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हरित क्रान्ति के लाभ (Advantages of Green Revolution )
भारत में कृषि क्षेत्र में घटित हरित क्रान्ति ने भारत की आर्थिक विकास प्रक्रिया को अत्यधिक प्रभावित किया है। हरित क्रान्ति से देश को मुख्यतया निम्न लाभ प्राप्त हुए हैं-
(1) कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि- हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप 1967-68 में तथा उसके बाद के वर्षों में खाद्यान्न के उत्पादन में तीव्रता से वृद्धि हुई है। गेहूं, चावल, बाजरा, मक्का तथा ज्वार के उत्पादन में विशेष रूप से आशातीत वृद्धि हुई है। सन् 1983-84 में देश में खाद्यान्नों का उत्पादन 15.15 करोड़ टन हुआ। सन् 1995-96 में खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़कर 185.0 मिलियन टन हो गया था जबकि सन् 2010-11 में यह बढ़कर 241.56 मिलियन टन हो गया था।
(2) कृषि का लाभदायक व्यवसाय होना- हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप कृषि के परम्परागत स्वरूप में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। पहले देश में जीवन निर्वाह खेती की जाती थी जबकि अब खेती व्यावसायिक दृष्टि से की जाती है, अर्थात् अब कृषि को एक लाभदायक व्यवसाय माना जाने लगा है।
(3) खाधान्तों के आयात में कमी- हरित क्रान्ति के परिणामस्वरूप सन् 1978 से 1980 तक खाद्यान्नों का आयात पूर्णतया बन्द कर दिया गया था। सन् 1980 के बाद खाद्यान्नों का उत्पादन कम होने के कारण कुछ खायान्नों का थोड़ी मात्रा में आयात किया गया। वर्ष 2009-10 में ₹497 करोड़ के मूल्य के अनाज तथा अनाज के उत्पादों का आयात किया गया।
(4) किसानों की समृद्धि- हरित क्रान्ति के फलस्वरूप किसानों की आर्थिक दशा में पर्याप्त सुधार हुआ है उनको आय में वृद्धि के कारण उनका जीवन स्तर पहले से ऊँचा हो गया है।
(5) किसानों के दृष्टिकोण में परिवर्तन- अधिकांश भारतीय कृषक अशिक्षित, रूढ़िवादी तथा अन्धविश्वासी होने के कारण खेती के पुराने ढंगों में कोई परिवर्तन नहीं चाहते थे। वे अपनी निर्धनता को अपने दुर्भाग्य का परिणाम मानते थे किन्तु हरित क्रान्ति ने भारतीय किसानों के विचारों में आमूल परिवर्तन कर दिए है। अब वे यह समझने लगे हैं कि ये खेती में आधुनिक वैज्ञानिक विधियों को अपनाकर अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिणत कर सकते हैं। वे भूमि की उत्पादकता में वृद्धि द्वारा कृषि उत्पादन को बढ़ाकर अपनी निर्धनता को दर कर सकते हैं।
(6) कीमतों पर प्रभाव— तीसरी योजनावधि में कीमतों में, विशेष रूप से कृषि वस्तुओं की कीमतों में, तीव्रता से वृद्धि हुई। किन्तु हरित क्रान्ति के बाद कीमतों में वृद्धि की गति कम हो गई। सन् 1961-62 में कीमत सूचकांक 100 था जो 1967-68 में बढ़कर 167 हो गया था। किन्तु हरित क्रान्ति के कारण यह 1968-69 में घटकर 165 रह गया सन् 1970-71 में कीमत सूचकांक में 1968-69 की अपेक्षा यद्यपि 8.7% की वृद्धि हुई किन्तु खायान्नों की कीमतों में केवल 0.1% की वृद्धि हुई सन् 1988-89 में खाद्यान्न का अधिक उत्पादन होने के कारण कीमतों में केवल 5.7% की वृद्धि हुई सन् 1990-91 में 12% तथा 1995-96 में 7.6% की वृद्धि हुई। सन् 1998-99 में खाद्यान्न की कीमतों में 6.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि 2000-01 में केवल 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। परिणामतः मुद्रास्फीति की दर भी कम हो गई है। इस प्रकार हरित क्रान्ति अनाज की कीमतों में वृद्धि की प्रवृत्ति को रोकने में सहायक सिद्ध हुई।
(7) उपभोक्ताओं पर प्रभाव- भारत की अधिकांश जनता निर्धन है जो अपनी आय का लगभग 80% भाग कृषि-पदार्थो पर खर्च करती है। इसलिए कृषि-पदार्थों के उत्पादन और उनकी कीमतों में होने वाले परिवर्तन का उपभोक्ताओं के बजट और जीवन स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हरित क्रान्ति के कारण कृषि-पदार्थों की कीमतें नियन्त्रण में रही हैं। अतः हरित क्रान्ति भारतवासियों के बजट को सन्तुलित करने और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाने में सहायक सिद्ध हुई है।
(8) लाभ का पुनर्निवेश- हरित क्रान्ति से प्रोत्साहित होकर किसान अपनी बढ़ी के पर्याप्त भाग को खेती के कार्यों में लगाने लगे हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार किसान अपनी पारिवारिक आय के 55% भाग का कृषि के विकास में पुनर्निवेश कर रहे हैं। इसमें से 36% अल्पकालीन निवेश है और 19% निवेश दीर्घकालीन है जो भूमि सुधार और कृषि यन्त्रों पर किया जाता है।
(9) उद्योगों का विकास- हरित क्रान्ति के कारण कृषि यन्त्रों के उद्योगों का बहुत अधिक विकास हुआ है। ट्रैक्टर बनाने की बड़ी बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित की गई है। सार्वजनिक क्षेत्र में रासायनिक खाद के अनेक कारखाने खोले गए हैं। इसके अतिरिक्त, डीजल इंजन, पम्पिंग सेट, थ्रेशर आदि बनाने के कारखानों का विकास तथा विस्तार हुआ है।
(10) व्यापार पर प्रभाव- खाधात्र के उत्पादन में वृद्धि, किसानों की आय में वृद्धि, उपभोक्ताओं की मांग में वृद्धि आदि के कारण व्यापार का विकास तथा विस्तार हुआ है। देश के अनेक शहरों में नई अनाज मण्डियों की स्थापना की गई है।
(11) रोजगार में वृद्धि- कृषि, व्यापार तथा उद्योग-धन्धों के विकास एवं विस्तार के कारण देश में रोजगार अवसरों में वृद्धि हुई है।
(12) योजनाओं पर प्रभाव- हरित क्रान्ति का पंचवर्षीय योजनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा है। तीसरी योजनावधि में कृषि उत्पादन में कमी के कारण चौथी योजना को स्थगित करना पड़ा। किन्तु सन् 1967-68 तथा 1968-69 में कृषि उत्पादन में असाधारण वृद्धि के कारण चौथी योजना को अप्रैल 1969 में लागू कर दिया गया। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप चौथी योजना का आकार भी बड़ा हो गया था। तत्पश्चात् पाँचवीं, छठीं तथा सातवीं योजनाओं को तैयार करने में हरित क्रान्ति के अर्थव्यवस्था पर प्रभावों को ध्यान रखा गया। प्रो० दांतेवाला के अनुसार, “हरित क्रान्ति ने सांस लेने का समय दिया है। इसके फलस्वरूप खायात्र की कमी की चिन्ता से छुटकारा मिलेगा तथा नियोजकों का ध्यान भारतीय योजनाओं की ओर लगेगा।” निःसन्देह हरित क्रान्ति ने पंचवर्षीय योजनाओं के आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की प्राप्ति को सरल कर दिया है।
हरित क्रान्ति के दोष एवं समस्याएँ
हरित-क्रान्ति के उपर्युक्त लाभों के बावजूद इसके कुछ दोष भी सामने आए हैं जिनके कारण देश में कुछ समस्याएँ भी उत्पन्न हो गई हैं। हरित क्रान्ति के प्रमुख दोष निम्नांकित हैं-
(1) सीमित प्रभाव- हरित क्रान्ति के कारण कृषि उत्पादन में होने वाली वृद्धि कुछ फसलों तक ही सीमित रही है। इसका प्रभाव मुख्य रूप से गेहूँ, मक्का, ज्वार तथा बाजरा पर ही पड़ा है। प्रमुख फसल चावल पर इसका कम प्रभाव पड़ा है। दालों उत्पादन पर हरित क्रान्ति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है। इसके अतिरिक्त, कपास, जूट, चाय, तिलहन, गत्रा आदि व्यापारिक फसलों के उत्पादन में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हो पाई है।
(2) कुछ राज्यों तक सीमित- हरित क्रान्ति सारे देश में नहीं फैल पाई है बल्कि इसका प्रभाव कुछ राज्यों तक ही सीमित रहा है जिनमें पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा आन्ध्र प्रदेश के कुछ जिले जाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बिहार आदि पिछड़े राज्यों की स्थिति अब भी पहले जैसी ही है। इस प्रकार हरित क्रान्ति के फलस्वरूप क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि हुई है।
(3) केवल बड़े किसानों को लाभ- हरित क्रान्ति से केवल धनी तथा बड़े किसानों को लाभ हुआ है जो महँगे कृषि यन्त्र तथा काले बाजार में उन्नत बीज, खाद आदि खरीद सकते हैं। फिर बड़े किसानों को सरकार, बैंकों, सहकारी साख समितियों आदि से साख सुविधाएँ भी मिल जाती हैं। निर्धन किसान इन सुविधाओं से लाभान्वित नहीं हो सका है। देखा जाए तो हरित क्रान्ति के कारण देश में पूंजीवादी कृषि को प्रोत्साहन मिला है।
(4) आर्थिक असमानता में वृद्धि- हरित क्रान्ति के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक असमानता बढ़ी है जबकि योजनाओं का एक मुख्य उद्देश्य आर्थिक विषमताओं को कम करना रहा है। काफी संख्या में छोटे किसानों के काश्तकारी अधिकारों के समाप्त होने के कारण गाँवों में सामाजिक और आर्थिक तनाव बढ़ा है।
(5) बेरोजगारी- धनी किसानों द्वारा बड़े-बड़े फार्मों में मशीनों का अधिक प्रयोग करने के कारण खेतिहर श्रमिकों की आवश्यकता में कमी हुई है। परिणामतः खेतिहर अभिकों में बेरोजगारी बढ़ी है।
(6) चोर बाजारी- हरित क्रान्ति के बाद उन्नत बीज, रासायनिक खाद आदि के व्यवसाय में चोर बाजारी प्रारम्भ हो गई।
(7) खायात्र का अब भी विदेशों से आयात- कम कृषि उत्पादन के कारण सन् 1980-81 में खायात्र का आयात करना पड़ा। तत्पश्चात् सन् 1983 में अमेरिका से 34.75 लाख टन गेहूं का आयात किया गया। सन् 1994 सरकार को पुनः विदेशों से खायात्र का आयात करना पड़ा। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि भारत अभी खायात्र के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है।
हरित क्रान्ति की सफलता के लिए सुझाव
हरित क्रान्ति को और अधिक सफल बनाने के लिए निम्न उपाय किए जाने चाहिए-
(1) अधिकांश फसलों पर प्रयोग- हरित क्रान्ति के अन्तर्गत चावल व अन्य खायान्त्र तथा दालों को शामिल किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त तिलहन, कपास, पटसन, गन्ना आदि व्यापारिक फसलों को भी हरित क्रान्ति के प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए।
(2) सिंचाई क्षेत्र का विकास- देश के अधिक से अधिक भाग में सिंचाई की सुविधाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए बड़े पैमाने पर सिंचाई की छोटी योजनाएँ बनाकर उन्हें शीघ्रतिशीघ्र पूर्ण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त, छोटे तथा मध्यम किसानों को ऋण दिए जाने चाहिए जिससे वे अपने खेतों में नलकूप तथा पम्पिंग सेट लगा सके।
(3) छोटे किसानों को हरित क्रान्ति के क्षेत्र में लाना- छोटे किसानों को हरित क्रान्ति के क्षेत्र में लाने के लिए कई उपाय किए जाने चाहिए-(1) उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयाँ आदि खरीदने के लिए छोटे किसानों को उचित ब्याज पर पर्याप्त साख सुविधाएँ दी जाएँ। (ii) छोटे कृषकों को बड़े व महंगे कृषि यन्त्र किराए पर दिए जाए (iii) उच्चतम सीमा लागू करने से प्राप्त फालतू भूमि को यथाशीघ्र छोटे किसानों में वितरित किया जाए। (iv) छोटे कृषकों को सहकारी कृषि समितियाँ गठित करने के लिए प्रेरित किया जाए। (v) विभिन्न भूमि सुधारों को शीघ्रतिशीघ्र लागू किया जाए।
(4) संस्थागत सुधार- हरित क्रान्ति की सफलता के लिए तकनीकी सुधारों के साथ-साथ संस्थागत है– (1) कृषि भूमि सम्बन्धी नवीनतम रिकार्ड तैयार किए जाएँ। (ii) जोतों की उच्चतम सीमा के निर्धारण के फलस्वरूप प्राप्त भूमि का भूमिहीन कृषकों में यथाशीघ्र वितरण कर दिया जाए। (iii) कृषि-जोतों के विभाजन को रोका जाए तथा चकबन्दी के कार्य को भी सभी राज्यों में पूर्ण किया जाए। (iv) कास्तकारों के अधिकारों की रक्षा की जाए। इससे वे निश्चित होकर खेती सुधार भी आवश्यक कर सकेंगे।
(5) एकीकृत फार्म नीति- हरित क्रान्ति की सफलता के लिए एकीकृत फार्म नीति (Integrated Farm Policy) अपनाई जानी चाहिए जिससे किसानों को उन्नत बीज, रासायनिक खाद, दवाइयाँ, कृषि यन्त्र आदि उचित कीमत पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकें। इसके अतिरिक्त, सरकार को कृषि-साधनों को उचित कीमतों पर उपलब्ध कराने की गारन्टी देनी चाहिए।
(6) बहुफसलें उगाना– हरित क्रान्ति की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि सिंचित भूमि का समुचित प्रयोग करने के लिए वर्ष में कई फसलें उगाई जाएँ।
(7) कृषि शिक्षा तथा अनुसंधान का विस्तार- देश में कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान का और अधिक विस्तार किया जाए। साथ ही कृषि विस्तार सेवाओं (Extension Services) में सुधार किया जाए।
(8) समस्त देश में लागू करना- हरित क्रान्ति के उपायों को देश के सभी क्षेत्रों पर लागू किया जाना चाहिए ताकि कृषि का समुचित विकास किया जा सके।
(9) ग्रामीण रोजगार अवसरों में वृद्धि- हरित क्रान्ति के क्षेत्र के विस्तार से पर्याप्त कृषि श्रमिकों के बेकार जाने की सम्भावना है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर व लघु उद्योगों का विकास तथा बिजली की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे ग्रामीण बेरोजगारी को दूर किया जा सके।
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