स्थानिक वितरण की संकल्पना तथा स्थानिक अन्तर्किया की संकल्पना को समझाइये।
भूगोल मुख्यतः पृथ्वी तल पर तत्वों की स्थिति व उसके वितरण का अध्ययन करता है। यह किसी एक तत्व अथवा वस्तु का नहीं अपितु भूतल पर तत्वों की सामूहिकता का अध्ययन करता है। पृथ्वी तल तत्वों की विविधता व सामूहिकता का परिचायक है। वर्ष 1872 में सबसे पहिले एफ. मार्थे ने भूगोल को वितरण के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया । तदन्तर आगे चलकर कुछ भूगोल वेत्ताओं ने वितरण के साथ स्थानिक शब्द को जोड़ दिया। पृथ्वी तल पर प्रत्येक स्थान की अपनी एक विशिष्ट स्थिति होती है। यहाँ वितरण से आशय दो विशेष स्थिति वाले स्थानों की किन्हीं एक तत्व या गुण के तुलनात्मक अध्ययन से है। उदाहरण के लिए कपास उत्पादन के क्षेत्र भारत में दक्षिण का लावा प्रदेश, उत्तरी अमेरिका में मिसीसिपी का बेसिन, मिश्र में नील नदी का बेसिन का अध्ययन, इसी प्रकार मरूस्थलों में काला हारी, सहारा, थार, अटाकाभा का अध्ययन भौगोलिक वितरण के उदाहरण है।
कुछ भूगोलवेत्ता भौगोलिक अध्ययन में वितरणों के विश्लेषणों को अधिक महत्व देते हैं। लेकिन भूगोल का मुख्य उद्देश्य पृथ्वी तल पर स्थानों के गुणों या स्वरूपों को समझना है और वितरणों का अध्ययन इन स्वरूपों की पूर्ति करता है। यह भी सही है यदि तथ्यों को मानचित्र पर प्रदर्शित किया जाए तो उनमें स्थित क्षेत्रीय साहचर्य उससे स्पष्ट होता है। डा. कौशिक के अनुसार यदि फलों के उत्पादन के वितरण को मानचित्र पर प्रदर्शित करें तो अंगूर और जैतून का उत्पादन उन क्षेत्रों में देखने को मिलता है जहाँ शीतकालीन में वर्षा होती है और ग्रीष्म ऋतु शुष्क होती है। कुछ मामलों में यह साहचर्य स्पष्ट न होने पर इसके लिए सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है।
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स्थानिक वितरण के पक्ष
स्थानिक वितरण के तीन पक्ष होते हैं- (1) वितरण का घनत्व (2) विक्षेपण (3) प्रतिरूप। घनत्व से आशय किसी क्षेत्र में किसी तथ्य की बारम्बारता से हैं और विक्षेपण से उस क्षेत्र में उस तथ्य के फैलाव का पता चलता है। प्रतिरूप से आशय उस तथ्य के ज्यामितीय विन्यास से है। स्पष्ट है कि किसी तथ्य वितरण को समझने के लिए उपरोक्त तीनों पक्षों पर ध्यान देना आवश्यक है। यदि आप भारत में चना उत्पादक क्षेत्र के वितरण मानचित्र को देखें तो सर्वप्रथम घनत्व की दृष्टि से सर्वाधिक घनत्व वाले क्षेत्र पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान का पूर्वी भाग और उत्तरी मध्यप्रदेश है। कुछ इन से लगे क्षेत्रों में जैसे प. राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश के भागों में विरल उत्पादन होता है। उ. पू. भारत तथा दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में चना पैदा नहीं होता है। यह विक्षेपण का रूप है। प्रतिरूप की दृष्टि से चना उत्पादक क्षेत्र की दीर्घायत पेटी है जिसका मध्य भाग में दक्षिण की ओर उभार अधिक है। स्थानिक वितरण के अध्ययन से उस क्षेत्र में भौतिक एवं मानवीय तत्वों की समांगता का ज्ञान होता है। इस वितरण से उत्पादन क्षेत्र के धरातल, मिट्टी के उर्वरापन, जलवायु की समानता, मानवीय छाँट, कृषि तकनीक आदि के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। स्थानिक वितरण के अध्ययन से परिवर्तनशील तत्वों के क्षेत्रीय सम्बन्धों का पता लगाने का कार्य सरल हुआ है।
स्थानिक अन्तर्क्रिया की संकल्पना (Concept of Spatial Interaction)
पृथ्वी तल पर गतिशीलता एक स्वाभाविक प्राकृतिक प्रक्रिया है। उदाहरण के लिये जल की गतिशीलता अनेक पदार्थों को उनके मूल स्थान से दूर पहुँचा देती है। इसी प्रकार वायु द्वारा पेड़-पौधे, फल, बीज, पक्षी आदि को दूरस्थ स्थानों में पहुँचाया जाता है। वस्तुओं की गतिशीलता परिवहन के साधनों द्वारा और विचारों की गतिशीलता संचार के साधनों से होती है। मानव सर्वाधिक गतिशील प्राणी है जिसने अपने आवागमन के लिए अनेक साधनों का विकास किया। इस प्रकार स्पष्ट है कि यह गतिशीलता ही अन्तःक्रिया को जन्म देती है।
आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में कोई भी राष्ट्र आत्मनिर्भर नहीं हैं। विश्व के सभी राष्ट्र अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर है। इस परस्पर निर्भरता में विशिष्टीकरण ने और अधिक वृद्धि की है। प्राकृतिक दशाओं ने कृषि उपजों के उत्पादन में, खनिजों के उत्पादन में तथा मानवीय कौशल के विशिष्टीकरण ने वस्तु निर्माण के उत्पादन में प्रादेशिक विशेषीकरण को जन्म दिया है। उदाहरण के लिए प.. एशिया के देशों का तेल उत्पादन में विशिष्टीकरण है ये देश तेल निर्यात करके अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ दूसरे देशों से आयात करते हैं। पदार्थों व सेवाओं के इस विनिमय के लिए क्षेत्रों में परस्पर मधुर सम्बन्ध होना आवश्यक है। स्पष्ट है कि क्षेत्रीय विभिन्नता और क्षेत्रीय समन्वयकरण दोनों साथ-साथ उपस्थित रहते हैं। लेकिन यह स्थिति पैदा होने के लिए दोनों में अन्तर्क्रिया होना आवश्यक है। पहले स्पष्ट किया है कि अन्तर्क्रिया के लिए संचार प्रवाह आवश्यक है। इस कार्य में संचार साधन या परिवहन के साधनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि ये ही क्षेत्रों में समन्वय स्थापित करने में योगदान करते हैं।
पारस्परिक क्रिया में अभिगम्यता का अधिक प्रभाव होता है और अभिगम्यता का सम्बन्ध स्थानों की स्थिति से होता है। स्थानिक पारस्परिक क्रिया परिसंचरण पर आधारित होती है। परिसंचरण जितना अधिक होगा तो अन्तर्क्रिया भी उसी के अनुरूप बढ़ेगी। परिसंचरण की मात्रा परिवहन के साधनों की गति और अवरोध रहित मार्ग की उपस्थिति पर निर्भर रहती है। उदाहरण के लिए नेपाल की अन्य देशों के साथ अन्तर्क्रिया कम है क्योंकि दूसरे देशों से मगाँए माल के परिसंचरण के लिए इसे भारत पर निर्भर रहना पड़ता है। इस प्रकार केन्द्रीय स्थिति लाभप्रद होती है क्योंकि ये सभी दिशाओं से पहुँचने योग्य होते हैं।
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