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विनिमय के लाभ या महत्त्व (Advantages or Importance of Exchange)
विनिमय कार्यों से सम्बन्धित पक्षों को मुख्यतया निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-
(1) दोनों पक्षों को लाभ- विनिमय प्रक्रिया से व्यक्तियों को कम तुष्टिगुण वाली वस्तुओं के स्थान पर अधिक तुष्टिगुण वाली वस्तुएँ तथा सेवाएं प्राप्त होती हैं। फलतः विनिमय से दोनों पक्षों को नाम होता है।
(2) आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति का सुलभ होना-विनिमय द्वारा मनुष्य तथा राष्ट्र ऐसी अनेक वस्तुएँ प्राप्त कर लेते हैं जिनको कि वे स्वयं उत्पन्न नहीं कर पाते। उदाहरणार्य, भारत अन्य राष्ट्रों से कपास, मशीन, तेल आदि विभिन्न वस्तुओं का आयात करता है। साथ ही भारत दूसरे राष्ट्रों को चीनी, चाय, जूट आदि अनेक वस्तुओं का निर्यात करता है जिससे अन्य राष्ट्रों को लाभ होता है।
(3) श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण का सम्भव होना-विनिमय भौगोलिक श्रम-विभाजन को सम्भव बनाता है। जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्र उन्हीं वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण प्राप्त कर लेते हैं जिनके सम्बन्ध में उन्हें अधिक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। इससे मानव श्रम तथा राष्ट्रीय शक्तियों का सर्वोत्तम उपयोग होता है तथा उत्पादन भी अधिकाधिक होता है।
(4) प्राकृतिक संसाधनों का समुचित उपयोग-विनिमय विश्व के प्राकृतिक संसाधनों (भूमि, वन, जल, खनिज आदि) के समुचित उपयोग को सम्भव बनाता है। इससे एक तो साधनों की बर्बादी नहीं होती तथा दूसरे उत्पादन की मात्रा में वृद्धि हो। जाती है।
(5) कुशलता में वृद्धि – श्रम विभाजन के अन्तर्गत श्रमिक एक ही प्रकार का कार्य करते रहते हैं जिस कारण वे अपने कार्य में निपुण हो जाते हैं।
(6) आधुनिक उत्पादन प्रणाली का विनिमय पर आधारित होना- आजकल वस्तुओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर तथा बाजार में बिक्री के लिए किया जाता है। विनिमय के अभाव में यह सम्भव नहीं था। दूसरे शब्दों में विनिमय ने बड़े पैमाने पर उत्पादन (large scale production) को सम्भव बनाया है।
(7) उत्पादन लागत तथा कीमतों में कमी- वस्तुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने से उत्पादकों को आन्तरिक तथा बाह्य किफायतें (economles) प्राप्त होती है जिनसे उत्पादन लागत घट जाती है। बिक्री में वृद्धि करने हेतु उत्पादकों द्वारा कीमतें कम कर दी जाती हैं जिससे उपभोक्ता लाभान्वित होते हैं।
(8) बाजार का विस्तार- विनिमय कार्य ने बाजारों के क्षेत्र को विस्तृत कर दिया है। प्राचीन काल में बाजार स्थानीय होते थे किन्तु अब बाजार प्रान्तीय राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय हो गए हैं।
(9) सन्तुष्टि में वृद्धि–विनिमय के परिणामस्वरूप मनुष्य को विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं जिनका उपयोग करने से उसे अधिकाधिक सन्तुष्टि प्राप्त होती है।
(10) रहन-सहन के स्तर का उन्नत होना- अधिकाधिक सन्तुष्टि प्राप्त होने से लोगों के रहन-सहन का स्तर उन्नत होता है।
(11) वितरण में सहायक– विशालस्तरीय उत्पादन प्रणाली में वस्तुओं का उत्पादन पाँच साधनों (भूमि, श्रम, पूँजी, संगठन व उयम) के सहयोग से होता है। पाँचों साधनों के मध्य पारिश्रमिक (remuneration) का वितरण विनिमय-व्यवस्था द्वारा ही सम्भव होता है।
(12) आपातकाल में सहायक- कोई देश बाढ़, सूखा, अकाल, भूकम्प आदि प्राकृतिक विपदाओं के समय विनिमय द्वारा विदेशों से खाद्यान्न, यस्त्र, दवाइयाँ आदि मंगवाकर संकट का सामना कर सकता है।
(13) राष्ट्रों में पारस्परिक सहयोग-वस्तुओं तथा सेवाओं के परस्पर विनिमय के परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्र एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं जिससे उनमें सहयोग की भावना बढ़ती है। इसके अतिरिक्त, जय विभिन्न देशों के निवासी एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो इससे उनके ज्ञान में वृद्धि होती है तथा सभ्यताओं का प्रसार होता है।
विनिमय से हानियाँ (Disadvantages of Exchange)
अनेक प्रकार से होने के बावजूद विनिमय से समाज को निम्नलिखित हानियों भी होती हैं-
(1) आर्थिक परनिर्भरता– विनिमय के कारण राष्ट्र विभिन्न वस्तुओं की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं। यह आर्थिक परनिर्भरता युद्ध या किसी अन्य संकटकाल में कुछ राष्ट्रों के लिए बड़ी दुखदायी सिद्ध हो सकती है।
(2) अनुचित प्रतिस्पर्धा-अपनी-अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए विभिन्न राष्ट्रों में परस्पर अनुचित प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो जाती है।
(3) युद्ध की सम्भावना- कभी-कभी विदेशी बाजारों को प्राप्त करने की होड़ इतनी बढ़ जाती है कि राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ जाने की आशंका उत्पन्न हो जाती है।
(4) राजनीतिक दासता- कभी-कभी विदेशी व्यापार में शक्तिशाली राष्ट्र निर्बल राष्ट्रों को अपना गुलाम बना लेता है, जैसे भारत को इंग्लैण्ड ने गुलाम बना लिया था।
(5) अति-उत्पादन का भय-विनिमय के कारण विश्व के विभिन्न राष्ट्रों के उत्पादकों द्वारा वस्तुओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर किए जाने के कारण अति-उत्पादन का भय उत्पन्न हो जाता है। सन् 1929-33 की विश्वव्यापी मन्दी इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
(6) असन्तुलित आर्थिक विकास- प्रत्येक राष्ट्र उन वस्तुओं का अधिक उत्पादन करता है जिनकी विदेशों में अधिक माँग होती है। इससे देश का असन्तुलित विकास हो पाता है।
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