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वितरण किनके बीच होता है ?
प्रश्न उठता है संयुक्त उत्पादन का वितरण किनके बीच होता है इसका उत्तर बड़ा आसान है। शुद्ध संयुक्त उत्पादन (Net Joint Product) का वितरण उन उपादानों के बीच होता है जो कि उत्पादन कार्य में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। हम जानते हैं कि धनोत्पादन में पाँच उपादान भाग लेते हैं-भूमि, श्रम, पूंजी, संगठन तथा उद्यम अतः संयुक्त शुद्ध उत्पाद का वितरण इन्हीं पाँच उपादानों के बीच किया जाता है। भूमिपतियों को भूमि के सम्भरण (supply) के बदले लगान (rent) मिलता है। श्रमिकों को उनके श्रम के बदले मजदूरी (wages) मिलती है, पूंजीपतियों को उनकी पूंजी पर ब्याज (interest) मिलता है, संगठनकर्ताओं को उनके द्वारा किए गए संगठन कार्य के बदले वेतन (salary) मिलता है तथा उद्यमी को व्यवसाय की जोखिम उठाने के बदले लाभ (profit) मिलता है। इस प्रकार ‘राष्ट्रीय निवल उत्पादन का वितरण भूमिपतियों, श्रमिकों, पूँजीपतियों, संगठनकर्त्ताओं तथा उद्यमियों के मध्य क्रमशः लगान, मजदूरी, ब्याज, बेतन तथा लाभ के रूप में किया जाता है।
यह आवश्यक नहीं है कि उत्पादन में पांचों उपादान मित्र-भिन्न व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा प्रदान किए जाएं बल्कि कई बार उत्पादन के दो या दो से अधिक उपादान एक ही व्यक्ति (या संस्था) द्वारा प्रदान किए जाते हैं। ऐसी अवस्था में वह प्रत्येक उपादान के लिए पृथक्-पृथक् पारिश्रमिक प्राप्त करता है।
वितरण का क्रम क्या होता है ?
किसी वस्तु का उत्पादन-कार्य उद्यमी अपनी सूझ-बूझ से प्रारम्भ करता है। उद्यमी उत्पादन के विभिन्न उपादानों को जुटाता है तथा उनके साधकों (agents) से उनके पारिश्रमिक की दर या मात्रा के सम्बन्ध में अनुवन्ध (contract) करता है। उसके बाद उद्यमी वस्तु के उत्पादन की मात्रा निश्चित करता है तथा जैसे-जैसे उत्पादन होता जाता है वैसे-वैसे वह उपादानों के साधकों (भूमिपति, श्रमिक, पूंजीपति आदि) को अनुवन्ध के अनुसार उनके पारिश्रमिक का भुगतान करता जाता है। निवल उत्पाद (Net Product) में से भूमिपति, श्रमिक, पूंजीपति तथा संगठनकर्त्ताओं को उनके पारिश्रमिक का भुगतान करने के बाद जो शेष रहता है वह उद्यमी का लाभ होता है। किन्तु यदि ‘निचल उत्पाद अन्य उपादानों पर व्यय की गई धनराशि से कम होता है तो ऐसी स्थिति में उद्यमी को हानि उठानी पड़ती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि उद्यमी को छोड़कर उत्पादन के अन्य उपादानों का पारिश्रमिक उत्पादन कार्य के प्रारम्भ होने से पहले ही निश्चित कर लिया जाता है। उद्यमी को लाभ प्राप्त हो या न हो किन्तु उसे लगान, मजदूरी, ब्याज तथा वेतन का भुगतान अवश्य करना पड़ता है।
प्रत्येक उपादान का भाग किस प्रकार निश्चित किया जाता है ?
प्रश्न उठता है—निवल उत्पादन में से उत्पादन के प्रत्येक उपादान का हिस्सा किस प्रकार निर्धारित किया जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद पाया जाता है। विभिन्न उपादानों में पारिश्रमिक के निर्धारण के सम्बन्ध में दो प्रमुख सिद्धान्त प्रतिपादित किए गए हैं- (1) वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त, तथा (2) वितरण का आधुनिक सिद्धान्त।
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity Theory of Distribution)
‘सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त’ वितरण का सबसे पुराना, महत्त्वपूर्ण एवं सामान्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1826 में जर्मन अर्थशास्त्री टी० एच० वॉन यूनन (T. H. Von Thunen) ने किया था। बाद में इसका विकास कार्ल मेजर, वालरस, विकस्टीड, ऐजवर्ध, जेवन्स, जे० बी० क्लार्क, मार्शल, जे० आर० हिक्स आदि अर्थशास्त्रियों ने किया।
सिद्धान्त की व्याख्या (Explanation)—सीमान्त उत्पादकता के अनुसार, पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत दीर्घकाल में उत्पादन के साधनों की सेवाओं का पारिश्रमिक उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर निर्धारित होता है। साधनों की मांग इसलिए की जाती है क्योंकि उनमें वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करने की योग्यता (क्षमता) होती है। किसी साधन की वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन करने की योग्यता ही उसकी ‘उत्पादकता’ (productivity) कहलाती है।
अल्पकाल में तो किसी साधन का पारिश्रमिक उसकी सीमान्त उत्पादकता से कम या अधिक हो सकता है किन्तु दीर्घकाल में यह उसके सीमान्त उत्पादन के बराबर ही होता है। यदि किसी साधन का पारिश्रमिक उसके सीमान्त उत्पादन से कम है तो उधमी (उत्पादक) को लाभ होगा। वह ऐसे साधन की मात्रा को तब तक बढ़ायेगा जब तक कि उसकी कीमत (पारिश्रमिक) सीमान्त उत्पादन के बराबर नहीं हो जाती। इसके विपरीत, यदि किसी साधन का पारिश्रमिक उसके सीमान्त उत्पादन से अधिक है तो उद्यमी को हानि होगी। प्रत्येक उद्यमी (उत्पादक) का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। अतः एक विवेकशील उद्यमी तब तक उत्पादक के साधनों को काम पर लगायेगा जब तक कि उनकी सीमान्त उत्पादकता उनको दिए जाने वाले पुरस्कार के बराबर नहीं हो जाती। दूसरे शब्दों में कोई उद्यमी उत्पादन के किसी साधन को अधिक से अधिक उसके सीमान्त उत्पादन के बराबर पारिश्रमिक देगा।
परिभाषाएँ (Definitions)-(1) प्रो० ब्लाग के अनुसार, “सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार सन्तुलन की अवस्था में उत्पादन के प्रत्येक साधन को उसकी सीमान्त उत्पादकता के अनुसार पुरस्कार दिया जायेगा।
(2) प्रो० लिभाफास्की के विचार में, “आय वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त के अनुसार दीर्घकाल में, पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में उत्पादन के साधनों की प्रवृत्ति सीमान्त उत्पादकता के बराबर वास्तविक आय प्राप्त करने की होगी।
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