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हिन्दी की भ्रमरगीत परम्परा में सूर का स्थान निर्धारित कीजिए।
सूर अपने काव्य में सगुण को श्रेष्ठ मानते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक स्थान पर भ्रमरगीत के निर्गुण और सगुण खंड के विषय में लिखा है- ‘उद्धव को अपने ज्ञान का बड़ा गर्व था’ प्रेम या भक्ति मार्ग की वे उपेक्षा करते थे कृष्ण का इन्हें गोपियों के पास भेजने का मतलब था कि उनकी प्रीति गूढ़ता और सुगमता के सामने उनका ज्ञान गर्व दूर हो ।
उद्धव बात-बात में अद्वैतवाद का राग आलापते थे, पर विरह रस में कहिये क्यों चलें संसार? अर्थात रस विहीन उद्देश्य से लोक व्यवहार कैसे चल सकता है? रसविहीन उपदेश किसी प्रकार असर नहीं करते। यही चीज दर्शाने के लिए भ्रमर गीत की रचना की गयी। इससे सिद्ध हुआ कि भ्रमर गीत की रचना निर्गुण पर सगुण की प्रतिष्ठा के लिए हुई थी।
भ्रमर गीत का शाब्दिक अर्थ है- भरि का गीत, अर्थात् भरि को सम्बोधित करके गाया गया गीत कृष्ण के द्वारा भेजे हुये उनके प्रिय सखा उद्धव जब ब्रज में जाकर गोपियों को अपने ज्ञान का उपदेश दे रहे थे, तभी वहाँ उड़ता हुआ एक भूरी आया। यह देख गोपियों ने उस भरि को संकेत करके, उसकी ओट लेकर मर्यादित ढंग से जो प्रतिउत्तर उद्धव को दिया वही भ्रमरगीत कहलाया। वस्तुतः यही उद्धव- गोपी संवाद हिन्दी साहित्य में भ्रमरगीत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यहाँ गोपियाँ एवं उद्धव के बीच भरि का मंडराना अकारण नहीं, सकारण है। इसके परोक्ष में सिद्धान्ततः तथा तर्कसम्मत बात निहित है। भरि को ही बीच में लाने का मूल कारण है- कृष्ण तथा भरि के रूप, गुण तथा स्वभाव की परस्पर सामानता दिखलाना। भरि का रंग काला होता है, जैसा कि कृष्ण का है। उसका आधा भाग पीला होता है, कृष्ण भी अपने शरीर पर पीताम्बर धारण करते हैं। इस प्रकार पीताम्बरधारी कृष्ण का रूप भरि के रूप से खूब मेल खाता है। भरि स्वभाव से चंचल, अस्थिर और रसिक होता है। वह खिले हुए पुष्प की सुगन्धि एवं पराग का स्वाद लेने के लिए उसके चारों ओर निरन्तर मँडराता रहता है। कृष्ण ने भी गोपियों के साथ यहीं छल कपट किया है। फूलों से भरि का लगाव प्रेम का नहीं, स्वार्थ का है, रसिकता का है। वह किसी एक का नहीं, सबका होकर रहता है। उसका प्रेम यौवन के बने रहने तक ही है।
भ्रमरगीत की विशेषतायें
1- योग की कठिनता तथा अग्राह्यता- गोपियाँ बार-बार उद्धव से योग की कठिनता तथा अग्राह्यता का भाव प्रकट करती हैं। योग की प्रक्रिया को समझना अहीर अबलाओं के लिए असम्भव है-
“हम अहीर अबला सठ मधुकर । तिन्हहि जोगु कैसे सौहै।”
गोपियों को इस बात का बड़ा आश्चर्य है कि स्त्रियों के लिए जोगिया वेश बनाने की बात किस प्रकार तर्कसंगत है।
2- निर्गुण से सगुण ब्रह्म की श्रेष्ठता- गोपिकायें कहती हैं कि मान भी लिया जाये कि निर्गुण ब्रह्म की आराधना योग साधना से उत्तम है, किन्तु हमारे मन में इस प्रकार की बात तनिक भी नहीं बैठती है-
“गोकुल सबै गोपाल उपासी
जोग अंग साधत जे ऊधौ, ते सब बसत ईसपुर काशी ।।”
गोपिकाओं को उद्धव का ज्ञान देना अच्छा नहीं लगता। जब उद्धव ज्ञान की कथा कहते ही चले जाते हैं, इस बात का विचार नहीं करते हैं कि इसका गोपियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, तो वे खीझकर कह उठती हैं-
“हमको हरि की कथा सुनाव।
अपनी ज्ञान कथा हे ऊधव, मथुरा ही लै जाव।।”
गोपिकायें कृष्ण वियोग से व्यथित हैं। जब उद्धव उन्हें निरन्तर ब्रह्म का ही उपदेश देते रहते हैं और कोई बात नहीं सुनते, तब गोपिकाओं को विनोद सूझता है। वे उद्धव को निरूत्तर करती हुई कुछ ऐसे प्रश्न पूँछती हैं, जिनके उत्तर उद्धव के पास न थे-
“निर्गुण कौन देस को बासी।
मधुकर हँसि समुझाय सहि दें, बूझत साँच न हाँसी।
को है जनक, जननि कौन, कौन नारि को दासी।
कैसो बरन भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥”
वे इतना कहकर ही चुप नहीं हो जातीं, वरन् आगे भी कहती हैं-
“पावैगो पुनि कियो आपनो, जोरै कहैगो गाँसी॥
इस प्रश्नमाला से उद्धव मौन होकर ठगे से रह गये-
‘सुनत मौन है रह्यौ ठग्यो सो, सूर सबै मति नासी ॥ “
गोपिकायें अनेक प्रकार से निर्गुण ब्रह्म की असारता और सगुण बह्म की महत्ता का प्रतिपादन करती हैं। उन्हें उद्धव की इस बात पर विश्वास नहीं होता है कि कृष्ण ने उन्हें निर्गुण ब्रह्म का उपदेश दिया होगा। अतः वे कहती हैं कि इस सन्देश को रहने दो, वह सन्देश हमें सुनाओ, जो कृष्ण ने हमारे लिए भेजा है
‘मधुप कहाँ यों निर्गुण गावहिं।
ऐ प्रिय कथा नगर-नारिन सों कहहिं जहाँ कछु पावहिं॥
जानति मर्म नन्दनन्दन को, और प्रसंग चलावहिं।
अति विचित्र लरिका की नाई, गुर दिखाइ बौरावहिं॥”
3- गोपियों की वाग्विदग्धता- गोपियाँ अपने वाक् चातुर्य से उद्धव की मति को भ्रमित सा कर देती हैं। वे उद्धव पर अपनी धाक जमा लेती हैं। वे उद्धव से कहती हैं कि तुम यह उपदेश देना छोड़कर कोई अन्य प्रसंग चलाओ। शायद तुम मार्ग भूलकर इस ओर चले आये हो। कृष्ण ने तुम्हें किसी अन्य स्थान के लिये भेजा होगा
“ऊधौ ! जाहु तुमहिं हम जाने।
स्याम तुम्हें ह्याँ नाहि पठायौ, तुम ही बीच भुलाने।”
और यदि हमारे प्रियतम कृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा ही है, तो इसमें कोई रहस्य की बात ही होगी-
“साँच कहौ तुमको अपनी सौं बूझति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नेकहु मुसकाने॥”
गोपियाँ उद्धव की ज्ञान चर्चा को अपने लिए अनुपयुक्त मानती हैं-
“ऊधौ ! जोग जोग हम नाहीं ।
अबला सार ज्ञान कहा जाने, कैसे ध्यान धराहीं॥”
गोपिकाओं को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश ब्रजभमि की प्रकृति के विपरीत प्रतीत होता है-
“ऊधौ ! कोकिल कूजत कानन ।
तुम हमको उपदेस करत हौ, भस्म लगावत आनन ॥”
4- विरह की अनेक स्थितियों का चित्रण- महाकवि सूर ने विरह की एक-एक ने स्थिति और भावना का अंकन अपने काव्य में किया है। कृष्ण के वियोग में ब्रज की समस्त शोभा तथा आनन्द नष्ट हो गया है-
“तब से मिटै सबै आनन्द। “
या ब्रज के सब भाग्य, सम्पदा ले जु गये नंद नन्द।
विह्वल भई जसोदा डोलति, दुखित नन्द उपनन्द ॥”
एक अन्य दृश्य दृष्टव्य है-
“लै आवहु गोकुल गोपालहिं
पाईन परि क्यों हूँ विनती करि, छल बल बाहु विसालहिं ।
अबकी बार नेकु दिखरावहु, नन्द आपने लालहिं ॥
गोपियों की उन्माद अवस्था का एक अन्य चित्र सूर ने इस प्रकार खींचा है-
‘एक ग्वाल गोसुत है रेंगे, एक लकुट कर लेत।
एक मण्डली करि बैठारति छाक बाँटि इक देत॥”
विरहावस्या में मूर्च्छा की स्थिति भी दृष्टव्य है-
“जबहीं कह्यौ, ये स्याम नहीं।
परी मुरछि धरनी ब्रजवाला, जो जहाँ रही तो वहीं ॥”
इस प्रकार विरह की प्रत्येक दशा का चित्रण सूर की लेखनी से निःसृत हुआ है।
5- उपालंभ पूर्ण उक्तियाँ- गोपिकायें उद्धव के ज्ञान की विभिन्न प्रकार से हँसी उड़ाती हैं। वे कृष्ण पर फब्तियाँ कसती हैं और उद्धव को उपालंभ देती हुई कहती हैं-
“ऊधौ जान्यौँ ज्ञान तिहारो।
जाने कहा राजगति लीला, अन्त अहीर विचारों ॥
आवत नाहिं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिसान्यौ ।
हम, सबै अयानी, एक सयानी, कुब्जा सो मन मान्यौ ॥
ऊधौ! जाहु बाँह धरि ल्याऔ, सुन्दर श्याम पियारो।
ब्याही लाख धरौ दस कुबरी, अन्तहि कान्ह हमारौ ॥”
गोपियाँ कहती हैं कि बैठे-बैठे योग और ज्ञान का सन्देश भेजने वाले कैसे हैं, यह हमको अच्छी प्रकार मालूम है-
“हम तो निपट अहीरि बावरी, जोग दीजि ज्ञानिन ।
कहा कथन मामी के आगे, जानत नानी नानन ॥ “
गोपिकायें उद्धव पर व्यंग्य करती हुई यह भी कहती हैं कि अपना योग कहीं भूल न जाना। गाँठ में बांधकर रखो, कहीं छूट गया, तो फिर पछताओगे। इसलिए अपने इस निर्गुण ब्रह्म के उपदेश को सँभालकर रखो।
‘उद्धव! जोग बिसरि जनि जाहु ।
बाँधहु गाँठ कहूँ जनि छूटै, फिर पाछै पछिताहु ॥
निष्कर्ष- इस प्रकार स्पष्ट है कि सूर के भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों की अनेक चित्रवृत्तियों का सुन्दर चित्रण मिलता है। उद्धव के गोपियों के समीप आ जाने से परिस्थिति और नाटकीय बन जाती है। भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों के हृदय में कहीं अमर्ष, कहीं खीझ, कहीं भर्त्सना, कहीं आशंका, कहीं रति, कहीं उत्साह, कहीं आशा तथा कहीं निराशा – सभी भाव क्षण-प्रतिक्षण बदलते हुए दिखाई देते हैं। उद्धव के प्रसंग के कारण व्यंग्य, उपहास, तथा ओज का समावेश भी हो गया है। यही कारण है कि कभी-कभी गोपियों का अश्रुमिश्रित हास्य भी सुनने को मिल जाता है।
इस प्रकार सूर का भ्रमरगीत विरह के व्यापक स्वरूप एवं गंभीर चेतना के स्वरों को प्रकट करता है। अन्य कवियों के विरह प्रसंग में रोदन तथा चीत्कार का समावेश मिलता है, परन्तु सूरदास ने अपने विरह वर्णन में भ्रमर की परिस्थिति कर विरह में विनोद को मिला दिया है।
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