कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

विनिमय : अर्थ, आवश्यकता ( Exchange : Meaning, Necessity)

विनिमय : अर्थ, आवश्यकता ( Exchange : Meaning, Necessity)
विनिमय : अर्थ, आवश्यकता ( Exchange : Meaning, Necessity)

विनिमय : अर्थ, आवश्यकता ( Exchange : Meaning, Necessity)

जब दो पक्षों के बीच आदान-प्रदान एक दूसरे के प्रतिफलस्वरूप ऐच्छिक होता है तो वह विनिमय कहलाता है।

-बक

विनिमय का अर्थ (Meaning of Exchange)

साधारण बोलचाल की भाषा में एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु प्राप्त करने की क्रिया को ‘विनिमय’ कहा जाता है। किन्तु अर्थशास्त्र में विनिमय शब्द का प्रयोग भिन्न अर्थ में किया जाता है जेवन्स (Jevons) के शब्दों में, “अपेक्षाकृत कम आवश्यक वस्तु से अपेक्षाकृत अधिक आवश्यक वस्तु के अदल-बदल को विनिमय कहते हैं। अर्थशास्त्र में दो या दो से अधिक पक्षों के मध्य वस्तुओं, धन तथा सेवाओं के ऐच्छिक, स्वतन्त्र पारस्परिक तथा वैधानिक हस्तान्तरण को ‘विनिमय’ कहते हैं।

मार्शल के शब्दों में, “विनिमय को दो पक्षों के मध्य होने वाले ऐच्छिक, वैधानिक तथा पारस्परिक धन के हस्तान्तरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

विनिमय की विशेषताएँ या आवश्यक शर्ते

कोई विनिमय-कार्य तभी सम्भव होता है जबकि निम्नलिखित बातें पाई जाती है-

(1) दो या दो से अधिक पक्ष-वस्तुओं या सेवाओं का विनिमय तभी सम्भव होता है जब कम से कम दो पक्ष होते हैं। कोई अकेला व्यक्ति अपने से ही वस्तुओं या सेवाओं का विनिमय नहीं कर सकता।

(2) दो या दो से अधिक वस्तुएँ- विनिमय करने वाले पक्षों (parties) के पास कम से कम दो वस्तुएँ होनी चाहिए जिन्हें कि वे एक-दूसरे को प्रदान कर सकें। फिर वस्तुएँ भी विभिन्न प्रकार की होनी चाहिए क्योंकि कोई एक पक्ष किसी वस्तु को देकर दूसरे पक्ष से बिल्कुल वैसी ही वस्तु लेना नहीं चाहेगा।

(3) दोनों पक्षों को वस्तुओं की आवश्यकता- दो पक्ष आपस में वस्तुओं का आदान-प्रदान तभी करतेहैं जबकि उन्हें एक-दूसरे की वस्तुओं की आवश्यकता होती है।

(4) परस्पर हस्तान्तरण- विनिमय के अन्तर्गत वस्तुओं का परस्पर हस्तान्तरण होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी भिखारी को भीख में कोई वस्तु देता है तो वह विनिमय नहीं कहलायेगा, क्योंकि दोनों पक्षों की ओर से वस्तुओं का परस्पर हस्तान्तरण नहीं हुआ है।

(5) ऐच्छिक या स्वतन्त्र हस्तान्तरण- हस्तान्तरण का ऐच्छिक या स्वतन्त्र होना आवश्यक होता है, अर्थात् विनिमय के पक्षों पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिए।

(6) वैधानिक हस्तान्तरण- अर्थशास्त्र में धन के उसी हस्तान्तरण को विनिमय में शामिल किया जाता है जो कानूनी होता है। इस प्रकार धन का अवैधानिक हस्तान्तरण विनिमय नहीं हो सकता।

(7) दोनों पक्षों को लाभ-विनिमय की क्रिया से दोनों पक्षों को तुष्टिगुण का लाभ होना चाहिए। दान तथा भेंट के अन्तर्गत धन का हस्तान्तरण विनिमय नहीं कहलाता क्योंकि इनके अन्तर्गत केवल एक पक्ष को ही लाभ मिलता है।

विनिमय की आवश्यकता-क्यों और कैसे ? आदि काल में मनुष्य का जीवन अत्यन्त सरल था। उसकी आवश्यकताएँ गिनी-चुनी होती थीं जिन्हें वह स्वयं या अपने परिवार की सहायता से पूर्ण कर लेता था मानव सभ्यता का यह प्रारम्भिक युग आत्म-निर्भरता (self-sufficiency) का युग था अतः ऐसी अवस्था में वस्तुओं के विनिमय का प्रश्न ही नहीं था किन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे सभ्यता का विकास होता गया और मनुष्य की आवश्यकताओं में निरन्तर वृद्धि होती गई। ऐसी स्थिति आ गई जबकि मनुष्य के लिए अपनी सभी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करना जसम्भव हो गया। परिणाम यह हुआ कि मनुष्य अपनी कुशलता तथा निपुणता के अनुसार विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने लगे, अर्थात् भिन्न-भिन्न मनुष्यों ने भिन्न-भिन्न वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण (specialisation) प्राप्त कर लिया अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु मनुष्यों ने परस्पर वस्तुओं का आदान-प्रदान (विनिमय) प्रारम्भ कर दिया। बस यहीं से वस्तुओं का परस्पर विनिमय प्रारम्भ हो गया।

इस प्रकार विनिमय का प्रारम्भ यम-विभाजन के सूत्रपात के परिणामस्वरूप हुआ। प्रारम्भ में श्रम-विभाजन बड़ा सीधा-सादा था जिस कारण विनिमय-कार्य भी अत्यन्त सरल था। किन्तु, जैसे-जैसे श्रम विभाजन का विकास तथा विस्तार होता गया वैसे-वैसे विनिमय-प्रणाली भी विकसित तथा जटिल होती गई। इस प्रकार विनिमय का प्रारम्भ तथा विकास अनगिनत आवश्यकताओं की सन्तुष्टि हेतु मनुष्य द्वारा व्यावसायिक श्रम विभाजन को अपनाने के फलस्वरूप हुआ। आधुनिक युग में उत्पादन प्रणाली अत्यन्त जटिल हो गई है तथा अपनी असंख्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य ही नहीं वरनू राष्ट्र भी एक-दूसरे पर अत्यधिक निर्भर हैं। फिर विनिमय व्यवस्था के द्वारा उत्पादन तथा उपभोग दोनों एक डोर में बंधे हुए हैं।

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Anjali Yadav

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