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शैशवावस्था में होने वाले शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास को समझाइए।
शैशवावस्था में बालक का शारीरिक विकास :
1. वजन – जन्म के समय बच्चे का भार 6 से 8 पाण्ड के बीच होता है और यह देखा गया है कि लड़कों का भार लड़कियों से अधिक होता है। जन्म से 6 माह के भीतर बच्चे का भार लगभग दूना हो जाता है और वर्ष के अन्त तक यह 3 गुना तक पहुंच जाता है। दूसरे वर्ष में प्रवेश करने के साथ ही बच्चे का वजन प्रतिमाह आधा पौण्ड की दर से बढ़ने लगता है और शैशवावस्था के अंत में अर्थात छठे वर्ष के अंतिम महीने में उसका वजन 38 पौण्ड तक पहुंच जाता है।
2. लम्बाई – जन्म के समय शिशु के सिर की लम्बाई पूरी शरीर के आधे भाग के बराबर होती है। जन्म के समय साधारणतः शिशु की लम्बाई 19 या 20 इंच होती है और 12 वर्ष की अवस्था तक वह बहुत तीव्र गति से बढ़ती है। चार महीने की उम्र में बच्चों की औसत लम्बाई 23 से 24 इंच हो जाती है और आठवें महीने में उसकी लम्बाई 28 से 30 इंच हो जाती है। 2 वर्ष की आयु में बच्चा 33 से 34 इंच तक पहुंच जाता है और पांच वर्ष की उम्र में उसकी लम्बाई जन्म के समय की लम्बाई से ठीक दोगुनी हो जाती है अर्थात वह लगभग 38 से 40 इंच की लम्बाई प्राप्त कर लेता है।
3. मस्तिष्क – जन्म के समय बच्चे के सिर की लम्बाई पूरे शरीर के चौथे भाग के बराबर होती है। प्रथम 2 वर्षों में बालक के सिर की लम्बाई तेजी से बढ़ती है लेकिन इसके बाद यह गति धीमी हो जाती है। शिशु के मस्तिष्क के वजन लगभग 350 ग्राम होता है। और 2 वर्ष में इसका वजन 700 ग्राम के लगभग पहुंच जाता है।
4. दांत – बच्चों के दांत 6 से 8 माह के बीच निकलने प्रारम्भ हो जाते हैं। एक वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते बच्चों के दांतों की संख्या 8 हो जाती है और 4 वर्ष की उम्र तक बच्चों के सभी दांत निकल जाते हैं। प्रारम्भ में नीचे के आगे वाले दांत निकलते हैं।
5. हड्डियां – जन्म के समय बच्चे की हड्डियां बहुत लचीली एवं कोमल होती है। लेकिन जैसे-जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है यह हड्डियां सख्त होती जाती हैं। जन्म के समय बच्चे की हड्डियों की कुल संख्या 270 होती है। 5 वर्ष तक बच्चों की हड्डियों का विकास तेजी से होता है और उसके बाद बाल्यावस्था में यह विकास मंद पड़ जाता है। किशोरावस्था में हड्डियों के बढ़ने की गति पुनः तीव्र हो जाती है।
6. अन्य तत्व – जन्म के समय बच्चे की मांस पेशियों का भार शरीर के कुल भार का 23 प्रतिशत होता है। शैशवावस्था में बच्चे के हृदय की धड़कन अस्थिर होती हैं, परन्तु धीरे-धीरे वह स्थिर होने लगती है। शैशवावस्था में शिशु के यौन अंगों का विकास की गति भी बहुत मंद होती है। जन्म के समय बच्चों के पैर, बच्चों के हाथों की तुलना में छोटे होते हैं। धीरे-धीरे हाथ और पैर दोनों का विकास प्रारम्भ हो जाता है। ऐसा देखा गया है कि प्रारम्भ में बच्चों के पैरों का विकास उनकी भुजाओं की तुलना में धीमा होता है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि लड़कियों की अपेक्षा लड़कों के पैरों का आकार बड़ा होता है।
शैशवावस्था में मानसिक विकास :
जन्म के पश्चात प्रथम सप्ताह में बालक अपनी आवश्यकताओं को प्रकट करना प्रारम्भ कर देता है वह हाथ-पैर हिलाना और आराम न मिलने पर रोना प्रारम्भ कर देता है। बच्चों का यह लक्षण उसकी निजी आवश्यकताओं की ओर संकेत करते हैं। दूसरे सप्ताह में बालक प्रकाश की ओर आकर्षित होता है और प्रकाश को कौतूहल से देखना प्रारम्भ कर देता हूँ। तीसरे सप्ताह में बालक प्रकाश या चमकीली वस्तु की ओर आकर्षित होता है उसे देखने के लिए सिर घुमाना भी प्रारम्भ कर देता है। चौथे सप्ताह यानि प्रथम माह का होने पर बालक पीड़ा का अनुभव प्रारम्भ कर देता है और किसी भी प्रकार की पीड़ा होने पर वह रोता है। दूसरे माह में बालक ध्वनि को पहचानना प्रारम्भ कर देता है और ध्वनि के साथ-साथ अपना सिर भी घुमाना प्रारम्भ करता है। तीसरे माह में बच्चा वस्तुओं को पकड़ने का प्रयास करता है। यदि उसके हाथ में कोई चीज पकड़ाई जाये तो वह उसे जोर से पकड़ने का प्रयास करता है। चौथे माह में उसकी यह पकड़ काफी मजबूत हो जाती है और यदि उसे कोई चीज दी जाए तो वह उसे मजबूती से पकड़ सकता है। छठे माह तक पहुंचते-पहुंचते बच्चा सुनी हुई आवाजों को पहचानने लगता है। वह स्नेह एवं क्रोध के अंतर को समझने लगता है और अपनी रुचि के खिलौनों का चयन भी करने लगता है। तथा दूसरे बच्चों के साथ खेलने में दिलचस्पी लेने लगता है। अपने नाम को भी समझने लगता है। आठवें से दसवें माह के बीच उसकी अनुकरण की शक्ति काफी बढ़ जाती है और वह टूटे-फूटे शब्दों का उच्चारण भी प्रारम्भ कर देता है। रोकर या चीखकर अपनी माँ का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता। है। और खिलौने के छीने जाने पर विरोध प्रकट करता है। अपने इस विरोध को वह रोकर व खिलौने छीनने पर उसे जोर से पकड़ कर प्रकट करता है। एक वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते बालक दो या चार शब्द बोलना सीख जाता है और दूसरे की क्रियाओं का अनुकरण करना भी प्रारम्भ कर देता है। इस समय तक वह थोड़ा-बहुत भी चलने लगता है। मां, बा, दा, आदि शब्दों का उच्चारण भी वह तोतली भाषा में करना प्रारम्भ कर देता है। द्वितीय वर्ष में बालक दो शब्दों को आपस में जोड़कर बोलना प्रारम्भ कर देता है और शिशु के शब्दों का भंडार 100 से 200 तक पहुंच जाता है। वह अपने शरीर के अंगों को पहचानना प्रारम्भ कर देता है। चित्रों को पहचानना सीख जाता है और ब्लॉक्स की मीनार बनाने की क्षमता उसमें आ जाती है। तीसरे वर्ष में बालक 3 अंकों के शब्दों का उच्चारण भली भांति कर सकता है। छोटे-छोटे वाक्य भी बोलना प्रारम्भ कर देता है। छोटी-छोटी रेखाएं खींचकर चित्र बनाना भी प्रारम्भ कर देता है। अपना नाम, अपने माता-पिता अपने भाई-बहनों का नाम भी बताना प्रारम्भ कर देता है। चार वर्ष का बच्चा अक्षर लिखना प्रारम्भ कर देता है। उसकी स्मृति काफी विकसित हो जाती है और वह स्मृति के आधार पर वस्तुओं में अंतर कर पाता है। प्रश्नों को समझ पाता है और उसी के अनुकूल उत्तर भी देता है। वह गिनती करना भी सीख लेता है और छोटी मोटी रेखाओं के बीच अंतर करना भी उसे आ जाता है। पांच वर्ष की आयु में बालक रंगों के भेद को समझने लगता है। विभिन्न प्रकार की वस्तुओं, फलों एवं सब्जियों आदि के रंगों को वह बता सकता है। इस समय तक उसका शब्दकोष लगभग 1800 शब्दों का हो जाता है और 10 या 11 शब्दों के वाक्यों को वह आसानी से बोलना प्रारम्भ कर देता है।
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास :
विद्वान इस बात पर एकमत नहीं हैं कि बच्चों के संवेग जन्मजात एवं मौलिक होते हैं अथवा वातावरण की उपज । वाटसन ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह सिद्ध किया है के बच्चों में संवेग जन्मजात और मौलिक होते हैं। वाटसन के विचारों का शर्न, ब्रिजीस व पैन ने जोरदार ढंग से खण्डन किया। उनका कहना है कि बच्चों में जन्म से किसी प्रकार की संवेगात्मक क्रिया नहीं होती और उनके व्यवहार पूर्णतः अस्पष्ट होते हैं। शैशवकाल की प्रमुख विशेषता बच्चों के संवगों की अस्थिरता ही है। वास्तव में संवेगों का विकास तो परिपक्वता एवं सीखने की प्रक्रिया के द्वारा बाद में होता है। जन्म के समय की बच्चों की सामान्य उत्तेजनात्मक स्थितियां बाद में संवेगों के रूप में विकसित होती है। उदाहरण के लिए प्रारम्भ में बालक केवल रोकर ही अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करता है किन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता है और वह अपनी पीड़ा को तोड़-फोड़ एवं प्रतिरोध के माध्यम से व्यक्त करता है, जैसे बालक बड़ा होता जाता है वह अपने संवेगों के शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने लगता है। शिशु की प्रारंभिक अवस्था में उसके संवेग तीव्र होते हैं लेकिन उम्र के साथ-साथ संवर्गों की यह तीव्रता घटती जाती है। उदाहरण के लिए जब छोटा बच्चा भूखा होता है तो वह रोने लगता है और वह तब तक रोता रहता है जब तक उसे दूध नहीं मिल जाता परन्तु उम्र के साथ-साथ उसके रोने की यह आदत समाप्त हो जाती है। इस प्रकार उम्र के साथ-साथ उसके संवेगों में स्पष्टता आती है। शैशवावस्था के प्रारम्भिक स्तर पर बच्चे में डर का कोई संवेग नहीं होता। यदि सांप भी उसके सामने डाल दिया जाए तो वह उसे पकड़ लेता है। परन्तु उम्र के साथ-साथ उसका यह संवेग विकसित होता है और वह सांप से डरने लगता है। जार्सिल और होल्मस के अनुसार 3 महीने से लेकर 12 महीने तक के बच्चे अधिकतर बच्चे कुत्ते, सांप, ऊँचे स्थान, अंधेरे, तेज आवाज आदि से डरते हैं। लेकिन उम्र के साथ-साथ उनका डर का यह संवेग समाप्त होने लगता है। ब्रिसेस का मानना है कि 6 महीने के बच्चे में क्रोध का संवेग स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगता है। गुड एनफ ने अपने अध्ययनों के आधार पर सिद्ध किया कि 1 से 2 वर्ष के बच्चे अपने क्रोध के संवेग को पैर पटककर जमीन पर. लोट कर प्रकट करते हैं। क्रोध प्रकट करने के संवेग की चरम सीमा 3 से 4 वर्ष के बीच होती है। इस उम्र में बच्चे आमतौर पर एक दूसरे का खिलौना छीन लेने, एक दूसरे पर आक्रमण करने, गाली देने आदि से क्रोधित हो जाते हैं। जहां तक प्रेम के संवेग का प्रश्न है प्रेम के लक्षण 8 से लेकर 12 महीने के बच्चे में सर्वप्रथम दिखायी देता है। सर्वप्रथम बच्चा अपने प्रेम के संवेग को माता-पिता एवं भाई बहनों के प्रति प्रकट करता है। उसके बाद वह अन्य लोगों के सम्पर्क में आने से उनके प्रति भी प्रेम के संवेग को प्रकट करने लगता है। बच्चे अपने प्रेम के संवेगों को मुस्कुराकर अथवा हंस कर प्रकट करते हैं। बच्चे के संवग जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती है स्थिर होते जाते हैं और शैशवावस्था की समाप्ति तक उसके काफी संवेग स्थिर होने लगते हैं।
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