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वीर रस – Veer Ras in Hindi
जिस काव्य में युद्ध, कर्म, गर्व आदि भावों से उत्साह का भाव होता है वहाँ वीर रस माना जाता है। वीर रस आश्रय प्रधान होता है, क्योंकि इसमें काव्यगत आश्रय की स्थिति आवश्यक होती है और आलंबन की अपेक्षा सहृदय का ध्यान अधिकतर आश्रय के कर्मों पर रहता है। वीर रस में उदात्तता होती है। किसी असाधारण सत्कर्म में साहसपूर्ण उत्साह ही वीर रस का स्थायी भाव है।
उदाहरण- युद्ध वीर में आक्रमणकारी शत्रु और उसके आक्रमण के प्रतिकार-रूप कर्म दोनों ही आलंबन रहते हैं।
प्राचीन आचार्यों ने युद्धवीर, दया-वीर, दानवीर और धर्मवीर ये चार भेद किए हैं।
वीर रस सत्कर्म प्रधान होने से समाज-पोषी है।
उदाहरण- फ्लोरेंस नाइटिंगेल जब रोगियों और दुखियों के उपचार में अपना जीवन होम करती देखी जाती है तो उसके वीर हृदय की भव्य झाँकी किसी युद्ध-वीर की झाँकी से कम भव्य नहीं।
अतः वीर रस भी एक व्यापक, उदात्त, अत्यंत प्रभावशाली भावानुभूति है। वीरता के असाधारण कर्म में महत्प्रयत्न और महत्कर्म दोनों की आवश्यकता रहती है। इन दोनों के साथ महत्प्रयोजन जुड़कर वीर रस को अत्यंत प्रभावशाली भावानुभूति बना देता है। वीर का साहस महत्प्रयोजन का द्योतक होता है और उत्साह महत्कर्म का। यदि प्रयत्न महान नहीं होगा तो साहस में तीव्रता नहीं आएगी और यदि प्रयोजन महान नहीं होगा तो उत्साह में उदात्तता का अभाव रहेगा।
वीर रस के अवयव :
- वीर रस का स्थाई भाव : उत्साह।
- वीर रस का आलंबन (विभाव) : अत्याचारी शत्रु।
- वीर रस का उद्दीपन (विभाव) : शत्रु का पराक्रम, शत्रु का अहंकार, रणवाद्य, यश की इच्छा आदि।
- वीर रस का अनुभाव : कम्प, धर्मानुकूल आचरण, पूर्ण उक्ति, प्रहार करना, रोमांच आदि।
- वीर रस का संचारी भाव : आवेग, उग्रता, गर्व, औत्सुक्य, चपलता, धृति, मति, स्मृति, उत्सुकता आदि।
वीर रस के भेद
1. युद्धवीर
3. दानवीर
2. दयावीर
4. धर्मवीर
वीर रस के उदाहरण
1. हे सारथे! हैं द्रोण क्या, देवेंद्र भी आकर अड़े,
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह भेद कर लड़े।
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
स्थायी भाव- उत्साह
विभाव- आश्रय- अभिमन्यु आलंबन द्रोण, उद्दीपन- व्यूह रचना
अनुभाव- गर्जना, ललकारना।
संचारी भाव- आवेग, उग्रता, अमर्ष, असूया, श्रम, उत्सुकता आदि।
रस- वीर रस
2. आज का, तीक्ष्ण-शर विधृत क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर,
शतशेल सम्वरशील, नील नभ-गर्जित-स्वर।
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुद्ध-प्रत्यूह, क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह । सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
स्थायी भाव- उत्साह
विभाव – आश्रय एवं आलंबन दोनों पक्षों के सैनिक परस्पर आश्रय एवं आलंबन हैं, उद्दीपन युद्ध का वातावरण
अनुभाव- योद्धाओं का बाण चलाना, भाला रोकना, गर्जना, सिंहनाद, व्यूह रचना को छिन्न-भिन्न करना ।
संचारी भाव – आवेग, उग्रता, अमर्ष, असूया, श्रम, गर्व, धृति, चपलता आदि।
रस – वीर रस
3. वारित सौमित्र भल्लपति, अगणित मल्ल-रोध;
गर्जित प्रलयास्थि क्षुब्ध, हनुमत केवल प्रबोध।
उद्गीरति वह्नि भीम, पर्वत कपि चतुः प्रहर,
जानकी भीरू उर आशा भर रावण-सम्वर ॥
स्थायी भाव – उत्साह
विभाव- आश्रय- राम के वीर सैनिक, आलंबन- रावण एवं उसकी सेना, उद्दीपन युद्ध का वातावरण
अनुभाव- हनुमान का गर्जना करना, अग्नि बरसाना।
संचारी भाव – आवेग, उग्रता, अमर्ष, असूया, श्रम, गर्व, धृति, आशा आदि।
रस- वीर रस
4. जिस वीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया।
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ने लिया।
सब ओर त्यों ही छोड़कर निज प्रखरतर शर जाल को।
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल को। – मैथिलीशरण गुप्त
स्थायी भाव – उत्साह
विभाव – आश्रय- अभिमन्यु, आलंबन- कौरवों की सेना, उद्दीपन युद्ध का वातावरण
अनुभाव- इधर-उधर घूमना बाण चलाना। संचारी भाव – आवेग, उग्रता, अमर्ष, चपलता, श्रम आदि।
रस- वीर रस
5. दान करि कीरति को विमल बितान तानि
दिन-दिन विमल रखैया जोर जस को।
रैयत पै परम कृपाल है मया के पुंज
आदर है पंथ सब कीना है सुबस को।। – अमीरदास
स्थायी भाव – उत्साह
विभाव- आश्रय- महाराजा शेरसिंह, आलंबन रैयत (प्रजा)
अनुभाव- अपनी प्रथा और पंथ को राजा द्वारा दान दिया जाना।
संचारी भाव – हर्ष, आवेग, आशा आदि।
रस- वीर रस
6. दिया सब कुछ सहा सब कुछ
हरिश्चंद्र बिक गये स्वयं भी।
पत्नी-पुत्र दास बन गये
तो भी धर्म हारा न कभी। – रामप्रकाश
स्थायी भाव – उत्साह
विभाव- आश्रय- हरिश्चंद्र, आलंबन- धर्म
अनुभाव- कर्मशीलता एवं सहनशीलता।
संचारी भाव – घृति, हर्ष, मति आदि।
रस- वीर रस
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