कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

वस्तु-विनिमय प्रणाली के लाभ (Advantages of Barter System)

वस्तु-विनिमय प्रणाली के लाभ (Advantages of Barter System)
वस्तु-विनिमय प्रणाली के लाभ (Advantages of Barter System)

वस्तु-विनिमय प्रणाली के लाभ (Advantages of Barter System)

इस प्रणाली के प्रमुख लाभ निम्नांकित —

(1) सरल प्रणाली- यह प्रणाली अत्यन्त सरल है क्योंकि एक व्यक्ति आसानी से अपनी चस्तु दूसरे व्यक्ति को देकर उससे अपने काम की वस्तु प्राप्त कर लेता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत हिसाब-किताब रखने की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही इसमें मौद्रिक प्रणाली की जटिलताएँ नहीं पाई जातीं।

(2) पारस्परिक सम्पर्क में वृद्धि-वस्तुओं की अदला-बदली के लिए लोग आपस में मिलते हैं जिससे उनमें पारस्परिक सम्पर्क तथा मेल-जोल बढ़ता है।

(3) दोनों पक्षों को लाभ-वस्तु-विनिमय से दोनों पक्षों की तुष्टिगुण (utility) का लाभ होता है, क्योंकि दोनों पक्ष अपनी कम आवश्यक वस्तुओं को एक-दूसरे को देकर कहीं अधिक उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त कर लेते हैं। परिणामतः दोनों पक्षों को अधिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है।

(4) कार्यकुशलता में वृद्धि-वस्तु विनिमय-प्रणाली के अन्तर्गत सरल श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी एक वस्तु के उत्पादन में विशेष योग्यता प्राप्त कर लेता है। इससे एक तो उसकी कार्यकुशलता में वृद्धि होती है; दूसरे, कार्यकुशलता में वृद्धि से अच्छी किस्म की वस्तुओं का उत्पादन होता है।

(5) धन का केन्द्रीयकरण न हो पाना-वस्तु विनिमय-प्रणाली में धन का कुछ ही हाथों में केन्द्रीयकरण (Centralisation) नहीं हो पाता। वस्तुओं का उत्पादन छोटे पैमाने पर किया जाता है जिस कारण कोई भी व्यक्ति अधिक मात्रा में धन इकट्ठा नहीं कर पाता। वस्तुएँ नाशवान होती है जिस कारण उन्हें दीर्घकाल तक संग्रह करके नहीं रखा जा सकता।

(6) माँग तथा पूर्ति में सन्तुलन-इस प्रणाली के अन्तर्गत लोग वस्तुओं का उत्पादन या तो अपने उपभोग के लिए करते हैं या उनके बदले में अन्य उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए करते हैं। इसलिए वस्तुओं की उतनी ही पूर्ति की जाती है जितनी उनकी माँग होती है। परिणामतः अति-उत्पादन (over-production) तथा न्यून-उत्पादन (under-production) जैसी गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न नहीं हो पाती।

(7) मुद्रा प्रणाली की बुराइयों का अभाव- “मुद्रा” ने मुद्रा-प्रसार (inflation), मुद्रा-संकुचन (deflation) तथा धन का असमान वितरण जैसी गम्भीर बुराइयों को जन्म दिया है किन्तु वस्तु विनिमय प्रणाली इन सब दोषों से मुक्त रहती है।

(8) वर्ग-संघर्ष का अभाव-चूँकि वस्तु-विनिमय में धन के असमान वितरण की समस्या नहीं होती इसलिए समाज में वर्ग संघर्ष नहीं होता क्योंकि लोग धनी तथा निर्धन जैसे वर्गों में बँटे हुए नहीं होते।

(9) विदेशी व्यापार में सुविधा-अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए वस्तु विनिमय व्यवस्था अधिक सुविधाजनक रहती है। इसके अन्तर्गत विदेशी विनिमय दर के निर्धारण तथा भुगतान शेष के सन्तुलन से सम्बन्धित जटिल समस्याएं उत्पन्न नहीं होतीं। विश्व के कई राष्ट्र जब भी वस्तु-विनिमय-प्रणाली के आधार पर ही परस्पर व्यापार करते हैं, जैसे गत वर्षों में भारत तथा रूस ने कई व्यापारिक सौदे वस्तु-विनिमय के आधार पर किए हैं।

वस्तु-विनिमय-प्रणाली के दोष या कठिनाइयाँ (Evils or Difficulties of Barter System)

इस प्रणाली की प्रमुख कठिनाइयों अथवा दोष निम्नलिखित है-

(1) आवश्यकताओं के दोहरे संयोग का अभाव (Lack of Double Coincidence of Wants) वस्तु-विनिमय-प्रणाली के अन्तर्गत प्रत्येक को अपनी फालतू वस्तु को बेचने के लिए ऐसे व्यक्ति की खोज करनी पड़ती है जिसे उसके द्वारा दी जाने वाली वस्तु की आवश्यकता हो तथा जिसके पास देने के लिए वह वस्तु हो जिसकी कि प्रथम व्यक्ति को आवश्यकता है। उदाहरणार्थ, यदि किसी व्यक्ति के पास चावल है और वह उनके बदले में कम्बल चाहता है तो उसे ऐसे व्यक्ति की खोज करनी पड़ेगी जो उससे चायत लेकर उसे कम्बल दे सके। प्रायः आवश्यकताओं का यह दोहरा संयोग अत्यन्त कठिन होता था, और जैसे-जैसे मानवीय आवश्यकताओं में वृद्धि होती गई वैसे-वैसे यह कठिनाई अधिकाधिक अनुभव की जाने लगी।

जी० एन० हॉम के अनुसार, “एक आधुनिक अर्थव्यवस्था में, जिसमें एक ही दिन में लाखों व्यक्ति लाखों वस्तुओं का विनिमय करते हैं, यह लगभग असम्भव है कि वस्तु-विनिमय करने वाले सभी व्यक्तियों की सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली वस्तुओं की श्रेणी, गुण, मात्रा और मूल्य के सम्बन्ध में संयोग स्थापित हो जाए। “

(2) वस्तुओं की अविभाज्यता (Indivisibility of Commodities)-विनिमय की जाने वाली वस्तुओं में कुछ ऐसी होती हैं, जिन्हें छोटी-छोटी इकाइयों (टुकड़ों में बाटना सम्भव नहीं होता और यदि उनका विभाजन कर दिया जाए तो उनकी उपयोगिता कम या समाप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ, यदि किसी व्यक्ति के पास भैंस है जिसके बदले वह गेहूँ, कपड़ा व जूता लेना चहता है तो उसके लिए यह अत्यन्त कठिन होगा कि वह किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ निकाले जो उसकी भैंस के बदले उसे गेहूँ, कपड़ा व जूता इन तीनी वस्तुओं को दे सके। यदि भैंस के टुकड़े करके विभिन्न व्यक्तियों से तीन वस्तुएँ प्राप्त की जाएँ तो मैंस की उपयोगिता ही समाप्त हो जायेगी।

(3) सामान्य मूल्य मापक का अभाव (Lack of Common Measure of Value) वस्तु विनिमय व्यवस्था में कोई ऐसा सर्वमान्य मापदण्ड नहीं होता जिसकी सहायता से वस्तुओं के मूल्य के अनुपात को निर्धारित किया जा सके, अर्थात् कोई ऐसा मापदण्ड नहीं होता जिसके द्वारा यह तय किया जा सके कि किसी वस्तु के बदले में अन्य वस्तु या वस्तुओं की कितनी मात्रा ली या दी जायेगी।

(4) मूल्य संचय का अभाव (Lack of Store of Value)- आजकल तो मुद्रा के रूप में ‘क्रय-शक्ति’ या वन का संचय कर लिया जाता है किन्तु वस्तु विनिमय व्यवस्था में धन का संचय केवल वस्तुओं के रूप में ही सम्भव होता है। इस सम्बन्ध में कई कठिनाइयाँ सामने आती है- (1) वस्तुओं के नाशवान होने के कारण उन्हें सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। (ii) वस्तुओं को रखने के लिए काफी स्थान की आवश्यकता पड़ती है। (iii) अनेक वस्तुओं के मूल्यों में निरन्तर कमी होती जाती है। अतः वस्तुओं के रूप में बचत करने में सदैव हानि की सम्भावना रहती है। (iv) बचत के अभाव में पूंजी निर्माण (Capital Formation) नहीं हो पाता जिस कारण देश का आर्थिक विकास नहीं किया जा सकता।

(5) मूल्य हस्तान्तरण की समस्या (Problem of Transfer of Value) वस्तु विनिमय प्रणाली में अचल सम्पत्तियों के मूल्य के हस्तान्तरण में बहुत अधिक कठिनाई आती है। जब कोई व्यक्ति एक स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान में जाकर बसना चाहता है तो उसे अपनी सम्पत्ति को छोड़कर ही जाना पड़ता है क्योंकि उसे अपनी भूमि, मकान आदि के बदले में समुचित मात्रा में उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त करना कठिन होता है।

(6) स्वामित भुगतानों में कटिनाई (Difficulty in Deferred Payments)- ‘स्थगित भुगतान’ से तात्पर्य वस्तुओं तथा सेवाओं के उधार लेन-देन से है। वस्तु-विनिमय प्रणाली में उधार लेन-देन सम्भव नहीं । उधार (ऋण) वस्तुओं के रूप में लिया जायेगा और वस्तुओं के रूप में ही उसका भुगतान करना होगा। किन्तु वस्तुओं के मूल्यों में स्थिरता तथा टिकाऊपन के गुण नहीं होते जिस कारण वे स्थगित भुगतानों के लिए उपयोगी नहीं होती। वर्तमान में यह बताना एकदम कठिन होता है कि भविष्य में किसी वस्तु का कितना मूल्य होगा। फिर यह निश्चित करना कठिन होता है कि उधार ली गई वस्तुओं पर ब्याज दर कितनी होगी।

(7) सेवाओं के विनिमय में कठिनाई (Difficulty in Exchange of Services) वस्तु विनिमय-व्यवस्था में सेवाओं के परस्पर विनिमय में तो और भी अधिक कठिनाई आती है। नाई, अध्यापक, डॉक्टर, वकील आदि की सेवाओं का परस्पर विनिमय किस आधार पर किया जाए, यह तय करना लगभग असम्भव होता है।

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Anjali Yadav

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