मुन्शी प्रेमचन्द की कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। इस उक्ति के प्रकाश में मुंशी जी की कहानियों की समीक्षा कीजिए।
हिन्दी कथा- साहित्य में प्रेमचन्द भाव एवं कला दोनों ही दृष्टि से निपुण हैं। बीसवीं शताब्दी के साहित्य क्षेत्र में प्रेमचन्द जैसा प्रतिभा सम्पन्न कलाकार अन्यत्र दुर्लभ रहा। विशेष रूप से उपन्यास एवं कहानी के क्षेत्र में उनका आविर्भाव एक ऐतिहासिक घटना रहा जिस कारण उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ की संज्ञा मिली। अपनी लेखनी की पैनी नोक से जन भाषा में ही मर्म को बेधने वाले उस कलाकार ने समस्त जनजीवन का जो सजीव चित्रण किया और तत्कालीन समाज को एक सूत्र में पिरोने का जो अद्भुत कार्य किया वह उनकी कलम की विशेषता का प्रतीक है। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से क्षतविक्षत समाज की कड़ियों को प्रेमभाव से जोड़ने का कार्य किया। प्रेमचन्द जी की कहानियों में सुधारवादी विचार केवल उसी युग के लिए ही नहीं, प्रत्येक युग के लिए उपयोगी है।
प्रेमचन्द ने मानद जीवन, मानव समाज दोनों की व्याख्या आदर्श और यथार्थ के समन्वय रूप में की है। साहित्य, मनोरंजन का साधन तो हैं नहीं, उसका आधार जीवन है, जिसकी नींव पर साहित्य की दीवारें खड़ी हैं। करुण साहित्यकार का पद कहीं ऊँचा है, यह हमारा पथ-प्रदर्शक होता है। वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है। इसमें सद्भाव का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है। जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उनकी हिमायत और वकालत करना उनका (साहित्यकार) फर्ज है। उन्हें अमंगल यथार्थ अग्राहा है और मंगलमय यथार्थ संग्रीहणीय है। वह साहित्य को निर्माणात्मक दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए ‘कला में के लिए’ प्रेमचन्द की कहानियों में मूल चेतना-बिन्दु कोई सामाजिक आदर्श है जो यथार्थ तनावों के भीतर से गुजरता हुआ स्थापित होना चाहता है। इनकी यात्रा यथार्थ की है और समापन आदर्श में हैं। प्रेमचन्द को समकालीन यथार्थ की गहन पकड़ थी, इनकी कहानियाँ समकालीन जीवन यथार्थ की गहरी पहचान से उद्भूत हैं। इन्होंने अपने समय के संक्रमण को गहराई से पहचाना।
प्रेमचन्द की कहानियाँ इन्हीं समकालीन सत्यों से निर्मित हैं जिनका दर्शन आज के परिवेश में किया जा सकता है। आज की समस्त जीवन विषमताओं के मूल में आर्थिक विषमता है, वह आर्थिक विषमता अपने दबाव से हमारे समस्त भावात्मक सम्बन्धों और मूल्यों को बुरी तरह आहत कर रही है। यह विषमता एक ओर सम्पन्न वर्गों में एक नये तरह का अभिजात्य अहंकार ‘ईदगाह’, ‘नमक का दरोगा’, ‘मंत्र’ आदि सभी कहानियों में परिवार और समाज के व्यक्तियों और वर्गों के भावात्मक और मानवीय सम्बन्धों को आहत कर एक सुविधावादी भौतिक सम्बन्ध निर्मित करने का काम करता है।
सन् 1920 और 30 तक की कहानियों में प्रेमचन्द एक जागरूक संत हैं। ‘माता का हृदय’, ‘वज्रपात’, ‘शंखनाद’, ‘सेवामार्ग’, ‘आत्माराम’, ‘सवासेर गेहूँ’, ‘शतरंज के खिलाड़ी आदि कहानियों में सामाजिक विषमता और अंधविश्वास एवं अंधश्रद्धा का लाभ उठाने वाले तथाकथित धर्मात्माओं पर कड़ा व्यंग्य है।
इसके बाद की कहानी
यात्रा प्रेमचन्द की विकासोन्मुख रचना-प्रक्रिया की चरम परिणति है, जिसमें सच्ची मनुष्यता है, जिसमें स्वयं के प्रति स्वयं के मरण धर्माव्यक्तित्व के प्रति अटूट विश्वासों के साथ व्यवस्था का भी सामाजिक दबावों के प्रति नकार और विद्रोह की भावना है। ‘बूढ़ी काकी’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘नशा’, ‘ईदगाह’ आदि कहानियाँ इस पड़ाव की एक बाजू है तो ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘नशा’ आदि दूसरी बाजू। पारिवारिक मूल्यों की कद्र करने के लिए बड़े की इज्जत की जाती है, लेकिन यह मुखौटा अन्त में गल जाता है। झूठा बड़प्पन हार जाता है। प्रेमचन्द की कहानियां जागरूकता, मानवीयता, समानता, रूढ़िहीनता, अंधविश्वासहीनता आदि को विकसित करने वाली है।
अन्त में प्रेमचन्द उस रचना भूमि पर खड़े हैं, जहाँ प्रासंगिकता युगबोध में और युगबोध विश्वबोध में रूपांतरित होकर कला और मानव मुक्ति के प्रयोजनों को समान आधार मिल जाता है। शायद यह वही बिन्दु है, जहाँ से समकालीन कथा लेखक प्रेमचन्द से अपन विरासत का दावा कर सकता है। अतः प्रेमचन्द की कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं, इसको हम वर्तमान समाज को देखकर पता लगा सकते हैं।
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