कृषि अर्थशास्त्र / Agricultural Economics

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Marginal Productivity Theory)

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Marginal Productivity Theory)
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Marginal Productivity Theory)

सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Marginal Productivity Theory)

बीजर, फ्रेजर, हाब्सन आदि अर्थशास्त्रियों ने सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त में मुख्यतया निम्नलिखित निकाले है-

(1) अवास्तविक मान्यताएँ- सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त कई अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित है, जैसे पूर्ण प्रतियोगिता, साधनों की पूर्ण गतिशीलता, पूर्ण रोजगार आदि की मान्यताएँ (1) वास्तविक जीवन में पूर्ण प्रतियोगिता के स्थान पर अपूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है। (ii) उत्पादन के साधनों की गतिशीलता भी अपूर्ण होती है। (iii) विश्व के अधिकतर देशों में पूर्ण रोजगार की अवस्था नहीं पायी जाती अवास्तविक मान्यताओं के कारण इस सिद्धान्त व्यावहारिक महत्त्व बहुत कम हो जाता है।

(2) साधनों की असमान इकाइयाँ-इस सिद्धान्त की यह मान्यता भी पूर्णतया गलत है कि साधनों की विभिन्न इकाइयाँ समरूप होती हैं। वास्तव में उत्पादन के प्रत्येक साधन की विभिन्न इकाइयों में असमानता पायी जाती है। उदाहरणार्थ, सभी श्रमिक एक जैसे कार्यकुशल नहीं होते, भूमि के विभिन्न टुकड़े एक जैसे उपजाऊ नहीं होते आदि।

(3) सापनों की अविभाज्यता- सिद्धान्त की यह मान्यता भी अव्यावहारिक है, क्योंकि सभी उत्पादन-साधनों को छोटे-छोटे भागों में विभाजित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, बड़ी-बड़ी मशीनों को छोटे-छोटे भागों में विभक्त किया जा सकता है।

(4) एकपक्षीय तथा अपूर्ण सिद्धान्त-इस सिद्धान्त में साधनों के केवल माँग पक्ष की ही व्याख्या की गयी है, साधनों की पूर्ति को स्थिर मान लिया गया है। अल्पकाल में तो किसी साधन की पूर्ति स्थिर हो सकती है किन्तु दीर्घकाल में साधनों को पूर्ति में परिवर्तन होता रहता है। फिर साधनों के कीमत निर्धारण पर उनकी माँग व पूर्ति दोनों का ही प्रभाव पड़ता है।

(5) दीर्घकालीन सिद्धान्त- यह सिद्धान्त दीर्घकालीन स्थिर अवस्था की मान्यता पर आधारित है। किन्तु हमारी वास्तविक समस्या तो अल्पकाल या वर्तमान की होती है न कि दीर्घकाल की। अल्पकाल में रुचि, माँग, उत्पादन-तकनीक, जनसंख्या आदि अनेक आर्थिक तत्त्वों में परिवर्तन के कारण गत्यात्मक (dynamic) अवस्था पायी जाती है।

(6) सीमान्त उत्पादकता के माप में कठिनाइयाँ–व्यवहार में इस सिद्धान्त के अनुसार कई कारणों से सीमान्त उत्पादकता को मापना सम्भव नहीं है। सीमान्त उत्पादकता को तभी मापा जा सकता है जबकि उत्पादन के अन्य साधनों की संख्या (या मात्रा) दिनां परिवर्तन किए हुए केवल एक साधन जैसे श्रमिकों की संख्या में परिवर्तन करके उत्पादन को बढ़ाया जा सके। किन्तु उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रायः श्रमिकों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ कच्चे माल, यन्त्र, मशीनरी आदि की मात्रा को भी बढ़ाना आवश्यक होता है। फिर उद्यमी तो प्रायः अकेला होता है। अतः उसकी सीमान्त उत्पादकता को कैसे मापा जायेगा?

(7) बड़े उद्योगों में सीमान्त उत्पादकता की गाप में कठिनाई-बड़े उद्योगों में उत्पादन के साधन की एक इकाई कम या अधिक का प्रयोग करने से कुल उत्पादन में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जैसे, लोहे के एक कारखाने में 9.500 श्रमिक काम कर रहे हैं, यदि वहाँ श्रमिकों की संख्या बढ़ाकर 9,501 कर दी जाए तो कुल उत्पादन में सम्भवतया कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। किन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता शून्य है।

(8) साधनों के अनुपात में परिवर्तन सदैव सम्भव नहीं- उदाहरण के लिए, एक टैक्सी-कार में एक ड्राइवर ही होता है। इस अनुपात को नहीं बदला जा सकता, अर्थात् एक टैक्सी कार में दो ड्राइवर नहीं रखे जा सकते। इस प्रकार ऐसी स्थिति में सीमान्त उत्पादकता को मापा नहीं जा सकता।

(9) साधनों के प्रतिस्थापन की गलत मान्यता- इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों का यह मानना गलत है कि उत्पादन के साधनों का एक-दूसरे से प्रतिस्थापन किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, भूमि के कार्य को श्रमिक द्वारा नहीं कराया जा सकता।

(10) शोषण का सिद्धान्त- आलोचकों के अनुसार इस सिद्धान्त के अन्तर्गत साधनों की पूर्व सीमान्त इकाइयों का शोषण (exploitation) होता है। पूर्व सीमान्त इकाइयों की सीमान्त उत्पादकता सीमान्त इकाई से अधिक होने पर भी उन्हें सीमान्त इकाई के बराबर ही पारिश्रमिक (कीमत) दिया जाता है, अतः उनका शोषण होता है।

(11) साधन-कीमत निर्धारण में असफल- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में प्रत्येक फर्म को साधन की प्रचलित कीमत देनी पड़ती है जो उद्योग द्वारा निर्धारित होती है। अतः यह सिद्धान्त एक साधन की कीमत को नहीं वरन उसकी केवल माँग को ही निर्धारित करता है।

(12) कारण व परिणाम सम्बन्धी दोषपूर्ण निष्कर्ष – प्रो० क्लार्क (Clark) के अनुसार साधन के कीमत निर्धारण में ‘सीमान्त उत्पादकता’ कारण (Cause) होती है जबकि ‘साधन-कीमत’ परिणाम (result) होती है। किन्तु प्रो० वेबल्स (Webis) के अनुसार साधन-कीमत का भी उसकी सीमान्त उत्पादकता पर प्रभाव पड़ता है। कैसे? एक साधन को अधिक पारिश्रमिक (कीमत) देकर उसकी कुशलता में वृद्धि करके उसकी सीमान्त उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में साधन-कीमत कारण होगी जबकि सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि उसका परिणाम होगी।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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