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सन् 1912 का सहकारी समिति अधिनियम
द्वितीय चरण- सन् 1904 के अधिनियम के दोषों को दूर करने के लिए सन् 1912 में सहकारी समिति अधिनियम पारित किया गया, जिसके साथ ही भारत के सहकारी आन्दोलन का द्वितीय चरण आरम्भ हुआ। इस अधिनियम की मुख्य बातें निम्नांकित थी-
(1) गैर-साख समितियों के पंजीयन की सुविधा- साख सहकारी समितियों के अलावा अन्य प्रकार की समितियों के पंजीयन की अनुमति दी गई, ताकि सहकारी आधार पर सदस्यों के आर्थिक हितों की रक्षा की जा सके।
(2) ग्रामीण और शहरी समितियों के भेद की समाप्ति- सहकारी समितियों के अवैज्ञानिक विभेद को समाप्त कर दिया गया।
(3) दायित्व का निर्धारण- केन्द्रीय समितियों के लिए सीमित और ग्रामीण समितियों के लिए असीमित दायित्व निश्चित कर दिया गया।
(4) लाभ का विभाजन- प्रान्तीय सरकारों को समितियों के लाभ विभाजन सम्बन्धी नियम और उपनियम बनाने के पूर्ण अधिकार प्रदान किए गए।
(5) ‘सहकारी’ शब्द के प्रयोग पर प्रतिबन्ध- ‘सहकारी’ शब्द का कोई व्यापारिक संस्था प्रयोग नहीं कर सकती वरन् केवल वे समितियाँ ही इसका प्रयोग करेंगी जो अधिनियम की शर्तों के अनुसार बनाई जायेंगी।
(6) धर्मार्थ और शैक्षिक कार्यों के लिए लाभांश की छूट- शैक्षिक और धर्मार्थ कार्यों के लिए समितियों को शुद्ध लाभ का एक चौथाई भाग प्रदान किए जाने की आज्ञा दे दी गई।
(7) हिस्सों की कुर्की की समाप्ति- सहकारी समितियों से लिए गए हिस्सों (Shares) को किसी भी प्रकार के ऋणों के लिए कुर्क न किए जाने की व्यवस्था की गई।
सन् 1912 के अधिनियम से सहकारी समितियों को काफी प्रोत्साहन मिला। सन् 1913 के बैंकिंग संकट के समय भी समितियों सफलता से काम करती रहीं।
मैकलेगन समिति
तृतीय चरण- सन् 1914 में द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हुआ। इसी वर्ष सरकार ने सर एडवर्ड मैकलेगन की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की, जिसे सहकारी आन्दोलन की प्रगति का मूल्यांकन करने तथा सुधार के लिए सुझाव देने का कार्य सौंपा गया। यहीं से सहकारिता आन्दोलन का तृतीय चरण आरम्भ हुआ। मैकलेगन समिति ने सहकारी आन्दोलन में व्याप्त इन दोषों की ओर ध्यान दिलाया (1) सदस्यों की अशिक्षा और सहकारी सिद्धान्तों से अनभिज्ञता- समितियों के अधिकांश सदस्यों के अशिक्षित होने के कारण उन्हें सहकारिता के मूल सिद्धान्तों का ज्ञान नहीं था जिससे समितियों का कार्य भली-भांति नहीं चल पाता था (2) ऋण देने में पक्षपात- अधिकांश ॠण सगे-सम्बन्धियों को प्रदान किए जाते थे, जो उचित नहीं था (3) कार्यकर्त्ताओं की स्वार्थपरता- समिति के कार्यकर्त्ता स्वार्थी और बेईमान थे, जो बेनामी रुक्कों पर रुपया लेकर तथा अन्य प्रकार से बेईमानी करते थे, साथ ही काम में भी लापरवाही बरतते थे। (4) वसूली में त्रुटि- ऋण की किस्सों को यथोचित समय पर वसूल नहीं किया जाता था जिससे काम में अव्यवस्था आती थी। (5) जनता में भ्रम- जनता सहकारी आन्दोलन को सरकारी काम समझती थी। सहकारी साख समितियों को लाग सरकारी बैंक समझते थे।
नई सहकारी समितियों की स्थापना के विषय में समिति ने कई सुझाव दिए–(1) सहकारिता की प्रगति ठोस आधार पर की जाए, बाहरी प्रभाव के आधार पर सहकारिता का विकास किया जाना उचित नहीं है। (2) सहकारिता की प्रेरणा स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनी चाहिए। सहकारिता को बलपचक लागू करने में वास्तविक प्रगति नहीं हो पाती (3) साख समितियों को प्राथमिक समितियों, सहकारी यूनियन, प्रान्तीय सरकारी बैंक और केन्द्रीय सहकारी बैंक नामक इन चार श्रेणियों में विभाजित किया जाए (4) आन्तरिक अव्यवस्था को कम करने तथा जनता के विश्वास को बढ़ाने के लिए हिसाब की पुस्तकों को समय-समय पर ऑकड़ी सहित प्रकाशित करना चाहिए। (5) समितियों को ऋण देने से पूर्व आवश्यक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
मैकलेगन समिति ने ग्रामीण साख सहकारी समितियों के विषय में सुझाव देते हुए कहा था-(i) ईमानदारी को साख का मूलाधार बनाया जाना चाहिए। (ii) सहकारिता के सिद्धान्तों से जनता को परिचित कराना चाहिए। (iii) सदस्यों के समुचित चुनाव की व्यवस्था होनी चाहिए। (iv) सट्टा-व्यापारियों को ऋण न दिया जाए। (v) समितियों का लेन-देन केवल सदस्यों तक ही सीमित रखा जाए। (vi) मितव्ययता को प्रोत्साहित करना चाहिए तथा सुरक्षित कोप में काफी धनराशि रखनी चाहिए। (vii) प्रवन्ध जनतन्त्रीय हो तथा एक सदस्य एक मत का नियम लागू होना चाहिए। (viii) ऋण प्रदान करना अथवा न करना सदस्यों के अधिकार में होना चाहिए न कि पदाधिकारियों के हाथ में। (ix) ऋण देने से पूर्व समुचित जाँच की जानी चाहिए। (x) पूंजी जहाँ तक सम्भव हो सदस्यों और पड़ोसियों की बचत से प्राप्त की जाए, बाहरी निर्भरता को कम से कम किया जाए। (xi) अखिल भारतीय बैंक तथा प्रान्तीय सहकारी बैंक की स्थापना करके समुचित नियन्त्रण की व्यवस्था की जाए।
यद्यपि मैकलेगन समिति ने उत्तम सुझाव दिए थे, किन्तु युद्धकालीन परिस्थितियों के कारण उन पर समुचित अमल नहीं किया जा सका।
चतुर्थ चरण (1919-1929)- सन् 1919 में सहकारी आन्दोलन में कुछ सुधार किए गए। ‘सहकारिता’ विषय को प्रान्तीय सरकारों को सौंप दिया गया और प्रान्तों को अपने अधिनियम बनाने अथवा केन्द्रीय अधिनियमों के पालन की स्वतन्त्रता दे दी गई, जिसके फलस्वरूप बम्बई, मद्रास, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, कुर्ग आदि प्रान्तों में नए अधिनियम बनाए गए। शेष प्रान्तों में सन् 1912 के केन्द्रीय अधिनियम का पालन किया गया। इसके बाद सहकारी समितियों की संख्या और कार्यों में पर्याप्त वृद्धि हुई, किन्तु इसके साथ ही उनमें कुछ कमियों भी उत्पन्न हो गई, जैसे बकाया ऋण राशि में अत्यधिक वृद्धि हो गई। इन कमियों की जाँच के लिए विभिन्न प्रान्तों में समितियाँ गठित की गई जिन्होंने साख सहकारिता के संघनन और गैर-साख सहकारिता के विस्तार की प्रोत्साहित किया। किसानों को दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने हेतु सर्वप्रथम पंजाब में सन् 1923 में भूमि बन्धक बैंक खोला गया था। तत्पश्चात् बम्बई और मद्रास राज्यों में भी भूमि बन्धक बैंक स्थापित किए गए।
पंचम चरण (1930-39)- सन् 1929 में विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी (depression) प्रारम्भ हो गई जिसके फलस्वरूप कृषि-उपजों की कीमतें बहुत कम हो गई और सहकारी समितियों को भुगतान राशि अत्यधिक घट गई। परिणामस्वरूप सहकारी समितियों के विस्तार के बजाय संघनन को महत्त्व दिया जाने लगा। सन् 1935 में रिजर्व बैंक की स्थापना की गई। रिजर्व बैंक ने सहकारी समितियों के उपयुक्त संगठन की सिफारिश की। सन् 1939-40 में सहकारी समितियों की कार्यशील पूजी 104 करोड़ ₹, समितियों की संख्या 117 हजार और सदस्यता 51 लाख थी।
पष्टम चरण (1940-46)- सन् 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ हो जाने से कृषि उपजों की कीमतों में वृद्धि होने के कारण किसानों की दशा में काफी सुधार हो गया। अतः उन्होंने सहकारी समितियों और महाजनों के ऋणों का भुगतान करना आरम्भ कर दिया। ऋणों की वापसी और ऋणों की मांग में कमी जा जाने से समितियों के पास बड़ी मात्रा में अतिरिक्त धनराशि जमा हो गई जिसे उन्हें अन्य कामों में लगाना पड़ा। युद्ध-काल में उपभोक्ता सहकारी समितियों के विकास को प्रोत्साहन मिला। उन दिनों खाद्य वितरण तथा कीमत-नियन्त्रण के कारण काला बाजार और लाभखारी की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई थी। इससे बचने के लिए उपभोक्ता सहकारी समितियों की स्थापना की जाने लगी। सन् 1938-39 से सन् 1945-46 तक सहकारी समितियों की संख्या में 4196, कार्यशील पूंजी में 5496, और सदस्य संख्या में 7096 की वृद्धि हुई। सहकारिता आन्दोलन से देश की 10% जनसंख्या लाभान्वित होने लगी, जबकि सन् 1938-39 में यह प्रतिशत केवल 6 था।
युद्ध के उपरान्त युद्धकालीन तेजी के प्रभाव का अन्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के लिए सहकारिता को प्रोत्साहन दिया गया। सन् 1945 में सरकार ने सहकारिता आन्दोलन के विकास हेतु योजना तैयार करने के लिए सहकारी योजना समिति नियुक्त की इस समिति ने सुझाव दिया कि प्राथमिक सहकारी समितियों को बहुमुखी क्रियाओं से सम्बद्ध किया जाना चाहिए ताकि सहकारी समितियों कृषकों को साख के अतिरिक्त अन्य आवश्यकताएं पूरी कर सकें।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सहकारी आन्दोलन
सप्तम चरण- भारत में सहकारिता आन्दोलन के विकास के सातवें चरण का आरम्भ सन् 1947 से हुआ। 15 अगस्त, सन् 1947 को देश स्वतन्त्र हुआ और देश भारत तथा पाकिस्तान इन दो भागों में विभाजित हो गया। विभाजन के कारण उत्पन्न समस्याओं का सहकारी आन्दोलन पर भी बुरा प्रभाव पड़ा बंगाल और आसाम में, जहाँ विकास की गति पहले ही धीमी थी, सहकारिता आन्दोलन को और अधिक ठेस पहुंची। परिणामस्वरूप सहकारी समितियों की कार्यशील पूंजी, संख्या और सदस्यता में कमी हो गई। परन्तु इसके बाद आन्दोलन प्रगति करने लगा, क्योंकि राष्ट्रीय सरकार ने सहकारिता के आधार पर ही देश के आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देने की नीति अपनाई थी।
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