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विद्यालय से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय की भूमिका

विद्यालय से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय की भूमिका
विद्यालय से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय की भूमिका

विद्यालय से आप क्या समझते हैं ? शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय की भूमिका की विवेचना कीजिए। 

विद्यालय का अर्थ (Meaning of School)

लीच ने विद्यालय के यूनानी अर्थों का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है “वाद-विवाद या वार्ता के स्थान जहाँ एथेन्स के युवक अपने अवकाश के समय को खेल-कूद, व्यायाम और युद्ध के प्रशिक्षण में व्यतीत करते थे, धीरे-धीरे दर्शन और उच्च कलाओं के स्कूलों में बदल गये। एकेडेमी के सुन्दर उद्यानों में व्यतीत किये जाने वाले अवकाश के माध्यम से विद्यालय का विकास हुआ।”

विद्यालय शिक्षा का सक्रिय साधन है। नियमित शिक्षा विद्यालय के अभाव में नहीं दी जा सकती। विद्यालय का औपचारिक साधन होने के विषय में जॉन डीवी का विचार है “बिना औपचारिक साधनों के इस जटिल समाज में साधन और सिद्धियों को हस्तान्तरित करना सम्भव नहीं है। यह एक ऐसे अनुभव की प्राप्ति का द्वार खोलता है जिसको बालक दूसरों के साथ रहकर अनौपचारिक शिक्षा के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकते।”

ए० के० सी० ओटावे (A. K. C. Ottaway) के शब्दों में, “विद्यालय समाज के युवकों को विशेष प्रकार की शिक्षा देने वाले सामाजिक आविष्कार के रूप में समझे जा सकते हैं।”

The school may be regarded as a social invention to serve society for the specialized teaching of young.

औपचारिक साधन से जीवन में जटिलता समाप्त हो जाती है और जीवन की कठिनाइयाँ उचित प्रणालियों से समाप्त होने लगती हैं। विद्यालय का स्वरूप प्राचीन ग्रीक तथा एथेन्स में जो भी रहा हो, परन्तु आज वह आमोद-प्रमोद के केन्द्र के रूप में नहीं, अपितु जीवन के निर्माण स्थल के रूप में किया जाता है। स्कूल शब्द लैटिन का है और इसका अर्थ है विश्राम स्थल तब का यह विश्राम स्थल आज समाज की प्रगति का केन्द्र है।

विद्यालय की परिभाषा (Definition of School)

विद्यालय को परिभाषित करने के लिए निम्नलिखित विद्वानों की परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं-

(1) जॉन डीवी (John Dewey)- “विद्यालय का ऐसा वातावरण है जहाँ जीवन के कुछ गुणों और विशिष्ट क्रियाओं एवं व्यवसायों की शिक्षा बालक के निहित विकास के लिए दी जाती है।”

(2) टी० पी० नन (T. P. Nunn)- “विद्यालयों को प्रमुख रूप से ज्ञान देने वाले स्थान के रूप में नहीं, अपितु उस स्थान के रूप में समझा जाना चाहिये जहाँ बालकों का विकास होता है और वे क्रियायें विस्तृत संसार में अत्यधिक महत्त्व की होती हैं।”

(3) रॉस (Ross)- “विद्यालय वे संस्थायें हैं जिनको सभ्य मनुष्य के द्वारा इस उद्देश्य स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यवस्थित और सदस्यता के लिए बालकों की तैयारी में सहायता प्राप्त हो ।”

इन परिभाषाओं से कुछ तथ्य प्रकट होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. विद्यालय एक विशिष्ट वातावरण का नाम है।
  2. यहाँ पर सम्पन्न होने वाली सभी क्रियायें बालक के विकास के लिए उत्तरदायी हैं।
  3. बालक के निहित विकास का केन्द्र है।
  4. बालक को सामाजिकता के योग्य बनाने वाली संस्था है।

(4) जैकसन के अनुसार, “विद्यालय वह स्थान है जहाँ, परीक्षणों से सफल या असफल हुआ जाता है, जहाँ अनेक मनोरंजक घटनाएँ घटित होती हैं, जहाँ बालक कई अन्तर्दृष्टि तथा क्षमताएँ प्राप्त करते हैं। यह वह स्थान भी है जहाँ बालक बैठकर सुनते हैं, प्रतीक्षा करते हैं और अपने हाथ उठाते हैं, कागज एक-दूसरे को हस्तान्तरित करते हैं, पंक्तिबद्ध खड़े होते हैं तथा अपनी पेन्सिलें तेज करते हैं। वास्तव में विद्यालय वह स्थान है। जहाँ मित्र तथा शत्रु दोनों बनते हैं, जहाँ कल्पना का विकास होता है व गलतफहमियाँ दूर होती हैं, जहाँ छात्र जमुहाइयाँ लेते हैं, मेज पर अपने नाम खोदते हैं, जहाँ दूध के पिलाने के नाम पर पैसा बटोरा जाता है और अवकाश के अवसर ढूँढ़े जाते हैं।”

शिक्षा के अभिकरण के रूप में विद्यालय के कार्य अथवा भूमिका (Functions and Role of School as an Agency of Education)

विद्यालय बालक का सम्यक् विकास करता है। साथ में उसका सामाजिक विकास भी करता है। समाज द्वारा विद्यालय का निर्माण किया जाता है तथा विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण भी समाज की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है। समाज और विद्यालय का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। विद्यालय के कार्यों को मुख्य रूप से निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. व्यक्तिगत विकास सम्बन्धी कार्य

(i) शारीरिक विकास- प्राचीन काल में शारीरिक विकास के कार्य को अनौपचारिक कार्य माना जाता था, परन्तु आधुनिक युग में बालक का शारीरिक विकास करना, विद्यालय का प्रमुख दायित्व माना जाता है। इस कारण प्रत्येक विद्यालय अपने वातावरण को स्वास्थ्यप्रद बनाता है। साथ ही खेल-कूद तथा व्यायाम की उपयुक्त एवं समुचित व्यवस्था करता है। आज विद्यालयों में डॉक्टरी सेवा तथा दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी की जाती है।

(ii) चारित्रिक विकास- चारित्रिक विकास के हेतु विद्यालय में इस प्रकार का वातावरण निर्मित करना आवश्यक है जिससे बालक में नैतिक गुणों का विकास हो सके। यह कार्य उपदेश द्वारा नहीं बल्कि बालकों के सामने आदर्श प्रस्तुत करके उनसे उसका अनुकरण करने के लिए कहा जाना चाहिए। इससे बालकों में सत्य, अहिंसा, सहयोग आदि सद्गुण उत्पन्न हो सकते हैं।

(iii) मानसिक विकास- विद्यालय का यह औपचारिक कार्य है। विद्यालय प्राचीन काल से इस कार्य को करता चला आ रहा है। प्राचीन काल के विद्यालय ज्ञान को साध्य के रूप में मानकर कार्य करते थे परन्तु आधुनिक युग में विद्यालय इसको साधन के रूप में मानते हैं। उनका प्रमुख उद्देश्य बालक की विभिन्न शक्तियों का विकास करना है, जिससे बालक बौद्धिक रूप से साहसी बन सके और भविष्य में मूल्यों या मान्यताओं का निर्माण कर सके। इसके लिए विद्यालय में वाद-विवाद, विचार-विनिमय आदि कार्यक्रमों का सम्यक् आयोजन होना चाहिए।

(iv) व्यावसायिक प्रशिक्षण- विद्यालय का एक यह कार्य भी है कि वह बालक को ऐसी शिक्षा प्रदान करे जो उसे भावी जीवन में स्वयं भार उठाने में सहायता दे। वह समाज पर भारस्वरूप न बने। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि बालक को जीविकोपार्जन के लिए तैयार करें। विद्यालय ऐसे विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा प्रदान करता है।

(v) भावात्मक प्रशिक्षण- विद्यालय वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, चित्रकला प्रदर्शनियों, संगीत सम्मेलनों, नाटकों आदि का प्रबन्ध करके बच्चों को भावात्मक एवं सौन्दर्यात्मक प्रशिक्षण प्रदान करता है। यह विद्यालय का एक कार्य माना जाता है

2. सामाजिक विकास सम्बन्धी कार्य

(i) संरक्षण का कार्य टी० पी० नन का मत है, “किसी देश-विदेश का विद्यालय उसके जीवन का अंग होता है जिसका प्रमुख कार्य देश-विदेश की आध्यात्मिक शक्ति को ठोस बनाना, उसकी ऐतिहासिक क्रमबद्धता की संभावना, उसकी अतीत में प्राप्त उपलब्धियों की रक्षा करना और उसके प्रति जिम्मेदार होना। इस प्रकार वह संस्कृति को हस्तांतरित करके उसे सुरक्षित बनाये रखता है।”

(ii) सामाजिक प्रशिक्षण- विद्यालय समाज-सेवा, सामाजिक उत्सव, सामाजिक कार्यों में भाग लेने को अवसर आदि की व्यवस्था करके बालकों को सामाजिक प्रशिक्षण प्रदान करता है। विद्यालय के इस कार्य को अनौपचारिक कार्य माना जाता है, परन्तु आधुनिक युग में इस बात पर बल दिया जा रहा है कि विद्यालय सामुदायिक केन्द्र के रूप में होना चाहिए।

(iii) समाज को प्रगतिशील बनाना- विद्यालय का एक कार्य समाज को प्रगतिशील बनाना है। वह केवल सामाजिक विरासत को सुरक्षित ही नहीं रखता है वरन् उसकी पुरानी मान्यताओं, आदर्शों तथा ढाँचे में परिवर्तन भी लाता है। ऐसा करके वह अपने समाज को प्रगतिशील बनाता है। विद्यालय का यह कार्य प्रगतिशील कार्य के नाम से भी जाना जाता है।

(iv) तटस्थ या निष्पक्ष कार्य- कुछ विचारकों का मत है कि विद्यालय का कार्य केवल ज्ञान प्रदान करना है, समाज के विवादग्रस्त कार्यों से विद्यालय को दूर रहना चाहिए, परन्तु इस विचारधारा के आलोचकों का मत है कि यदि विद्यालय सामाजिक कार्यों से अपने को अलग रखेगा तो समाज सदैव अपनी रूढ़िवादिता से ग्रस्त रहेगा और प्रगति नहीं कर सकेगा। विद्यालय किसी समस्या के पक्ष या विपक्ष में अपनी निजी धारणा रखता है और उसका प्रभाव समाज पर अवश्य पड़ता है। वह तटस्थ नहीं रह सकता।

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Anjali Yadav

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