सूर की गोपियों की वाक्पटुता का परिचय दीजिए।
सूर की वाग्विदग्धता की सबसे बड़ी विशेषता है वह उक्ति चमत्कार से उद्भूत नहीं हुई है अपितु वह सहृदयता के समावेश से उत्पन्न है। उद्धव द्वारा गोपियों के प्रेम सरोवर में ज्ञान और योग के कंकण फेंकने पर भावावेश की लहरें उत्पन्न होने लगती हैं और सरल वक्रोक्तियों के रूप में प्रकट होने लगती हैं। जब उद्धव निर्गुण ब्रह्म की साधना का उपदेश देते हैं, तब गोपिकायें सहज एवं सरल शब्दों द्वारा अपनी वाक्पटुता प्रदर्शित करती हैं-
“मधुकर मन तौ एकै आहि ।
सो तौ लै हरि संग सिधारे जोग सिखात काहि ॥
वाणी का कैसा वैदग्ध है। गोपियों का कथन है कि मन तो एक ही है वह तो कृष्ण के साथ चला गया है अब तुम यह योग का उपदेश किसको सिखाने आये हो?
गोपियां कृष्ण के एक एक अंग की उपमा की सार्थकता सिद्ध करते हुए व्याख्या सी करती हैं। उनका कथन है कि कृष्ण के शरीर के अंग अंग में कुटिलता और धोखा देने की प्रवृत्ति है। वे निरन्तर कृष्ण के प्रति अपनी भावनाओं को नये तरीके से चित्रित करती हैं।
‘ऊधौ अब हम समुझ भई।
नन्द नन्दन के अंग-अंग प्रति उपमा न्याय दई ।।
गोपियां अपने वाकू चातुर्य से उद्धव की गति को भ्रमित सा कर देती हैं। वे उद्धव पर अपनी धाक जमा लेती हैं। वे उद्धव से कहती हैं कि तुम यह उपदेश देना छोड़कर कोई अन्य प्रसंग चलाओ। शायद् तुम मार्ग भूलकर इस ओर चले आये हो । कृष्ण ने तुम्हें किसी अन्य स्थान के लिए भेजा होगा।
“ऊधौ ! जाहु तुमहि हम जाने।
श्याम तुम्हें हयाँ नाहिं पठायौ
तुम हौ बीच भुलाने || “
और यदि हमारे प्रियतम कृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा ही है, तो इसमें कोई रहस्य की बात ही होगी-
“साँच कहौं तुमको अपनी सौं बूझति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुमहि पठायौ,
तब कहु मुसकाने।”
गोपियाँ उद्धव की ज्ञान चर्चा को अपने लिए अनुपयुक्त मानती हैं-
“ऊधौ ! जोग जोग हम नाहीं अबला सार ज्ञान कहा जाने, कैसे ध्यान धराहीं ॥ “
गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश ब्रजभमि की प्रकृति के विपरीत प्रतीत होता है-
“ऊधौ ! कोकिल कूजत कानन
तुम हमको उपदेश करत हौं, भस्म लगावत आनन।”
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