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सहकारी आन्दोलन की वर्तमान स्थिति
भारत में सहकारी आन्दोलन की प्रगति के सम्बन्ध में निम्न आँकड़े उल्लेखनीय है-
(1) सहकारी साख– (i) 31 मार्च, 2001 को देश में लगभग एक लाख प्राथमिक कृषि साख समितियों थीं जिनकी सदस्य संख्या 10 करोड़ ₹ थी। (ii) मार्च 2001 में 367 केन्द्रीय सहकारी बैंक कार्य कर रहे थे जिनमें से 245 लाभ में तथा 112 हानि में चल रहे थे। (iii) मार्च 2001 में देश में 30 राज्य सहकारी बैंक थे। सन 2010-11 में सहकारी बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्र को ₹69.076 करोड़ प्रदान किए गए।
(2) सहकारी विपणन- (i) गाँव-स्तर पर देश में इस समय 6,000 प्राथमिक विपणन समितियाँ कार्यरत हैं। (ii) जिला या क्षेत्रीय विपणन समितियों की संख्या 160 है जो देश की प्रमुख मण्डियों में कार्यरत हैं। (III) देश में 29 राज्य विपणन संघ कार्य कर रहे हैं। (iv) राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ कार्यरत है।
(3) उपभोक्ता सहकारिताएं- सितम्बर 2000 में सहकारिताओं (co-operatives) द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में 76,709 तथा शहरी क्षेत्रों में 19,831 उचित मूल्य की दुकानें चलाई जा रही थी।
संविधान (111वाँ संशोधन) विधेयक, 2009–उद्देश्य- (1) सहकारी संस्थाओं की कार्यप्रणाली में सरकारी नियन्त्रण तथा हस्तक्षेप को न्यूनतम करना ताकि उन्हें वास्तविक लोकतांत्रिक और स्वायत्त चरित्र प्रदान किया जा सके। (2) चुनाव, साधारण सभाओं की बैठकों का समय पर आयोजन तथा सहकारी संस्थाओं का ऑडिट सुनिश्चित करना (3) सहकारी संस्थाओं के प्रबन्ध को व्यावसायिक स्वरूप देना। यह विधेयक 30 नवम्बर, 2009 को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया।
राष्ट्रीय सहकारिता नीति- केन्द्र सरकार ने सहकारिता क्षेत्र के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार की है जिसका उद्देश्य देश में सहकारिता क्षेत्र का चहुमुखी विकास सुगम बनाना तथा सहकारिता आन्दोलन में राज्यों की भागीदारी के लिए मार्गदर्शक के रूप में कार्य करना है। इसके लिए उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया है।
भारत में सहकारी आन्दोलन की धीमी प्रगति के कारण
(1) सहकारिता के सिद्धान्तों से अनभिज्ञता- अधिकांश भारतीय ग्रामीण जनता अशिक्षित होने के कारण सहकारी संस्थाओं की गतिविधियों में रुचि नहीं ले पाती। फलस्वरूप सहकारी आन्दोलन जनता का आन्दोलन नहीं बन सका है।
(2) सरकारी आन्दोलन- भारत में सहकारी आन्दोलन का सूत्रपात सरकार द्वारा किया गया न कि स्वयं जनता द्वारा किसी देश में सरकारी आन्दोलन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि ऐसा आन्दोलन स्वयं जनता द्वारा स्वेच्छा से चलाया जाना चाहिए। किन्तु भारत में यह सरकार द्वारा जनता पर योपा गया है।
(3) सरकारी सहायता पर अत्यधिक निर्भरता- भारत का सहकारी आन्दोलन लगभग 12 दशक पूर्ण कर चुका है तथापि आज भी सहकारी संस्थाएँ स्वावलम्बन तथा आत्मनिर्भरता प्राप्त नहीं कर सकी है, बल्कि वास्तविकता तो यह है कि ये सदैव सरकार से अधिकाधिक सहायता प्राप्त होने की आशा करती रहती हैं।
(4) साख पर अत्यधिक बल- भारत में सहकारी साख संस्थाओं की स्थापना तथा प्रगति पर तो अत्यधिक बल दिया गया जबकि गैर-साख सहकारी संस्थाओं की एकदम उपेक्षा की जाती रही है। परिणामस्वरूप (1) साख के अतिरिक्त भारतीय कृषकों की अन्य समस्याओं का समाधान नहीं हो सका है, (ii) दूसरी ओर भारतीय कृषि का सन्तुलित विकास नहीं हो पाया है।
(5) दोषपूर्ण ऋण-नीति- देश की कृषि साख समितियों की ऋण नीति में अनेक दोष पाए जाते हैं-(1) अधिकांश ऋणों का नकद दिया जाना, (ii) ऋण के लिए जमानत अवश्य लेना, (iii) ऋणराशि का अपर्याप्त होना, (iv) ऋण के प्रयोग पर नियन्त्रण न होना, (v) ऋण देने में काफी समय लगाना, (vi) अधिकांश ऋणों का बड़े किसानों को मिलना आदि।
(6) असन्तुलित विकास– भारत मे सहकारी आन्दोलन का विकास सभी राज्यों में समान रूप से नहीं हो सका है। देश की 56% कृषि साख समितियाँ तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पंजाब तथा महाराष्ट्र इन पाँच राज्यों में ही केन्द्रित हैं। दूसरी ओर, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल आदि राज्यों में ऐसी समितियों की कमी है।
(7) पूँजी की कमी- सहकारी साख समितियों के पास कार्यशील पूंजी की कमी रहती है, जिस कारण ये सदस्यों को पर्याप्त मात्रा में ऋण प्रदान नहीं कर पातीं।
(8) लोचहीन कार्यप्रणाली- समितियों के ऋण देने सम्बन्धी नियम इतने कठोर हैं कि सदस्यों को विवश होकर आवश्यकता के समय महाजनों आादि से ऊंची ब्याज दर पर ऋण सेना पड़ता है।
(9) अनार्थिक तथा निष्क्रिय समितियाँ- देश की लगभग 30 से 40% तक सहकारी समितियाँ निष्क्रिय रहती हैं जबकि अनेक समितियों हानि की स्थिति में काम करती रहती हैं। कुछ समितियों का अस्तित्व तो केवल कागज पर ही होता है।
(10) सदस्यों की अशिक्षा- अधिकांश सहकारी समितियों गाँव-स्तर पर गठित की जाती हैं और भारतीय गाँवों में अधिकांश व्यक्ति अशिक्षित होते हैं जो सहकारी समितियों की कार्यप्रणाली को समझ नहीं पाते हैं।
(11) अकुशल प्रवन्ध– समितियों के सदस्यों की अशिक्षा तथा कर्मचारियों व पदाधिकारियों में प्रशिक्षण की कमी के कारण इन संस्थाओं के प्रबन्ध में कुशलता का अभाव पाया जाता है।
(12) असीमित दायित्व – कुछ सहकारी संस्थाओं के सदस्यों के असीमित दायित्व के कारण धनी व्यक्ति ऐसी समितियों की सदस्यता ग्रहण करने में संकोच करते रहे हैं।
(13) संस्थाओं के स्वभाव में परिवर्तन- भारत में प्राथमिक साख समित्तियों को कभी बहुद्देशीय समितियों का रूप दिया गया है तो कभी सेवा सहकारी समितियों का इससे ऐसी संस्थाएँ समुचित प्रगति नहीं कर पाई है।
(14) समन्वय की कमी- देश की सहकारी समितियों में परस्पर समन्वय का नितान्त अभाव है। एक ही प्रकार की दो सहकारी समितियों में परस्पर एक-दूसरे को सलाह देने या सहायता करने की प्रवृत्ति नहीं पायी जाती।
(15) व्यापारिक सिद्धान्तों की उपेक्षा- अनेक सहकारी समितियों व्यापारिक सिद्धान्तों की उपेक्षा करके हानि का शिकार हो जाती हैं।
(16) सेवा भाव के बजाय स्वार्थ भाव- सहकारी संस्थाओं के अधिकांश सदस्य स्वार्थ सिद्धि की भावना से कार्य करते हैं न कि सेवा-भाव से आवश्यकता पड़ने पर तो वे समिति के सदस्य बन जाते हैं, किन्तु काम निकल जाने पर वे सदस्यता का परित्याग कर देते हैं।
(17) पर्यवेक्षण, निरीक्षण तथा अंकेक्षण सम्बन्धी दोष- भारत में सहकारी संस्थाओं के पर्यवेक्षण, निरीक्षण तथा अंकेक्षण सम्बन्धी समुचित व्यवस्था की कमी है। अधिकांश पर्यवेक्षक, निरीक्षक तथा अंकेक्षक अकुशल तथा अयोग्य पाए जाते हैं।
(18) स्त्रियों की उपेक्षा- दुर्भाग्यवश भारत में सहकारी आन्दोलन में स्त्रियों का योगदान बहुत कम है।
(19) उचित नेतृत्व की कमी- देश की अधिकांश सहकारी समितियों पर बड़े-बड़े भूस्वामियों, व्यापारियों, महाजनों आदि का प्रमुख है जिस कारण जरूरतमंद व्यक्तियों को इन समितियों से बहुत कम सुविधाएं मिल पाती है।
सहकारी आन्दोलन को सफल बनाने के लिए सुझाव
(1) सहकारी शिक्षा की व्यवस्था- देश की अशिक्षित जनता को सहकारिता के सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान करने तथा सहकारी प्रणाली के प्रति उनमें रूचि उत्पन्न करने के लिए देश में सहकारी शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। इससे सहकारिता का प्रचार भी होगा।
(2) सरकारी हस्तक्षेप में कमी- सरकार को सहकारी संस्थाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सरकार का कार्य तो इन संस्थाओं का केवल मार्गदर्शन करना तथा इनकी गतिविधियों पर नियन्त्रण रखना होना चाहिए।
(3) सन्तुलित विकास- उन राज्यों में सहकारी आन्दोलन के विकास पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, जहाँ इसका विकास अपेक्षाकृत कम हुआ है।
(4) सर्वागीण विकास- भारत में गैर-साख सहकारी समितियों की स्थापना तथा उनके विकास पर भी समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए।
(5) ऋण-नीति में सुधार- सहकारी साख समितियों की ऋण-नीति में ये सुधार किए जा सकते हैं–(1) ऋणों का अधिकांश भाग वस्तुओं के रूप में दिया जाये (II) जहाँ तक सम्भव हो केवल उत्पादक कार्यों के लिए ही ऋण दिए जाएँ। केवल परमावश्यक होने पर ही अनुत्पादक कार्यों के लिए ऋण दिए जाएँ, अन्यथा कृषक महाजनों के चंगुल में फंस जाएंगे। (iii) ऋणराशि न तो कम होनी चाहिए तथा न ही अधिक (iv) जमानते नाममात्र की होनी चाहिए। (v) ऋणों के उपयोग पर समुचित नियन्त्रण रखा जाए। (vi) ऋण देने में अनावश्यक विलम्ब न किया जाए। (vii) अधिक मात्रा में अतिदेय न बनाए जाएं।
(6) समितियों का पुनर्गठन– देश में सहकारी संस्थाओं का पुनर्गठन करके निष्क्रिय तथा अनार्थिक समितियों को बन्द कर देना चाहिए। हाँ जो निष्क्रिय समितियाँ सक्रिय हो सकती हैं उन्हें सक्रिय बनाने की चेष्टा की जानी चाहिए। इसी प्रकार अनार्थिक समितियों को आर्थिक बनाने की चेष्टा की जानी चाहिए।
(7) आन्तरिक साधनों में वृद्धि- सहकारी संस्थाओं को अपनी कार्यशील पूँजी में वृद्धि करने के लिए सरकारी सहायता पर निर्भर रहने के बजाय अपने आन्तरिक साधनों में वृद्धि करनी चाहिए। इससे समितयों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी तथा वे आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में सफल हो सकेंगी।
(8) सीमित दायित्व– असीमित दायित्व वाली समितियों को सीमित दायित्व के सिद्धान्त को अपनाना चाहिए ताकि धनी व्यक्ति भी सहकारी संस्थाओं के सदस्य बन सकें।
(9) सहकारी प्रशिक्षण- सहकारी संस्थाओं के पदाधिकारियों तथा कर्मचारियों के प्रशिक्षण के लिए समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए। इससे सहकारी संस्थाओं की कुशलता में वृद्धि होगी।
(10) स्त्रियों का अधिक योगदान- सरैया समिति ने सुझाव दिया है कि भारत में सहकारी आन्दोलन की सफलता के लिए स्त्रियों को सहकारी संस्थाओं में अधिक योग प्रदान करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
(11) विभिन्न अंगों में समन्वय- सहकारी आन्दोलन की तीव्र प्रगति के लिए आन्दोलन के विभिन्न अंगो (साख, विपणन, खेती, वितरण आदि) में परस्पर समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए। इससे सहकारी संस्थाओं के लिए एक समन्वित कार्यक्रम तैयार किया जा सकेगा।
(12) कुशल नेतृत्व- इस बात के प्रयास किए जाएँ कि लोग अपनी दलगत गुटबन्दी को समाप्त करके उत्साही, दूरदर्शी तथा कुशल व्यक्तियों को सहकारी संस्थाओं का नेतृत्व प्रदान करें।
(13) सहकारी अनुसंधान- सहकारी संस्थाओं की विभिन्न समस्याओं के अध्ययन तथा समाधान हेतु सरकार को सहकारी अनुसंधान पर समुचित ध्यान देना चाहिए।
(14) कुशल पर्यवेक्षण, निरीक्षण तथा अंकेक्षण- इसके लिए आवश्यक है कि केवल योग्य, ईमानदार तथा प्रशिक्षित व्यक्ति ही सहकारी संस्थाओं के पर्यवेक्षक, निरीक्षक तथा अकेक्षक नियुक्त किए जाएँ।
(15) स्थानीय संस्थाओं का सहयोग- ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत राज की संस्थाओं तथा पूरक सहकारी संगठनों के कार्यक्रमों में समन्वय होना चाहिए।
(16) आन्दोलन को लोकप्रिय बनाना- देश में सहकारी आन्दोलन को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार तथा सहकारी संस्थाओं के नेताओं द्वारा सक्रिय तथा प्रभावी कदम उठाने चाहिए। तभी यह जनता का आन्दोलन बन सकेगा। जनता को समझाया जाए कि ‘सहकारिता’ सरकारी नीति नहीं वरन एक ‘जीवित गत्यात्मक शक्ति’ है।
(17) सुनिश्चित दीर्घकालीन नीति का निर्धारण- सहकारी संस्थाओं के स्वभाव को बार-बार परिवर्तित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि एक दीर्घकालीन नीति तैयार की जानी चाहिए जिसके अनुसार सहकारी संस्थाएं कार्य करती रहे।
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