कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

श्रम विभाजन की सीमाएँ (Limitations of Division of Labour)

श्रम विभाजन की सीमाएँ (Limitations of Division of Labour)
श्रम विभाजन की सीमाएँ (Limitations of Division of Labour)

श्रम विभाजन की सीमाएँ (Limitations of Division of Labour)

किसी उद्योग में श्रम विभाजन को कहाँ तक अपनाया जा सकता है यह श्रम विभाजन की सीमाओं पर निर्भर करता है। श्रम विभाजन की प्रमुख सीमाएँ निम्नांकित है-

(1) बाजार का विस्तार–एडम स्मिय के विचार में श्रम विभाजन बाजार के विस्तार द्वारा सीमित होता है।” किसी वस्तु की मांग जितनी अधिक होगी उसका बाजार उतना ही अधिक विस्तृत होगा। ऐसी स्थिति में वस्तु का जाने से श्रम विभाजन को भी व्यापक रूप से अपनाया जा सकेगा।

(2) माँग का स्वभाव- श्रम-विभाजन किसी वस्तु की मांग के (nature) पर भी निर्भर करता है। (i) यदि वस्तु उत्पादन बड़े पैमाने पर किए की माँग स्वाई (permanent) है तो उत्पादन निरन्तर तथा बड़े पैमाने पर होगा जिससे श्रम विभाजन की सम्भावना अधिक होगी। (ii) इसके विपरीत, यदि वस्तु की माँग अस्थाई (temporary) है तो उत्पादन कम किया जायेगा जिससे श्रम विभाजन की सम्भावना कम होगी।

(3) उत्पादन का पैमाना- (1) यदि उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है तो श्रम विभाजन की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। (ii) इसके विपरीत, छोटे पैमाने के उद्योगों में श्रम विभाजन सीमित मात्रा में संभव होता है। यही कारण है कि कुटीर उद्योगों तथा लघु उद्योगों में श्रम विभाजन बहुत ही सीमित होता है।

(4) पूँजी की उपलब्धता–श्रम विभाजन के अन्तर्गत कच्ची सामग्री, मशीन, यन्त्र आदि का प्रयोग किया जाता है जिन्हें खरीदने के लिए अधिक मात्रा में पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। यदि किसी देश में पूंजी की कमी है तो वहाँ सभी उद्योगों तथा व्यवसायों में श्रम विभाजन को अपनाना सम्भव नहीं होगा।

(5) श्रमिकों की उपलब्धता तथा परस्पर सहयोग- किसी उद्योग या व्यवसाय में श्रम विभाजन को उसी सीमा तक अपनाया जा सकता है जिस सीमा तक श्रमिक उपलब्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त, श्रम विभाजन की सफलता के लिए श्रमिकों में परस्पर सहयोग का होना भी आवश्यक है।

(6) उद्योग या व्यवसाय का स्वभाव-व्यवसाय के स्वभाव का श्रम विभाजन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। कुछ व्यवसाय या उद्योग ऐसे होते हैं जिनमें उत्पादन कार्य को छोटे-छोटे भागों या उप-भागों में बाँटना सम्भव नहीं होता, जसे कृषि व्यवसाय अतः ऐसे व्यवसायों में श्रम विभाजन को व्यापक रूप से नहीं अपनाया जा सकता।

(7) व्यापार सम्बन्धी सुविधाएँ- व्यापार सुविधाओं में परिवहन तथा संचार के साधन, बैंकिंग प्रणाली, बीमा को शामिल किया जाता है। किसी देश में ये सुविधाएं जितनी अधिक विकसित तथा विस्तृत होती है वहाँ वस्तुओं का बाजार उतना कम्पनियों आदि ही अधिक विस्तृत होता है। बाजार के विस्तृत होने पर श्रम-विभाजन को व्यापक रूप से अपनाना सम्भव होता है।

(8) संगठनकर्त्ताओं की कुशलता- उत्पादन कार्य संगठनकर्ता की देख-रेख में किया जाता है। एक कुशल संगठनकर्ता श्रम-विभाजन की सम्भावनाओं को बढ़ा देता है।

(9) आविष्कार-नई-नई उत्पादन-विधियों तथा मशीनों के आविष्कार से श्रम विभाजन के अवसरों में वृद्धि होती है। जिन उद्योगों में पुराने ढंग की मशीनों से उत्पादन किया जाता है उनमें श्रम विभाजन के अवसर कम होते हैं।

(10) प्रतिफल के नियम (Laws of Returns) (1) यदि किसी वस्तु के उत्पादन में बढ़ते प्रतिफल का नियम (Law of Increasing Returns) लागू होता है तो उसमें वस्तु का उत्पादन बढ़ाने पर औसत लागत घटती जाती है। इससे वस्तु का उत्पादन बड़े पैमाने पर होगा जिससे श्रम विभाजन की सम्भावनाएँ अधिक होगी। (ii) यदि उत्पादन में घटते प्रतिफल का नियम (Law of Diminishing Returns) लागू होता है तो उत्पादन बढ़ाने से औसत लागत बढ़ती जाती है। ऐसी स्थिति में उत्पादन बढ़ाना लाभदायक नहीं होगा जिससे उत्पादन का पैमाना छोटा होगा और अम-विभाजन कम होगा।

श्रम-विभाजन के लिए अनुकूल शर्ते

श्रम-विभाजन प्रणाली को तभी अपनाया जा सकता है जबकि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं-

(1) श्रमिकों की पर्याप्त संख्या-श्रमिकों के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने पर ही उत्पादन कार्य को विभिन्न उप-क्रियाओं में बाँटकर उन्हें पृथक्-पृथक् श्रमिकों को सौंपा जा सकता है।

(2) बड़े पैमाने पर उत्पादन-छोटे पैमाने के उत्पादन में श्रम विभाजन को ठीक प्रकार से नहीं अपनाया जा सकता। अतः बम-विभाजन को भली-भाँति तभी अपनाया जा सकता है जबकि वस्तुओं का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है।

(3) कुशल संगठन— श्रमिकों से उनकी रुचि तथा योग्यता के अनुसार काम करवाने के लिए संगठनकर्त्ताओं (organisers) का कुशल होना आवश्यक है।

(4) विस्तृत माँग- वस्तुओं की माँग के विस्तृत होने पर ही उनका बड़े पैमाने पर उत्पादन लाभदायक रहता है अन्यथा माँग के कम किन्तु उत्पादन के अधिक होने पर अति उत्पादन तथा बेरोजगारी जैसी गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

(5) मौद्रिक प्रणाली- श्रम विभाजन का विकास तथा विस्तार मौद्रिक अर्थव्यवस्था (Monetary Economy) के अन्तर्गत ही सम्भव है। मुद्रा ने वस्तुओं के बाजार को विस्तृत कर दिया है तथा व्यापार सम्बन्धी सुविधाओं का अत्यधिक विस्तार कर दिया है।

(6) निरन्तर उत्पादन–श्रम विभाजन की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि वस्तुओं का उत्पादन निरन्तर किया जाए, तभी उत्पादन की विभिन्न उप-क्रियाओं को परस्पर सम्बन्धित किया जा सकेगा।

(7) परिवहन तथा संचार के साधनों का विकास-इन साधनों के विकास से वस्तुओं की माँग बढ़ती है जिससे उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होती है। इससे श्रम विभाजन की सम्भावना बढ़ जाती है।

(8) परस्पर सहयोग- श्रम विभाजन की सफलता के लिए श्रमिकों में परस्पर सहयोग आवश्यक होता है। इस सहयोग के अभाव में उत्पादन की विभिन्न उप क्रियाओं को सुचारू रूप से सम्पन्न नहीं किया जा सकता ।

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Anjali Yadav

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