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मांग का नियम (Law of Demand)
नियम की व्याख्या (Explanation)- किसी वस्तु की कीमत तथा उसकी मांगी गई मात्रा के सम्बन्ध को प्रकट करने वाले नियम को मांग का नियम‘ कहते हैं। यह नियम बताता है कि यदि अन्य बातें समान रहें तो, किसी वस्तु की कीमत के बढ़ने पर उसकी माँग कम हो जाती है तथा कीमत के घटने पर उसकी मांग बढ़ जाती है। नियम की कुछ परिभाषाएँ नीचे प्रस्तुत है-
परिभाषाएँ (Definitions)—(1) थॉमस (Thomas) के शब्दों में, “अन्य बातों के समान रहने पर, किसी वस्तु या सेवा की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा कीमत में कमी होने पर उसकी माँग में वृद्धि हो जाती है।
(2) मार्शल (Marshall) के अनुसार, कीमत के घटने से मांग बढ़ती है तथा कीमत के बढ़ने से माँग कम होता है।
संक्षेप में, मांग के नियम के अनुसार किसी वस्तु की कीमत तथा मांग में विपरीत सम्बन्ध (inverse relation) होता है, अर्थात् कीमत तथा मांग दोनों विपरीत दिशा में चलते हैं। यदि कीमत घटती है तो माँग बढ़ती है जबकि कीमत के बढ़ने पर मांग घटती है। (मॉग के नियम को मांग-अनुसूची तथा मांग वक्र द्वारा समझाया गया है।)
मांग तथा कीमत में आनुपातिक सम्बन्ध नहीं- यह नियम कीमत तथा मांग के मध्य किसी प्रकार के आनुपातिक सम्बन्ध को नहीं बताता, यह तो केवल प्रवृत्ति का द्योतक है। यदि किसी वस्तु का मूल्य चढ़कर दो गुना हो जाता है तो यह आवश्यक नहीं है कि वस्तु की माँग घटकर आधी रह जाए मांग का नियम तो केवल इस प्रवृत्ति को प्रकट करता है कि वस्तु की कीमत में कमी होने पर मांग में वृद्धि हो जाती है तथा कीमत में वृद्धि होने पर मांग में कमी हो जाती है, किन्तु नियम यह स्पष्ट नहीं करता कि यह परिवर्तन किस अनुपात या मात्रा में होता है।
एकपक्षीय नियम- माँग का नियम एकपक्षीय है। यह केवल कीमत में परिवर्तन के मांग पर पड़ने वाले प्रभाव की व्याख्या करता है। मांग में होने वाले परिवर्तन का कीमत पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसकी व्याख्या यह नियम नहीं करता।
नियम की मान्यताएँ (Assumptions)-माँग के नियम की व्याख्या में, ‘अन्य बातें समान रहें’ (other things remaining the same) वाक्यांश का प्रयोग किया जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि नियम में कुछ तत्त्वों को स्थिर मान लिया गया है जिन्हें नियम की मान्यताएँ (assumptions) कहा जाता है। नियम की प्रमुख मान्यताएं निम्नांकित हैं-
(1) क्रेताओं की आय में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(2) क्रेताओं के स्वभाव तथा रुचि में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(3) वस्तु की कीमत में भविष्य में परिवर्तन होने की सम्भावना नहीं होनी चाहिए।
(4) सम्बन्धित वस्तुओं (पूरकच स्थानापत्र वस्तुओं) की कीमतों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(5) मुद्रा की मात्रा स्थिर होनी चाहिए।
(6) जनसंख्या में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(7) समाज में धन का वितरण समान रहना चाहिए।
(8) वस्तु ऐसी न हो जिसको रखने या उसका प्रयोग करने से लोगों को समाज में प्रतिष्ठा मिलती हो, अर्थात् वस्तु सामान्य (normal) होनी चाहिए।
(9) जलवायु तथा मौसम में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(10) वस्तु के उपभोक्ताओं की संख्या में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
(11) वस्तु की सभी इकाइयाँ आकार तथा गुण में समान होनी चाहिए।
(12) देश की परिस्थितियाँ सामान्य (normal) होनी चाहिए, अर्थात् युद्ध, मन्दी, तेजी आदि की स्थिति नहीं होनी चाहिए।
माँग के नियम के लागू होने के कारण
माँग का नियम लागू होने अथवा माँग वक्र के नीचे दाई ओर झुकने के मुख्य कारण निम्नांकित हैं-
(1) घटते सीमान्त तुष्टिगुण का नियम (Law of Diminishing Marginal Utility) — यह नियम हमें बताता है कि जैसे-जैसे हमारे पास किसी वस्तु की मात्रा बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उस वस्तु से मिलने वाला सीमान्त-तुष्टिगुण घटता जाता है। कोई उपभोक्ता किसी वस्तु की कीमत उसके सीमान्त-तुष्टिगुण से अधिक देने को तैयार नहीं होता। वह किसी वस्तु को उतनी ही मात्रा खरीदेगा जिससे वस्तु की कीमत तथा सीमान्त तुष्टिगुण बराबर हो जाएँ (P= Mu) चूँकि कोई उपभोक्ता किसी वस्तु की जितनी अधिक मात्रा खरीदता है उसका सीमान्त तुष्टिगुण उतना ही घटता जाता है, इसलिए कोई उपभोक्ता वस्तु की अधिक इकाइयाँ तभी खरीदेगा जबकि उसकी कीमत कम हो जाएगी। इसी कारण कम कीमत पर वस्तु की अधिक माँग तथा अधिक कीमत पर कम मांग की जाती है।
(2) प्रतिस्थापन प्रभाव (Substitution Effect)-सम्बन्धित वस्तुओं जैसे चाय व कॉफी में से किसी एक वस्तु (जैसे चाय) की कीमत कम होने पर उपभोक्ता कॉफी के स्थान पर चाय की जितनी अधिक मात्रा खरीदेंगे उसे ‘प्रतिस्थापन प्रभाव कहते हैं। जब किसी वस्तु की कीमत, स्थानापन्न वस्तु की तुलना में कम हो जाती है तो उसका अधिक प्रतिस्थापन किया जाता है। दूसरे शब्दों में, प्रतिस्थापन प्रभाव के कारण कम कीमत वाली वस्तु की अधिक माँग तथा अधिक कीमत वाली वस्तु की कम माँग की जाएगी।
(3) जाय प्रभाव (Income Effect)–एक वस्तु की कीमत में परिवर्तन का उपभोक्ता की वास्तविक आय (real income) पर जो प्रभाव पड़ता है उसे ‘आय-प्रभाव कहते हैं। किसी वस्तु की कीमत में कमी होने पर उपभोक्ता की वास्तविक आय बढ़ जाती है क्योंकि अब यह उतनी ही धनराशि से उस वस्तु की अधिक इकाइयों खरीद सकता है। इस आय-प्रभाव के कारण वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत, कीमत के बढ़ने पर वास्तविक आय में कमी होने के कारण वस्तु की माँग घट जाती है।
(4) क्रेताओं की संख्या में परिवर्तन-जब किसी वस्तु की कीमत घट जाती है तो कुछ ऐसे उपभोक्ता भी उस वस्तु को खरीदने लगते हैं जो कीमत के अधिक होने के कारण उस वस्तु को खरीद नहीं पा रहे थे। परिणामतः बस्तु की मांग में वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत, जब किसी वस्तु की कीमत बढ़ जाती है तब अनेक उपभोक्ता उस वस्तु को खरीदने में असमर्थ हो जाते है जिस कारण वे वस्तु का उपभोग कम या बन्द कर देते हैं जिससे वस्तु की माँग कम हो जाती है।
(5) वस्तु के विभिन्न प्रयोग- कुछ वस्तुओं के विभिन्न प्रयोग होते हैं, जैसे बिजली, दूध, आलू आदि। ऐसी वस्तुओं की के कीमत बढ़ने पर उनका प्रयोग केवल महत्त्वपूर्ण कार्यों में किया जाता है जिससे उनकी माँग घट जाती है। इसके विपरीत, ऐसी वस्तुओं की कीमत के घटने पर उनका प्रयोग कम महत्त्वपूर्ण कार्यों में भी किया जाने लगता है जिससे ऐसी वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है। उदाहरणार्थ, यदि बिजली की प्रति यूनिट कीमत कम हो जाती है तो लोग बिजली का प्रयोग हीटर जलाने, पानी गर्म करने, कपड़े धोने की मशीन चलाने आदि कार्यों में भी करने लगेंगे। इसके विपरीत, बिजली के महंगे हो जाने पर लोग बिजली का प्रयोग मुख्यतया रोशनी करने तथा पंखा चलाने में ही करेंगे।
नियम के अपवाद (Exceptions)-अर्थशास्त्रियों ने कुछ ऐसे उदाहरण दिए हैं जबकि माँग का नियम कार्यशील नहीं हो पाता। इन्हें नियम के अपवाद कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, कुछ परिस्थितियों में कुछ वस्तुओं की कीमतों के बढ़ने पर उनकी मांग बढ़ जाती है तथा कीमतों के घटने पर उनकी मांग भी घट जाती है। मांग के नियम के इस प्रकार के कुछ प्रमुख अपवाद निम्नांकित हैं-
(1) भविष्य में कीमत में कमी या वृद्धि की आशंका- जब भविष्य में किसी वस्तु की कीमत के बढ़ने की सम्भावना होती है तो वर्तमान में वस्तु की कीमत के स्थिर रहने या उसमें थोड़ी वृद्धि हो जाने पर भी उसकी माँग बढ़ जाती है। प्राय: युद्ध-काल में ऐसी स्थिति काफी देखी जाती है। ऐसी अवस्था में मांग का नियम लागू नहीं होता।
(2) उपभोक्ताओं की अज्ञानता- कई बार उपभोक्ता अज्ञानता तथा अम के कारण यह समझते हैं कि महंगी वस्तुएँ श्रेष्ठ तथा सस्ती वस्तुएँ निम्न कोटि की होती है। ऐसी स्थिति में उपभोक्ता कम कीमत पर वस्तुओं को घटिया समझकर नहीं खरीदते जबकि अधिक कीमत पर उन्हें बढ़िया समझकर खरीदते है।
(3) शान-शौकत तथा दिखावे की वस्तुएँ- हीरे-जवाहरात आदि वस्तुएँ सामाजिक सम्मान तथा शान-शौकत दिखाने की आवश्यकता की पूर्ति करती हैं। ऐसी वस्तुएं महंगी होती है तथा पनी व्यक्ति इन्हें इसलिए खरीदते हैं क्योंकि ऐसी वस्तुओं के उपभोग से समाज में उनकी शान-शीकत तथा प्रतिष्ठा बढ़ती है। जब ऐसी वस्तुओं की कीमत बढ़ जाती है तो इनकी माँग में वृद्धि के स्थान पर कमी हो जाती है क्योंकि सस्ती हो जाने पर ऐसी वस्तुओं को खरीदने में पहले जैसी ज्ञान नहीं रहती।
(4) अनिवार्य वस्तुएँ- प्रायः अनिवार्य-वस्तुओं की मांग मूल्य-निरपेक्ष (inelastic) होती है जिस कारण ऐसी वस्तुओं की कीमत में वृद्धि होने पर भी इनकी माँग में कभी नहीं होती, जैसे आटा, गेहूँ, चावल, नमक आदि की माँग।
(5) फैशन में परिवर्तन- जब किसी वस्तु विशेष का फैशन अत्यधिक बढ़ जाता है तो उस वस्तु के अपने पास न होने पर लोग हीनता का अनुभव करने लगते हैं। ऐसी अवस्था में उस वस्तु की कीमत में वृद्धि हो जाने पर भी लोग उसे पहले से अधिक मात्रा में खरीदते हैं इसके विपरीत, जब किसी वस्तु का फैशन नहीं रहता तो उसकी कीमत में कमी हो जाने पर भी उसकी माँग घट जाती है।
(6) वस्तुओं के दुर्लभ होने की सम्भावना- यदि भविष्य में किसी वस्तु की पूर्ति के कम होने की आशंका है तो उपभोक्ता वर्तमान में उस वस्तु की कीमत के बढ़ने पर भी उसे अधिक मात्रा में खरीदकर उसका संग्रह करने लगते हैं। उदाहरणार्थ, युद्ध-कात, अकाल, आपातकाल आदि की स्थिति में लीग चीनी, तेल, खाधात्र, चाय आदि का संग्रह करने लगते हैं।
(7) गिफ्फन पदार्थ (Giffen’s Goods)-सर राबर्ट गिफ्फन (Robert Giffen) के अनुसार निम्न कोटि की वस्तुओं (inferior goods) पर यह नियम लागू नहीं होता। निम्न कोटि की वस्तुएं, जिन्हें ‘गिफ्फन पदार्थ’ भी कहा जाता है, ये वस्तुएँ हैं जिनकी उपभोक्ता आप के बढ़ने पर कम मांग करते हैं तथा आब के कम होने पर अधिक माँग करते हैं। इसके अतिरिक्त, निम्न कोटि की वस्तुओं की कीमतों के घटने पर इनकी मांग बढ़ने के बजाय घट जाती है। उदाहरणार्थ, ज्यार, बाजरा आदि मोटे अनाज तथा वनस्पति घी को घटिया वस्तुएँ माना जाता है। कीमत कम होने से उपभोक्ता की वास्तविक आय बढ़ जाती है जिसका प्रयोग बह गेहूँ, चावल आदि उत्तम अनाज खरीदने में कर सकता है। इससे मोटे अनाज की माँग कम हो जाएगी।
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