हिन्दी उपन्यास के उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिये।
उपन्यास का उद्भव और विकास – हिन्दी उपन्यास साहित्य का प्रादुर्भाव आधुनिक युग (भारतेन्द्र युग) में हुआ। इस दृष्टि से लाला श्रीनिवासदास का उपन्यास परीक्षा गुरु (1882) हिन्दी का पहला उपन्यास है। इसके पूर्व एक लघु उपन्यास श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा 1877 में लिखा गया था। परन्तु हिन्दी उपन्यासों को स्वस्थ आकार भारतेन्दु युग में ही मिला। भारतेन्द्र मण्डल से प्रेरणा ग्रहण कर देवकी नन्दन खत्री ने चन्द्रकांता संतति 27 भाग लिखकर हिन्दी उपन्यास जगत में एक खलबली पैदा कर दी और लोगों ने देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास पढ़ने के लिए हिन्दी सीखना प्रारम्भ किया। उन्हीं प्रेरणा पाकर गोपालरामगहमरी, हरे कृष्ण जौहर, दुर्गा बाबू खत्री जैसे अनेक साहित्यकारों नें रोमांचकारी जासूसी उपन्यास लिखे।
हिन्दी उपन्यास के विकास क्रम को निम्न भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(1) द्विवेदी युगीन हिन्दी- उपन्यास : द्विवेदी युग का स्वर इतिहास प्रधान है एवं नैतिक मूल्यों की गाँधीवादी समीक्षा का हैं। इस भाग के उपन्यासकारों के कई वर्ग हैं।
किशोरीलाल गोस्वामी- क्षात्र कुलकलंकिनी, सुलताना रजिया बेगम, लखनऊ की कब्र |
गंगा प्रसाद गुप्त- नूरजहाँ, कुमार सिंह सेनापति, हम्मीर।
सामाजिक उपन्यास- लज्जाराम शर्मा आदर्श दम्पति, बिगड़े का सुधार, आदर्श दम्पत्ति ।
अयोध्या सिंह उपाध्याय- अधखिला फूल
मुंशी प्रेमचन्द्र- प्रेमा 1907, रूपरानी 1907, सेवासदन 19121
इस काल में अनेक भाषाओं के उपन्यासों का हिन्दी भाषा में अनुवाद भी किया गया।
(2) प्रेमचन्द्र युग : हिन्दी उपन्यास के विकास काल में प्रेमचन्द्र युग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस युग में हिन्दी उपन्यास साहित्य विश्व स्तर की औपन्यासिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इसके बाद जितना भी उपन्यास साहित्य है वह प्रेमचन्द्र की जूठन है। धीरे-2 प्रेमचन्द्र कुछ भिन्न होने लगे और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी प्रेमचन्द्र शुद्ध रूप यथार्थवादी प्रेमचन्द्र बन गये। उन्हे पूस की एक रात के निमिधर के किसान कफन में अपनी पत्नी का कफन बेंचकर खातें देखा और गोदान में आकर तड़प-तड़प कर मरते देखा परिणामस्वरूप प्रेमचन्द्र यथार्थ की कठोर धरती की पहचान कर रहें गये। उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ- प्रेमाश्रम 1922, रंगाकार 1925, कला काव्य, 1926, निर्मला 1927, गबन 1931, कर्मभूमि 1933, गोदान 1935, मंगलसूत्र (अपूर्ण 1937)।
प्रेमचन्द्र की परम्परा को जिन उपन्यासकारों ने अग्रसर किया। उनमें विश्वम्भर नाथ .शर्मा कौशिक, आचार्य चतुरसेन, प्रताप नारायण श्रीवास्तव, ऋषभचरण जैन, निराला, जयशंकर प्रसाद, वृन्दावन लाल वर्मा।
( 3 ) प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी काल- प्रेमचन्द्र के पश्चात का काल उपन्यास के विकास की दृष्टि से कुछ भिन्न था। 1928 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना 1930 में प्रगतिशील लेखक संघ का लखनऊ अधिवेशन 1932 में पंत के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पर ग्रहण करने से हिन्दी में यशपाल राहुल, अमृतराय, रागेय राघव, नागार्जुन, फणीश्वर रेणु, शिव प्रसाद सिहं की यथार्थवादी लेखक पीढ़ी को पैदा किया। यही नहीं प्रेमचन्द्र युग सारे पारम्परिक जीवन एवं साहित्यिक मूल्यों के विखण्डन का युग है। डार्बिन फ्रायड एडलर एवं युग सार्ज कार के दार्शनिक रूप से प्रतिष्ठित को जाने के परिणामस्वरूप जिस साहित्य का तेवर अस्तित्ववादी निराशावादी, कुण्ठावादी, अतियथार्थवादी, विद्रूपवादी, मनोविश्लेषणपरक हो उठा। परिणामतः हिन्दी में उपन्यास की धारायें फूट उठीं। जिनका नेतृत्व उस काल के उपन्यासकारों ने किया। अज्ञेय, इला चन्द्र जोशी, नरेश मेहता, जैनेद्र, धर्मवीर भारती इस पीढी के प्रवर्तक बने। रेणु व नागार्जुन के नेतृत्व में आंचालिक धारा शिव प्रसाद सिंह, देवेन्द्र सत्यार्थी, शिवानी, राम दरश मिश्र, शैलेश मटियानी, कुबेर नाथ राम के नेतृत्व में उपन्यासों का सृजन हुआ।
स्वतन्त्रयोत्तरकाल का माक्स डार्बिन फ्रायड साज युग फ्लावेग काव्य कफ्का का प्रभाव हिन्दी पर भी पड़ा। फलतः सत्तर के दशक में उपन्यास लेखक का नेतृत्व मोहन राकेश, नत्रू भण्डारी, राजेन्द्र यादव, राजेन्द्र अवस्थी, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी के हाथों में आया। साथ ही साथ जगदम्बा प्रसाद दीक्षित जैसे श्रीकान्त वर्मा, महेन्द्र भल्ला जैसे उपन्यासकार और मुर्दाघर जैसे उपन्यास हिन्दी साहित्य में आए।
इस युग के प्रमुख उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ (धर्मवीर भारती)’ ‘आग और पानी (रघुवीर शरण मिश्र), ‘बीज और नागफनी’ (अमृतराय), उखड़े हुए लोग, (राजेन्द्र यादव) सोया हुआ जाल (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना) आदि प्रमुख है।
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Disclaimer
ये सब बहुत ही अच्छी किताबे है। इन किताबों के बारे में आपने बढ़िया करके बताया है। में एक बार इन किताबो जरूर पडूंगा