श्रम की सीमान्त उत्पादकता पर पड़ने वाले प्रभावों पर कोई ध्यान नहीं देता।
(5) रोजगार पर अनेक तत्वों का प्रभाव-इस सिद्धान्त के अनुसार गजदूरी की ऊँची दर पर फर्म कम श्रमिकों को रोजगार प्रदान करेगी। किन्तु वास्तव में कोई फर्म श्रमिकों को काम पर लगाते समय लाभ की मात्रा, चस्तु की माँग, समय पर उत्पादन आदि बातों को भी ध्यान में रखती है। इसलिए अधिक मजदूरी पर श्रमिकों की मांग बढ़ सकती है।
(6) एक अतिरिक्त श्रमिक बढ़ाना सदैव संभव नहीं- अन्य साधनों में परिवर्तन किए बिना श्रमिकों की संख्या में एक श्रमिक की वृद्धि करना सदैव संभव नहीं होता क्योंकि यदि उत्पादन का प्राविधिक गुणांक (technical coefficient) स्थिर हो तो इस प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है।
(7) मजदूरी सदैव सीमान्त उत्पादकता के बराबर नहीं होती-व्यवहार में सेवायोजक श्रमिकों की आर्थिक दुर्बलता तथा संगठन की कमी का लाभ उठाकर उन्हें उनकी सीमान्त उत्पादकता से कम मजदूरी देते हैं। इसके विपरीत, कभी-कभी श्रमिक भी संगठित होकर तथा अपनी माँगे मनवाकर सीमान्त उत्पादकता से अधिक मजदूरी प्राप्त कर लेते हैं।
(8) अवास्तविक मान्यताएँ- इस सिद्धान्त के अनुसार- (i) सभी श्रमिक समान रूप से कार्यकुशल होते हैं, (ii) श्रमिक पूर्णतया गतिशील होते हैं, (iii) सभी स्थानों में उत्पादित वस्तु की कीमत समान रहती है, (iv) ब्याज तथा किराए की दरें निश्चित तथा स्थिर रहती हैं इत्यादि। किन्तु आलोचकों के अनुसार उक्त सभी मान्यताएँ अवास्तविक है क्योंकि वास्तव में दशाओं में परिवर्तन होता रहता है। स्थान तथा व्यवसाय की मित्रता के कारण मजदूरी की दरों में परिवर्तन होते रहते हैं।
(9) अव्यावहारिक सिद्धान्त- अनेक कार्यों में श्रम तथा अन्य साधनों की एक निश्चित अनुपात में ही लगाया जाता है। इसके विपरीत, कई कार्यों में एक श्रमिक को काम से हटाने पर काम बिल्कुल बन्द हो सकता है। अतः ऐसी अवस्थाओं में सीमान्त उत्पादकता का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
IMPORTANT LINK
- मार्शल की परिभाषा की आलोचना (Criticism of Marshall’s Definition)
- अर्थशास्त्र की परिभाषाएँ एवं उनके वर्ग
- रॉबिन्स की परिभाषा की विशेषताएँ (Characteristics of Robbins’ Definition)
- रॉबिन्स की परिभाषा की आलोचना (Criticism of Robbins’ Definition)
- धन सम्बन्धी परिभाषाएँ की आलोचना Criticism
- अर्थशास्त्र की परिभाषाएँ Definitions of Economics
- आर्थिक तथा अनार्थिक क्रियाओं में भेद
- अर्थशास्त्र क्या है What is Economics
Disclaimer