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सीमान्त उत्पादकता क्या है? (What is Marginal Productivity ?)
वितरण के इस सिद्धान्त को समझने के लिए पहले सीमान्त उत्पादकता के विभिन्न अर्थों को जानना परमावश्यक है-
सीमान्त उत्पादकता का अर्थ (Meaning of Marginal Productivity)
उत्पादन के साधन की एक अतिरिक्त इकाई लगाने से कुल उत्पादकता में जो वृद्धि होती है उसे ‘सीमान्त उत्पादकता” कहते हैं। अर्थशास्त्र में ‘सीमान्त उत्पादकता’ की अवधारणा का प्रयोग निम्नलिखित तीन अर्थों में किया जाता है-
(i) सीमान्त भौतिक उत्पादकता (Marginal Physical Productivity)-जब सीमान्त उत्पादकता को उत्पादन मात्रा में होने वाली वृद्धि के रूप में व्यक्त किया जाता है तो उसे ‘सीमान्त भौतिक उत्पादकता’ कहा जाता है। एम० जे० उमर (M. J. Ulmer) के शब्दों में, “अन्य बातों के समान रहने पर किसी एक साधन की अतिरिक्त इकाई का प्रयोग करने से कुल उत्पादन में जो वृद्धि होती है उसे सीमान्त भौतिक उत्पादकता कहा जाता है।” उदाहरणार्थ, 11 श्रमिक 110 मीटर कपड़ा तैयार करते हैं। बारहवें श्रमिक को लगाने से कुल उत्पादन बढ़कर 119 मीटर कपड़ा हो जाता है तो बारहवें श्रमिक को भौतिक उत्पादकता (MPP) = 119 मीटर – 110 मीटर = 9 मीटर कपड़ा होगी।
(ii) सीमान्त आय उत्पादकता (Marginal Revenue Productivity)-इसे मुद्रा के रूप में मापा जाता है। उत्सर के शब्दों में, “अन्य सभी बातें समान रहने पर, किसी साधन की एक अतिरिक्त इकाई का प्रयोग करने से कुल आय में जो वृद्धि होती है उसे सीमान्त आय उत्पादकता कहा जाता है।”
सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) ज्ञात करने के लिए सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) को सीमान्त आय (MR) में गुणा किया जाता है। सूत्र के रूप में MRP MPP X MR
उदाहरण के लिए, 5 अमिक 1,000 रु० के मूल्य का कपड़ा तैयार करते हैं। यदि छठे श्रमिक को लगाने से कपड़े का उत्पादन बढ़कर 1.180 रु० हो जाता है तो छठे श्रमिक की सीमान्त आय उत्पादकता 1,180 रु० 1,000 रु0 1800 होगी।
(iii) सीमान्त उत्पादकता का मूल्य (Value of Marginal Productivity)–एक साधन की सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) को औसत आय (AR) या कीमत से गुणा करके सीमान्त उत्पादकता का मूल्य (VMP) निकाला जा सकता है। सूत्र के रूप में, VMP = MPP AR (Price)
पूर्ण प्रतियोगिता में MR तथा AR बराबर होते हैं (AR =MR) अतः पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत MRP VMP की स्थिति होती है|
सिद्धान्त की मान्यताएँ (Assumptions)-सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की विस्तृत व्याख्या से पूर्व निम्नलिखित वस्तु का विक्रय पूर्ण प्रतियोगी बाजार में किया जाता है। इस कारण मान्यताओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक है-
(1) वस्तु बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता- उत्पादित फर्म की सीमान्त आय तथा औसत आय बराबर होगी; अर्थात् फर्म द्वारा उत्पादन बढ़ाने पर कीमत में कोई अन्तर नहीं आयेगा।
(2) साधन बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता- साधन बाजार में भी पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है जिस कारण प्रत्येक फर्म को साधन की प्रचलित कीमत देनी पड़ती है।
(3) साधनों की पूर्ण गतिशीलता- साधनों की इकाइयों के पूर्णतया गतिशील (perfectly mobile) होने के कारण एक साधन की कीमत विभिन्न व्यवसायों में समान होगी।
(4) साधनों की समरूपता-उत्पादन के किसी भी साधन-विशेष की सभी इकाइयाँ समरूप होती हैं।
(5) साधनों का प्रतिस्थापन सम्भव-उत्पादन के साधनों का एक दूसरे से प्रतिस्थापन (substitution) किया जा सकता है, जैसे पूँजी के स्थान पर श्रम का प्रयोग किया जा सकता है।
(6) साधनों का विभाजन सम्भव-उत्पादन के विभिन्न साधनों का छोटी-छोटी इकाइयों में प्रयोग किया जा सकता है; अर्थात् उत्पादन की मात्रा में कमी या वृद्धि करने के लिए साधनों की इकाइयों (मात्रा) को घटाया बढ़ाया जा सकता है।
(7) परिवर्तनशील साधन-संयोग-उत्पादन के साधनों का विभिन्न अनुपातों में प्रयोग किया जा सकता है। अर्थात् किसी एक साधन की मात्रा को, अन्य साधनों की स्थिर मात्रा के साथ घटाया या बढ़ाया जा सकता है।
(8) उत्पादन-तकनीक का स्थिर होना- इस सिद्धान्त की यह भी मान्यता है कि उत्पादन-तकनीक में कोई परिवर्तन नहीं होता।
(9) सीमान्त उत्पत्ति हास नियम का क्रियाशील होना-वस्तु के उत्पादन में सीमान्त उत्पत्ति हास नियम (Law of Diminishing Returns) लागू होता है।
(10) पूर्ण रोजगार- अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि साधन की पूर्ति स्थिर रहती हैं।
(11) अधिकतम लाभ-उत्पादन करने का उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है।
(12) दीर्घकाल—यह सिद्धान्त दीर्घकाल की मान्यता पर आधारित है।
(13) सीमान्त उत्पादकता का माप सम्भव-उत्पादन के प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादकता को मापा जा सकता है।
फर्म की दृष्टि से सिद्धान्त का स्पष्टीकरण- पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादन के साधन की कीमत, जैसे श्रम की मजदूरी दर उद्योग द्वारा सामूहिक मांग तथा पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित होती है। अतः किसी फर्म को केवल यह तय करना होता है कि कितने श्रमिकों को रोजगार प्रदान करना है। एक फर्म पूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था में किसी भी साधन की उस मात्रा को काम पर लगायेगी जिस पर उस सावन की कीमत तथा सीमान्त उत्पादकता मूल्य बराबर हो जाते हैं। अतः एक फर्म की दृष्टि से इस सिद्धान्त द्वारा यह ज्ञात होता है कि फर्म द्वारा किसी साधन की कितनी माँग की जायेगी।
अन्य बातें समान रहने पर, एक फर्म जैसे जैसे श्रमिकों को रोजगार देगी वैसे-वैसे श्रमिकों की सीमान्त भौतिक उत्पादकता (MPP) कम होती जायेगी। पूर्ण प्रतियोगी बाजार में वस्तु की कीमत स्थिर रहने के कारण श्रम की सीमान्त भौतिक उत्पादकता में कमी के साथ-साथ सीमान्त आय उत्पादकता (MRP) भी कम होती जायेगी। एक फर्म अधिकतम लाभ कमाने के उद्देश्य से केवल उस संख्या तक श्रमिकों को रोजगार पर लगायेगी जिस पर श्रम की सीमान्त जाय उत्पादकता तथा श्रम की मजदूरी (कीमत) बराबर हो जाते हैं। संक्षेप में, दीर्घकाल में पूर्ण प्रतियोगिता तथा पूर्ण रोजगार की स्थिति में उत्पादन के किसी साधन की कीमत उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर होती है, अर्थात् – साधन का पारिश्रमिक या कीमत = सीमान्त उत्पादकता।
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