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वितरण का आधुनिक सिद्धान्त या माँग और पूर्ति का सिद्धान्त (Modern Theory of Distribution or Demand and Supply Theory)
वितरण के आधुनिक सिद्धान्त के अनुसार, जिस प्रकार वस्तु बाजार में किसी वस्तु की कीमत उसकी माँग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है, ठीक उसी प्रकार साधन बाजार में किसी साधन की कीमत (पारिश्रमिक) उसकी मांग और पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में साधन-कीमत का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर किसी साधन की माँग तथा पूर्ति एक दूसरे के बराबर हो जाती हैं। इसलिए वितरण के आधुनिक सिद्धान्त को ‘साधन-कीमत निर्धारण का माँग तथा पूर्ति सिद्धान्त’ भी कहते हैं।
सिद्धान्त की व्याख्या–वितरण के आधुनिक सिद्धान्त के दो पक्ष हैं-(1) साधनों की माँग, तथा (iii) साधनों की पूर्ति इस सिद्धान्त का भली-भाँति अध्ययन करने के लिए इन दोनों पक्षों (sides) पर दृष्टिपात करना आवश्यक है।
उत्पादन के साधनों की माँग (Demand for Factors of Production)
उत्पादन के साधनों की माँग प्रत्यक्ष न होकर व्युत्पन्न माँग (derived demand) होती है; अर्थात् उत्पादन साधनों की माँग उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं की माँग पर निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, किसी कपड़े के कारखाने में श्रमिकों की माँग उनके द्वारा तैयार कपड़े की माँग पर निर्भर करेगी। कपड़े की मांग के अधिक होने पर श्रमिकों की मांग भी अधिक होगी। इसके विपरीत, कपड़े की माँग के कम होने पर श्रमिकों की मांग भी कम होगी। इसके अतिरिक्त, उत्पादन के साधनों की माँग ‘संयुक्त माँग’ (Joint demand) भी होती है।
एक उत्पादक वस्तु का उत्पादन लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से करता है। अतः वह साधनों को लगाते समय उनकी उत्पादकता को ध्यान में रखता है। यह किसी साधन जैसे श्रम की अधिक से अधिक इकाइयाँ उस समय तक लगायेगा जब तक उसकी सीमान्त जाय उत्पादकता (MRP) तथा सीमान्त कीमत (मजदूरी) बराबर नहीं हो जाती, अर्थात् MRP MR वास्तव में साधन का MRP वक्र ही साधन का माँग-वक्र होता है। यह वक बाएँ से दाएँ नीचे की ओर झुकता है।
बाजार में साधनों की कीमत उनकी कुल मांग तथा कुल पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। एक उद्योग की विभिन्न फर्मों के माँग-वाहों को जोड़कर उद्योग का मौग-यक्र ज्ञात किया जा सकता है किसी साधन की कुल मांग के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि ऊंची कीमत पर साधन की कम माँग तथा कम कीमत पर साधन की अधिक मांग की जाती है।
साधन-माँग को प्रभावित करने वाले घटक (Factors Affecting Factor-Demand) किसी साधन की माँग को मुख्य रूप से निम्नलिखित घटक प्रभावित करते हैं-
(1) वस्तु की माँग-किसी साधन की माँग व्युत्पन्न मांग होती है। अतः किसी साधन की माँग उसके द्वारा उत्पादित वस्तु या सेवा की माँग पर निर्भर करती है, अर्थात् वस्तु की मांग के घटने-बढ़ने के साथ-साथ साधन-विशेष की मांग में कमी या वृद्धि हो जाती है।
(2) साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता- किसी साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता’ (MPP) में वृद्धि होने पर उसकी मांग भी बढ़ जाती है। किसी साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता में वृद्धि कई प्रकार से हो सकती है-(1) साधन के गुण में वृद्धि करके, जैसे श्रमिकों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करके उनकी कार्यकुशलता बढ़ायी जा सकती है, (ii) सहयोगी साधनों की मात्रा एवं गुण में वृद्धि करके, जैसे घिसे-पिटे यन्त्रों के स्थान पर नए यन्त्रों का प्रयोग करना, (iii) तकनीकी प्रगति के कारण साधनों की सीमान्त भौतिक उत्पादकता में वृद्धि।
(3) अन्य साधनों की कीमतें- अन्य साधनों को दिए जाने वाले पुरस्कार का भी साधन-विशेष की माँग पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ, मशीनों के महंगे होने पर उत्पादक मशीनों के स्थान पर श्रमिकों की अधिक माँग करेंगे।
उत्पादन के साधनों की पूर्ति (Supply of Factors of Production)
उत्पादन के किसी साधन की पूर्ति से अभिप्राय यह है कि एक निश्चित कीमत पर उस साधन की कितनी इकाइयाँ बाजार में बिकने के लिए उपलब्ध होती है। वस्तुओं से सम्बन्धित पूर्ति के नियम से ज्ञात होता है कि किसी वस्तु की कीमत के बढ़ने पर उसकी पूर्ति बढ़ती है तथा कीमत के कम होने पर उसकी कम पूर्ति की जाती है। किन्तु उत्पादन के सभी साधनों पर पूर्ति का नियम हर अवस्था में लागू नहीं होता। उत्पादन के विभिन्न साधनों की पूर्ति भिन्न-भिन्न तत्वों पर निर्भर करती है। अतः उत्पादन के साधनों की पूर्ति को प्रभावित करने वाले घटकों का अध्ययन आवश्यक है।
(1) भूमि की पूर्ति (Supply of Land) एक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भूमि की पूर्ति पूर्णतया बेलोचदार (perfectly inelastic) होती है, अर्थात् भूमि की पूर्ति में कोई वृद्धि नहीं की जा सकती। अर्थव्यवस्था के लिए भूमि की पूर्ति निःशुल्क होती है, उसकी कोई उत्पादन लागत नहीं होती। किन्तु एक उद्योग की दृष्टि से भूमि की पूर्ति उसकी अवसर लागत (opportunity cost) पर निर्भर करती है। यदि किसी उद्योग विशेष में भूमि की पूर्ति की अवसर लागत बढ़ जाती है तो दूसरे उद्योगों के स्थान पर भूमि का उस उद्योग में अधिक प्रयोग किया जाने लगेगा। अतः एक उद्योग लिए भूमि का पूर्ति वक्र नीचे से ऊपर उठता हुआ होगा, अर्थात् कीमत के बढ़ने पर भूमि की पूर्ति बढ़ेगी जबकि कीमत के घटने पर भूमि की पूर्ति कम होगी। एक फर्म के लिए भूमि की पूर्ति पूर्णतया लोचदार (perfectly elastic) होती है, इसका अर्थ यह हुआ कि उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत पर फर्म कितनी ही भूमि का प्रयोग कर सकती है।
(2) श्रम की पूर्ति ( Supply of Labour) श्रम की पूर्ति से यह आशय है कि एक निश्चित मजदूरी दर श्रमिक कितने घण्टे के लिए अपना श्रम बेचने के लिए तैयार है। सामान्यतः यह देखा गया है कि एक सीमा तक मजदूरी पर एक की कीमत) के बढ़ने पर श्रम की पूर्ति बढ़ती है। किन्तु मजदूरी वृद्धि की एक निश्चित सीमा के बाद श्रम की पूर्ति कम होने लगती है क्योंकि श्रमिक काम के स्थान पर आराम (leisure) अधिक पसन्द करने लगते हैं। इसलिए श्रमिकों का पूर्ति-वक्र पीछे की ओर मुड़ा हुआ (backward slopping) होता है।
(3) पूंजी की पूर्ति (Supply of Capital)—पूंजी की कीमत को ‘व्याज’ (interest) कहते हैं। पूंजी की पूर्ति व्याज दर के साथ-साथ लोगों की बचत करने की शक्ति, इच्छा तथा सुविधाओं पर निर्भर करती है। परम्परावादी अर्थशास्त्रियों का विचार था कि ब्याज दर बढ़ने पर बचत की मात्रा बढ़ती है तथा व्याज दर घटने पर बचत की मात्रा कम होगी। अतः पूंजी का पूर्ति-वक्र नीचे से ऊपर की ओर उठता हुआ होगा।
(4) उद्यमी की पूर्ति (Supply of Entrepreneurs) उद्यमी की पूर्ति तथा उसकी कीमत (अर्थात् लाभ) में कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं होता। फिर उद्यमी की पूर्ति लाभ के अतिरिक्त बहुत-से अनार्थिक तत्त्वों (Non-economic Factors) पर भी निर्भर करती है।
संक्षेप में, साधनों की पूर्ति के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता। किन्तु आर्थिक विश्लेषण की सरलता की दृष्टि से यह मान लिया जाता है कि साधनों के पूर्ति-वक्र का ढाल धनात्मक (positive) होता है। दूसरे शब्दों में, साधनों की ऊंची कीमत पर उनकी अधिक पूर्ति तथा कम कीमत पर कम पूर्ति की जाती है।
साधन की पूर्ति को प्रभावित करने वाले तत्त्व— किसी साधन की पूर्ति को प्रभावित करने वाले प्रमुख तत्व इस प्रकार है- (1) साधन का पारिश्रमिक (या कीमत), (ii) साधनों की गतिशीलता, (iii) साधन की तथा प्रशिक्षण, (iv) साधन की कुशलता तथा (v) साधन की परिवहन लागत।
साधन-कीमत (पारिश्रमिक) का निर्धारण (Determination of Factor-Price or Remuneration)- किसी साधन की कीमत का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर साधन की माँग तथा पूर्ति एक-दूसरे के बराबर हो जाते हैं।
संक्षेप में, किसी साधन की कीमत उसकी माँग तथा पूर्ति के सन्तुलन बिन्दु पर निर्धारित होती है। साधन की पूर्ति के स्थिर रहने पर माँग में वृद्धि होने पर साधन-कीमत बढ़ती है, जबकि माँग के कम होने पर साधन-कीमत भी कम हो जाती है। इसके विपरीत, साधन की माँग के स्थिर रहने पर सामान्यतः साधन की पूर्ति के बढ़ने पर साधन-कीमत कम हो जाती है और पूर्ति के कम होने पर साधन कीमत बढ़ जाती है। साधनों की पूर्ति पर उनकी अवसर लागत का प्रभाव पड़ता है।
सिद्धान्त की मान्यताएँ (Assumptions)–वितरण का आधुनिक सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित है-
(1) साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति पायी जाती है।
(2) साधन की सभी इकाइयों गुण व मात्रा की दृष्टि से समरूप होती हैं।
(3) उत्पादन का प्रत्येक साधन छोटी-छोटी इकाइयों में पूर्णतया विभाज्य (divisible) होता है।
(4) उत्पादन के साधन पूर्णतया गतिशील (mobile) होते हैं।
(5) वस्तु के उत्पादन में उत्पादन हास नियम लागू होता है।
सिद्धान्त की श्रेष्ठता- वितरण (सावन-कीमत निर्धारण) का आधुनिक सिद्धान्त निम्नलिखित कारणों से सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त से श्रेष्ठ है-
(1) आधुनिक सिद्धान्त साधन कीमत निर्धारण’ के दोनों पहलुओं (माग च पूर्ति) का अध्ययन करता है जबकि सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त साधनों के केवल मांग-पक्ष पर ध्यान देता है।
(2) आधुनिक सिद्धान्त द्वारा उत्पादन के सभी साधनों के कीमत निर्धारण की व्याख्या की जाती है।
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