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साझेदार के दिवालिया होने का क्या आशय है?

साझेदार के दिवालिया होने का क्या आशय है?
साझेदार के दिवालिया होने का क्या आशय है?

साझेदार के दिवालिया होने का क्या आशय है? दिवालिया साझेदार की पूँजी की कमी को भारतीय पद्धति तथा गार्नर बनाम मर्रे नियम के अनुसार शोधक्षम्य साझेदारों द्वारा किस प्रकार वहन किया जाता है?

साझेदार के दिवालिया होने का क्या आशय है?

साझेदार के दिवालिया होने का आशय- फर्म के विघटन के समय यदि किसी साझेदार के पूँजी खाते में (सभी समायोजनाओं के बाद) जमा शेष बचता है, तो उसको वह जमा शेष (पूँजी) वापस कर दी जाती है और यदि किसी साझेदार के पूँजी खाते में कमी या डेबिट शेष’ हो तो इस कमी को वह साझेदार स्वयं पूरा करता है अर्थात् इस कमी को पूरा करने के लिए नकद पूँजी लाता है। लेकिन जब कोई साझेदार अपनी पूँजी की कमी या पूँजी खाते के डेबिट शेष लाने में असमर्थ होता है और उसकी सम्पत्ति भी से इतना वसूल नहीं किया जा सकता है। कि उसकी पूँजी की कमी व उसके दायित्वों को पूरा किया जा सके तो एक निर्धारित प्रक्रिया अपनाने के बाद उसे दिवालिया घोषित किया जाता है।

भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 की धारा 42 के अनुसार, “एक साझेदार के दिवालिया जो जाने पर फर्म का अन्त हो जाता है। अतः जब एक साझेदारी फर्म का अन्त किसी साझेदार के दिवालिया होने के कारण होता है तो इसका आशय यह है कि दिवालिया साझेदार फर्म के प्रति अपने दायित्व का भुगतान करने में असमर्थ है अर्थात् वह अपने हिस्से की हानि एवं पूँजी खाते की कमी को पूरा करने में सक्षम नहीं है।”

संक्षेप में, जब किसी साझेदार के दायित्व उसकी रोकड़ एवं अन्य सम्पत्तियों से अधिक हो जाते हैं, जिनका भुगतान करने में वह असमर्थ होता है, तो एक निर्धारित प्रक्रिया अपनाने के बाद उसको दिवालिया घोषित किया जाता है।

भारतीय पद्धति के अनुसार दिवालिया साझेदार की पूँजी की कमी को पूरा करना भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अनुसार, प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित होता अतः किसी साझेदार के दिवालिया होने पर फर्म की सम्पत्ति में होने वाली कमी या दिवालिया साझेदार की पूँजी कमी को पूरा करने का दायित्व अन्य किसी (शोधक्षम्य या सक्षम) साझेदारों का होता है।

अब यहाँ पर सवाल इस बात का उत्पन्न होता है कि शेष साझेदार या सक्षम साझेदार दिवालिया की ‘कमी’ को किस अनुपात मे पूरा करेंगे ?

1903 से पूर्व दिवालिया साझेदार की पूंजी की कमी को शेष या सक्षम साझेदार अपने लाभ-हानि विभाजन के अनुपात में पूरा करते हैं, किन्तु मार्नर बनास मरे नामक विवाद के पश्चात् मुकदमें में हुए निर्णय के अनुसार, “दिवालिया साझेदार की पूँजी कमी को शोधक्षम्य साझेदार अपनी पूँजी के अनुपात में पूरा करेंगे।”

गार्नर बनाम मरें, नियम के अनुसार दिवालिया साझेदार की पूँजी की कमी को निम्न प्रकार से पूरा किया जाएगा-

(1) दिवालिया साझेदार की पूँजी की कमी को शोधक्षम्य साझेदारों में पूंजी के अनुपात में बाँटा जाएगा।

(2) पूँजी का अनुपात उस पूँजी के आधार पर निकालना चाहिए जो विघटन के ठीक पूर्व बने हुए चिट्ठे में थी। इस सम्बन्ध में यह पता करना आवश्यक है कि माझेदारों की पूंजी स्वामी है या अस्थायी।

(A) स्थायी पूँजी होने पर- स्थायी पूँजी होने की स्थिति में आर्थिक चिट्ठे में शोधक्षम्य साझेदारों की जो पूँजी दी गयी हो, उसी के अनुपात में दिवालिया साझेदार की कमी बाँटी जायेगी।

(B) अस्थायी पूँजी होने पर- अस्थायी पूँजी होने की स्थिति में शोधक्षम्य साझेदारों की पूँजी में चिट्ठे में दिखाया गयी संचित/संचय/संचित कोष एवं अविभाजित लाभ या हानि को उनके लाभ-हानि विभाजन के अनुपात में समायोजित कर दिया जायेगा। इस प्रकार समायोजन के पश्चात् बची हुई भूमि का अनुपात निकाला जायेगा।

(3) वसूली की हानि को सभी साझेदारों में लाभालाभ अनुपात में बाँटना चाहिए।

(4) सभी शोधक्षम्य साझेदार अपने हिस्से की वसूली लाभ के बराबर रोकड़ लायेंगे, जिसे उनके पूँजी खाते में जमा कर दिया जाएगा और रोकड़ खाते को डेबिट किया जाएगा।

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Anjali Yadav

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