B.Ed Notes

वर्तमान समय के विभिन्न कमीशनों एवं कमिटियों की नीति पटलों की संस्तुति की व्याख्या करें।

वर्तमान समय के विभिन्न कमीशनों एवं कमिटियों की नीति पटलों की संस्तुति की व्याख्या करें।
वर्तमान समय के विभिन्न कमीशनों एवं कमिटियों की नीति पटलों की संस्तुति की व्याख्या करें।

वर्तमान समय के विभिन्न कमीशनों एवं कमिटियों की नीति पटलों की संस्तुति की व्याख्या करें। (Discuss the recommendations of Policy initiative of the various commission and committees in the contemporary Period)

भारत में स्त्री शिक्षा को सर्वप्रथम समाज सुधारकों तथा मिशनरियों ने प्रोत्साहित किया । परंतु स्त्री शिक्षा की आवश्यकता को सामाजिक मान्यता मिलने के साथ-साथ स्त्री शिक्षा की प्रकृति बहस-मुबाहिसा का मुद्दा बन गई। इस बहस की जड़ में स्त्री-पुरुष के परिभाषित रूढ़िवादी कार्यक्षेत्र रहे हैं। मिशनरी और समाज सुधारक स्त्री को गृहिणी, माँ की भूमिका में अधिक दक्ष बनाने के लिए शिक्षित करना चाहते थे, इनसानी विकास के लिए नहीं 1820 में पहला कन्या विद्यालय ईसाई धर्म अपनाने वाले परिवारों की बच्चियों के लिए खोला गया परंतु स्त्री शिक्षा को अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं मिला। हिंदुओं और मुसलमानों में अंधविश्वास था कि शिक्षित बच्ची विधवा हो जाएगी। 1854 में वुड्स डिसपैच में लार्ड डलहौजी ने भी सुझाया कि लोगों के नैतिक स्तर सुधारने में पुरुष शिक्षा से अधिक स्त्री शिक्षा सहायक होगी। इस प्रकार स्त्री शिक्षा समाज सुधार का माध्यम मानी गई, न कि देश में स्त्री की स्वयं की स्थिति सुधारने की आवश्यक शर्त । स्त्री शिक्षा की इस सामाजिक उपयोगिता के बावजूद इस क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई। 1880 की शिक्षा आयोग की रपट में लिखा गया कि देश में स्त्री शिक्षा की कोई मांग नहीं थी क्योंकि शिक्षा भारतीय स्त्री के लिए रोजगार पाने के लिए आवश्यक नहीं थी। बाल विवाह प्रथा की वजह से शिक्षण के प्रारंभ होने से पहले ही बच्चियों को पर्दे में रखा जाना प्रारंभ हो जाता था। बालिका विद्यालयों में शिक्षिकाओं की संख्या पर्याप्त नहीं थी, न ही उनका शिक्षा का स्तर ठीक था। शिक्षा आयोग ने अपनी रपट में स्त्री शिक्षा की पिछड़ी स्थिति को माना और सुझाया कि स्थानीय, म्युनिसिपल तथा प्रांतीय सार्वजनिक कोषों में बालिका के विद्यालयों के लिए धन आवंटित होना चाहिए। 1913 के सरकारी प्रस्ताव में बच्चियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के साथ-साथ लड़कियों के लिए व्यावहारिक शिक्षण कार्यक्रम की बात कही गई।

1944 में युद्धोपरांत शिक्षा विकास पर रपट सार्वजनिक की गई। इसमें सुझाया गया कि स्त्री शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं रह गई थी। 1948-49 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में अपनी रपट दी। इसमें स्त्री शिक्षा पर एक अध्याय जोड़ा गया था। इसमें भी स्त्री की पारिवारिक भूमिका के संदर्भ में ही स्त्री शिक्षा का महत्त्व आँका गया और कहा गया कि स्त्री शिक्षा के बिना लोग शिक्षित नहीं हो सकते । अतः यदि पुरुष और स्त्री शिक्षा में चुनना हो तो स्त्री शिक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए । इस आयोग का सुझाव भी स्त्री शिक्षण कार्यक्रम को स्त्री-सुलभ बनाने का था । स्त्री शिक्षा का उद्देश्य उच्च वर्ग की स्त्रियों को कला के माध्यम से अपने समय के सदुपयोग के लिए सक्षम बनाना था। आर्थिक क्षेत्र को इसमें भी पुरुष की ही कर्मभूमि माना गया। इस दस्तावेज में कहा गया कि सामान्यतया भारतीय विश्वविद्यालय पुरुष को उनके कार्यक्षेत्रों में दक्ष बनाने के संस्थान हैं। इनको चलाने की योजना बनाते समय स्त्रियों की स्त्रीयोचित शिक्षा पर ध्यान नहीं ही दिया गया है। स्त्रियों को या तो पुरुषों के लिए अपेक्षित विषय ही पढ़ने पड़ते हैं या विश्वविद्यालयीय शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है । वास्तव में कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पुरुष और स्त्री की रुचियाँ तथा कार्यक्षेत्र एक दूसरे से भिन्न हैं। शिक्षा योजनाओं को इन भिन्नताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए। यह ‘स्त्री सुलभ शिक्षा’ उन स्त्रियों के लिए भी आवश्यक मानी गई जो आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय होना चाहती थी। वैसे तो यह आयोग स्त्री-पुरुष शिक्षा में किसी प्रकार के भेदभाव का विरोधी था परंतु शिक्षण कार्यक्रम बनाते समय स्त्री-पुरुष के विशेष गुणों पर ध्यान देना इस आयोग ने भी आवश्यक माना और सुझाया कि उच्च शिक्षा में इन विशेष गुणों के विकास की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए इसलिए स्त्री शिक्षा में घर और परिवार की देखरेख का व्यावहारिक अनुभव देने के लिए प्रयोगशाला- बच्चा घर, नर्सिंग स्कूल, बाल विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिए तथा वयस्कों के लिए क्लब, बीमारों के लिए तीमारदारी-घर, बूढ़ा-घर तथा एक घर का ढाँचा होना आवश्यक बताया गया जहाँ घर की साज-सज्जा और गृहिणी की भूमिका में व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जा सके । इस आयोग ने स्त्रियों को घरेलू अर्थशास्त्र, नर्स, अध्यापन तथा कला के क्षेत्रों में प्रशिक्षित करने की वकालत की।

गृहिणी और आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय स्त्री दोनों के लिए होम इकॉनॉमिक्स आवश्यक माना गया। इस कोर्स में बच्चों, परिवार तथा अन्य की भोजन व्यवस्था, बच्चों का लालन-पालन और व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के तरीके, गृहिणी में कलात्मक रुचि के विकास के तरीके सिखाए जाने का सुझाव दिए गए ताकि वह परिवार को स्वस्थ, घर को सुंदर और सुरुचिपूर्ण रखे साथ ही घर की अर्थव्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था तथा स्वास्थ्य व्यवस्था सुचारू रूप से चला सके। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदर्श मातृत्व का लक्ष्य कुछ शिक्षाविदों के विरोध के बावजूद जारी रहा। 1948 में हमारे योजनाकार फ्रांसीसी दार्शनिक रूसो के अठारहवीं सदी में स्त्री शिक्षा के प्रश्न पर लिखे गए निबंध से एक कदम भी आगे नहीं बढ़े थे। लगता है आयोग ने अपनी पूरी ताकत यह सिद्ध करने में लगा दी कि स्त्री नर्स और अध्यापिका की भूमिका को पुरुष से अधिक कुशलता से निभा सकती है । उपरोक्त विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि अंग्रेज शासन के दौरान गठित सभी सरकारी समितियाँ/ आयोग केवल मध्यवर्गीय गृहिणी के बारे में ही सोच रहे थे। भारत की आम कृषक मजदूर, कुटीर उद्योगों के माध्यम से रोजी रोटी कमाने वाली स्त्री की शिक्षा उनकी सोच की सीमा से बाहर थी । अतः उनके पेशों में काम आने वाली तकनीक का स्तर शिक्षा के माध्यम से सुधारना उनका उद्देश्य नहीं था। न ही वे आम कृषक, मजदूर औरत को उसके पेशे से संबंधित आधुनिक तकनीक में प्रशिक्षित करने के बारे में सोच रहे थे।

भारतीय संविधान की धारा 15 (3) स्त्रियों और बच्चों के लिए शिक्षा के विशेष प्रावधान बनाने की सरकार को छूट दी है । धारा 45 में 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए मुफ्त अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार की संज्ञा दी है और इसे धारा 21 में दिए गए जीने के अधिकार के साथ जोड़ दिया हैं । धारा 46 में कमजोर वर्गों खासकर अनुसूचित जाति (अ.जा.) और अनुसूचित जनजाति (अ.ज.जा.) की शिक्षा और आर्थिक हितों के संरक्षण पर जोर दिया गया है। 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने अपनी रपट दी। इसमें स्त्री शिक्षा पर अलग से अध्याय नहीं था । रपट में कहा गया कि स्त्री शिक्षा पर अलग से जोर डालने का कोई औचित्य नहीं था। हर प्रकार की शिक्षा स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। आयोग ने माना कि उस समय स्त्रियाँ इंजीनियरिंग, कृषि विज्ञान, पशुपालन विज्ञान, वाणिज्य, कानून, सामाजिक शास्त्रों, कला और भौतिक विज्ञान आदि विषयों में अध्ययन, अध्यापन तथा शोध कार्य कर रही थी। लेकिन इस आयोग का भी कहना था कि इन विषयों के अध्ययन के अलावा स्त्रियों को गृहविज्ञान और गृह अर्थशास्त्र अवश्य पढ़ना चाहिए । आयोग की रपट में कहा गया कि स्त्री के लिए उचित स्थान घर है। अतः उसे शिक्षा के माध्यम से घर के प्रबंध में दक्ष बनाया जाना चाहिए। इसके विपरीत आयोग के कुछ सदस्यों का मानना था कि स्त्री सार्वजनिक क्षेत्र में अहम भूमिका निभाने के लिए शिक्षित की जानी चाहिए। आयोग के सुझावों में बालिका विद्यालयों की स्थापना भी एक था।

1957 में शिक्षा मंत्रियों की कानफ्रेंस में स्त्री शिक्षा के प्रश्न पर अध्ययन के लिए एक समिति के गठन का प्रस्ताव पास किया गया। इससे पहले योजना आयोग ने यह सुझाव दिया था । तदनुसार शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार ने श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख, अध्यक्षा केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्षता स्त्री शिक्षा समिति का गठन किया। 1958-59 में राष्ट्रीय स्त्री शिक्षा समिति ने अपनी रपट दी। समिति ने सुझाया कि आने वाले कई वर्षों तक स्त्री शिक्षा के प्रश्न को विशेष और बड़ा मुद्दा माना जाना आवश्यक था। स्त्री पुरुष शिक्षा के बीच की खाई को जितनी जल्दी हो सके भरा जाना चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षा मद में आवंटित राशि सर्वप्रथम स्त्री शिक्षा की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खर्च होनी चाहिए नेशनल काउंसिल फार एज्यूकेशन फॉर गर्ल्स एंड वीमेन का गठन जल्दी से जल्दी होना चाहिए केन्द्र को स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए ताकि इस क्षेत्र में प्रगति हो सके। राज्यों को अपने-अपने राज्य में स्टेट काउंसिल के गठन तथा राज्य की परिस्थितियों के अनुसार स्त्री शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए योजनाएँ बनाने का भी सुझाव दिया गया। केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय निकायों, अर्ध सरकारी संगठनों तथा स्वयंसेवी संगठनों का समर्थन लेने का भी सुझाव दिया गया था। योजना आयोग को एक समिति के गठन का सुझाव दिया गया था, जो समय-समय पर योजनाओं के लिए आवश्यक स्त्री शक्ति के बारे में सरकार को सूचित करेगी। स्त्री प्राथमिक शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए गरीब बच्ची के माता-पिता को आवश्यक वस्तुएँ देने तथा गाँवों को बच्चियों का सर्वाधिक दाखिला कराने पर इनाम देने की व्यवस्था का सुझाव दिया गया। गरीब घर के बच्चों को मुफ्त माध्यमिक शिक्षा का सुझाव दिया गया। प्राथमिक स्तर पर बालिकाओं को अन्य विषयों के अलावा संगीत, चित्रकला, सिलाई-कढ़ाई, खाना पकांना आदि सिखाने का समर्थन किया गया माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों से बिलकुल भिन्न सुझाई गई । अध्यापिका की ट्रेनिंग के लिए शिक्षण संस्थाएँ खोलने का भी सुझाव दिया गया।

स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में अगली कड़ी श्रीमती हंसा मेहता समिति थी । दि नेशनल काउंसिल फॉर वीमेन्स एज्यूकेशन ने 10-5-1961 को श्रीमती हंसा मेहता की अध्यक्षता में इस समिति का गठन किया था। इस समिति का उद्देश्य शिक्षा के हर स्तर पर बालिकाओं के लिए पाठ्यक्रम की समस्या का अध्ययन करना था। 1962 में समिति ने अपनी रपट दी। इस रपट में सुझाया गया कि किसी भी समाजवादी लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा व्यक्ति की योग्यता रुचि, रुझान के अनुसार होनी चाहिए न कि उसके लिंग के अनुसार । अतः ऐसे समाज बालक बालिकाओं के पाठ्यक्रम में भेद नहीं होना चाहिए। इस समिति में बालिकाओं के लिए उच्च माध्यमिक स्तर पर गृह विज्ञान, संगीत, कला जैसे विषयों को चयनात्मक विषयों के रूप में रखने का सुझाव दिया। परंतु बालकों के लिए ये विषय इस समिति ने भी नहीं सुझाए व्यावसायिक शिक्षा का सुझाव उच्च माध्यमिक स्तर पर दिया गया। इन विषयों के शिक्षण प्रशिक्षण को इनकी बाजार में माँग से जोड़े जाने का भी सुझाव दिया गया ।

1966 में कोठारी आयोग ने अपनी रपट दी। इससे स्त्री शिक्षा पर कोई विशेष अध्याय तो नहीं था परंतु अध्याय 6 तथा अध्याय 12 में स्त्री शिक्षा पर समिति ने अपने सुझाव दिए इस समिति के अनुसार उस समय स्त्री की एक मुख्य आवश्यकता उसकी दोहरी भूमिका- गृहिणी तथा नौकरीपेशा स्त्री-में तारतम्य बैठाना था। आयोग ने पाया कि कामकाजी स्त्रियों को अपनी नौकरी के साथ-साथ परिवार की देखभाल करने में परेशानी आ रही थी। इस समिति ने दि नेशनल काउंसिल आन वीमेन्स एज्यूकेशन के सुझावों का अनुमोदन किया। इस समिति ने विश्वविद्यालयों को स्त्री शिक्षा पर शोध करने के लिए इकाई खोलने का भी सुझाव दिया कोठारी समिति ने ग्रामीण बालिकाओं और युवतियों को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने पर जोर दिया। कोठारी समिति ने स्त्री की सामाजिक/आर्थिक भूमिका को महत्त्व देते हुए लिखा कि वर्तमान समय में स्त्री की भूमिका घर की चारदीवारें पार कर चुकी है। वह स्वतंत्र रूप से कामकाजी स्त्री है जो पुरुष के साथ बराबरी में समाज के विकास के हर पहलू की जिम्मेदारी निभा रही है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1967-68 में कहा गया कि बालिका शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक राशि आवंटित की जानी चाहिए। खासकर स्त्री शिक्षा की विशेष योजनाओं के लिए राशि आवंटन को प्राथमिकता दी जानी चहिए। लड़कियों के व्यावसायिक शिक्षा सुविधाओं की कमी को दि नेशनल पॉलिसी आन एज्यूकेशन स्टेटमेंट में आँका गया। इस कमी को सुधारने के लिए बच्चियों के आई.टी.आई., पॉलिटेक्निक खोलने की सिफारिश की गई वसरते युवतियों के लिए संचनित और संक्षिप्त कोर्स चलाने, तथा इन कोर्सों को करने वाली नवयुवतियों के लिए रोजगार का प्रबंध करने का सुझाव दिया गया।

जनता सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1979 में बच्चियों में साक्षरता फैलाने के लिए अनौपचारिक शिक्षा का प्रावधान सुझाया गया। इस नीति का उद्देश्य अगले दस सालों में सभी अशिक्षित बच्चियों को जिनकी आयु 6-14 के बीच हो साक्षर बनाना था। शिक्षण संस्थाओं के बच्चियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए दिन का मुफ्त भोजन, पाठ्य पुस्तकें, कापी, पेंसिल तथा स्कूल यूनिफार्म देने का सुझाव दिया गया ।

जनता सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1979 में बच्चियों में साक्षरता फैलाने के लिए अनौपचारिक शिक्षा का प्रावधान सुझाया गया। इस नीति का उद्देश्य अगले दस सालों में सभी अशिक्षित बच्चियों को जिनकी आयु 6-14 के बीच हो साक्षर बनाना था। शिक्षण संस्थाओं में बच्चियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए दिन का मुफ्त भोजन, पाठ्य पुस्तकें, कापी, पेंसिल तथा स्कूल यूनिफार्म देने का सुझाव दिया गया । वयस्क शिक्षा को परिवार नियोजन से जोड़ा गया तथा जहाँ तक संभव हो प्रशिक्षिकाओं की ही नियुक्ति हो। इस प्रकार अनिवार्य और मुफ्त प्राथमिक शिक्षा की जगह साक्षरता को प्राथमिकता देकर सरकार ने नीति निर्देशक तत्त्वों की अनदेखी कर दी ।

1986 में संसद ने फिर राष्ट्रीय शिक्षा नीति पास कर दी। इसमें शिक्षा को स्त्री की समानता में जोड़ दिया गया। राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था की महिला सशक्तीकरण में सकारात्मक भूमिका बताया गया। वीमेन्स स्टडीज अर्थात् स्त्रियों के बारे में अध्ययन को प्रोत्साहन देने का तथा स्त्री विकास कार्यक्रम लेने के लिए शिक्षण संस्थानों को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया। 7-5-1990 को भारत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के पुनरावलोकन के लिए एक समिति का गठन किया। 1992 की शिक्षा नीति में बच्चियों की शिक्षा और उनकी घरेलू जिम्मेवारियों, लकड़ी, पानी और चारा लाने के साथ जोड़ा गया । स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए अन्य विभागों के साथ तालमेल का सुझाव दिया गया ।

1987-88 में नेशनल कमिशन आन सेल्फ-इप्लायड वीमेन एंड वीमेन इन इनफारमल सेक्टर ने सुझाया कि बालिका विद्यालयों का समय उनकी घरेलू जिम्मेदारियों के अनुकूल हो । गरीब बच्चियाँ स्कूल जा सकें इसके लिए एक महिला कार्यकर्ता की नियुक्ति हो जो इन बच्चिों को घर से स्कूल लाए और ले जाए। प्राथमिक स्कूलों में छोटे भाई-बहनों के लिए क्रैस की व्यवस्था हो । बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन देने के मुफ्त यूनीफार्म, किताब-कापी तथा दिन का भोजन बंटना चाहिए। पाठ्यक्रम ग्रामीण बच्चों के अनुकूल हों । पशुपालन, भूमि संरक्षण, कृषि, सामाजिक बानिकी के साथ इतिहास, भूगोल, आधुनिक विज्ञान पढ़ाए जाने चाहिए। ग्रामीण इलाकों में अध्यापिकाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उच्च माध्यमिक और माध्यमिक स्कूल शिक्षा पूरी की गई छात्राओं को एक साल या महीने के प्रशिक्षण देकर नौकरी पर रखने का सुझाव दिया गया। इस प्रशिक्षण के दौरान छात्रावास की मुफ्त सुविधा होनी चाहिए। प्रशिक्षण के पश्चात् इनको इनके गाँव के पास ही नौकरी देनी चाहिए। आयोग ने माना कि साक्षरता कार्यक्रम की पाठ्य पुस्तकों में मजदूर स्त्रियों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं होने से इन स्त्रियों में साक्षरता के लिए उत्साह नहीं होता ।

दि नेशनल परस्पेक्टिव प्लान फार वीमेन्स एज्यूकेशन (1988-2001) में 6-14 साल की बच्चियों में अशिक्षा समाप्त करने, प्राथमिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के लिए स्कूल बीच में छोड़ने वालों की संख्या में कमी लाना, माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षण का प्रावधान, शिक्षा को स्त्री समानता का लक्ष्य पाने का साधन बनाना, अनौपचारिक तथा आंशिक शिक्षण प्रशिक्षण का प्रावधान, प्रोफेशनल डिग्री कार्यक्रमों में स्त्रियों के प्रवेश को प्रोत्साहन तथा प्राथमिक विद्यालय स्तर पर स्त्री शिक्षा में कमी के लिए जिम्मेदारी तय की जाने के लक्ष्य थे । इसमें आदिवासी बच्चियों की शिक्षा के लिए विशेष प्रयास करने का सुझाव दिया गया । इसके लिए आदिवासी समाजों के अनुकूल शिक्षण कार्यक्रमों को ढालने का सुझाव था । स्कूल न जा पाने वाली लड़कियों के लिए अनौपचारिक कार्यक्रम चलाने का भी सुझाव है । ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों की लड़कियों के लिए ओपन स्कूल व्यवस्था का सुझाव भी दिया गया । ग्रामीण लड़कियों को उच्च शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा तथा प्रोफेशनल शिक्षा के लिए प्रोत्साहन देने का भी सुझाव था। आरंभ में 30 प्रतिशत सीट इन लड़कियों के लिए आरक्षित करने का सुझाव दिया गया। पार्ट-टाइम और पत्राचार शिक्षण की व्यवस्था पर भी जोर दिया गया। ताकि एक बार पढ़ाई छूटने के बाद फिर से लड़कियाँ अपनी पढ़ाई जारी कर सकें। इंटीग्रेटेड लर्निंग प्रोग्राम का सुझाव दिया गया। इस कार्यक्रम में साक्षरता के साथ-साथ जागरूकता लाने, रोजगार के लिए आवश्यक दक्षता सिखाने, पोषण, स्वास्थ्य तथा कानूनी मामलों से अवगत कराने के कार्यक्रम भी शामिल करना आवश्यक बताया । वर्तमान समग्र ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में भी साक्षरता कार्यक्रम जोड़ने का सुझाव दिया गया ।

संक्षेप में कहा जा सकता है, जिस प्रकार समाज सुधारकों के लिए दलित गरीब स्त्री की समस्या प्राथमिकता नहीं थी उसी प्रकार उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के शिक्षा योजनाकारों के लिए भी गरीब, दलित और आदिवासी, रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करती स्त्री का शिक्षण और प्रशिक्षण प्राथमिकता नहीं थी । संभ्रांत स्त्री को भी फ्रांसीसी चिंतक रूसो की तरह गृहिणी की भूमिका में दक्ष बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जा रहा था। जबकि पश्चिम में उन्नीसवीं सदी में जान स्टुअर्ट मिल, हैरियट टेलर, मेरी वुलस्टोन क्राफ्ट स्त्रियों के लिए राजनीतिक दरवाजे खुलवाने के लिए प्रयत्नशील थे। भारत में भी गरीब, दलित और आदिवासी स्त्री सामाजिक सुधार तथा राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका अदा कर रही थी परंतु शिक्षा योजनाकारों के लिए इन ग्रामीण तथा शहरी मजदूर स्त्रियों को आर्थिक क्षेत्र में सक्षम बनाना प्राथमिकता नहीं थी। भारतीय स्त्री शिक्षा योजनाएँ स्त्री के विषय में सामंतवादी पितृसत्ता की जड़ें ही मजबूत कर रही थी। स्त्री के व्यक्तित्व को एक सामान्य इनसान की तरह विकसित करना इनका उद्देश्य नहीं दिखता। इस प्रकार इस काल में स्त्री शिक्षा का चरित्र पितृसत्तात्मक और वर्गीय था ।

1947 के बाद शिक्षा नीति पर बने सभी दस्तावेजों में स्त्री शिक्षा को महत्त्व दिया गया है। ग्रामीण स्त्री की शिक्षा के प्रश्न पर भी थोड़ी बहुत माथापच्ची हुई है। ग्रामीण स्त्री की उच्च शिक्षा के प्रश्न पर शोध का सवाल कोठारी समिति ने उठाया है। परंतु ग्रामीण दलित आदिवासी स्त्री और शहरी झुग्गी झोपड़ी की स्त्री के शिक्षण प्रशिक्षण की स्थिति का कोई आकलन इन दस्तावेजों में नहीं दिखता। इनकी शिक्षा की कमजोर स्थिति के कारकों पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। अल्पसंख्यक समुदायों की विशेष परिस्थितियाँ और उन परिस्थितियों का स्त्री शिक्षा पर प्रभाव भी चिंता का विषय नहीं लगता। विशेषज्ञों ने समय की प्रगति के साथ-साथ मध्यवर्गीय सवर्ण स्त्री को शिक्षा के माध्यम से उसकी सामाजिक और आर्थिक भूमिका के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी को माना । परंतु इस तरह का दृढ; निश्चित दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक स्त्री के संदर्भ में मुखर नहीं रहा है। उल्लेखनीय है कि गरीबी रेखा के आसपास गुजर-बसर कर रही अधिकांश स्त्रियाँ इन्हीं वर्गों से आती हैं। शैक्षणिक और व्यावसायिक शिक्षण-प्रशिक्षण इन स्त्रियों को गरीबी रेखा से ऊपर उठने में सहायता दे सकता था। अभी भी इन श्रेणियों की अधिकांश स्त्रियों का गरीबी रेखा के आसपास सिमटे रहना दिखाता है कि इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता रहा है. मध्यवर्गीय सवर्ण स्त्री के संदर्भ में भी यह जिम्मेदारी आर्थिक और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बदलती प्रकृति के अनुसार ही देखी गई है।

विमला रामचंद्रन लिखती हैं कि 1947 के बाद साढ़े चार दशकों तक भारत की शिक्षा योजना लिंग संबंधी दुराग्रहों के प्रति संवेदनशील नहीं थीं। इस बीच स्त्री शिक्षा के लिए बनी विशेष योजनाएँ स्त्री कल्याण कार्यक्रमों के तहत बनाई गई थीं। ये योजनाएँ समाज की बुनियाद लिंग असमानता के मुद्दों से नहीं जुड़ी थीं। विदेशी आर्थिक सहायता समितियों ने स्त्री शिक्षा के कार्यक्रमों को ऋण देने के लिए प्राथमिकता दी । अतः ऋणदाताओं की मर्जी के अनुसार शिक्षा के लिए योजना बनाना प्रशासकों के लिए आवश्यक हो गया। विमला रामचंद्रन आगे जोड़ती हैं कि शिक्षा पर समय-समय पर बने दस्तावेजों में आत्यंतिक शब्दावली तथा महिलावादी शब्दावली का प्रयोग किया जाता रहा है। परंतु ये दस्तावेज जमीनी वास्तविकताओं का आईना नहीं बन पाए। समय के साथ-साथ जमीनी हकीकत बिगड़ती गई। जितनी जमीनी हकीकत बद से बदतर होती गई उतने ही ये दस्तावेज आत्यंतिक होते गए। वह 1986 के राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दस्तावेज को मील का पत्थर मानती हैं क्योंकि इसमें सरकारी नीति में लिंग संबंधी सवालों को उठाया गया था। स्त्री शिक्षा अध्याय में शिक्षा को स्त्री की स्थिति में बदलाव लाने का माध्यम बनाने की बात भी कही गई है। इसके साथ ही वे मानती हैं कि सरकारी दस्तावेज वास्तव में मतैक्य दस्तावेज होते हैं जिनमें तत्कालीन सभी मतों तथा विधियों का समन्वय होता है। संविधान में दिए गए नीति निर्देशक तत्त्वों की भाँति इन दस्तावेजों को क्रियान्वयन में लाना सरकार के लिए आवश्यक नहीं होता । वास्तवि निर्णय तो बजट के समय लिए जाते हैं क्योंकि तभी कार्यक्रमों को लागू करने के लिए वित्तीय प्रावधान किए जाते हैं। इसलिए सरकारी दस्तावेजों में स्त्री अशिक्षा की समस्या का बार-बार दुहराए जाने के पश्चात् भी स्त्री शिक्षा की जमीनी हालत में कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं आ पाया हैं।

व्यवहार में भी स्त्री शिक्षा के आँकड़े चौंकाने वाले हैं। महबूब-उल-हक की ह्यूमेन डेवलपमेंट रिपोर्ट 1998 के अनुसार- शिक्षा के क्षेत्र में लड़के और लड़कियों की शिक्षा में काफी अंतर है । पूरे उपमहाद्वीप में केवल 69 प्रतिशत बच्चियाँ ही प्राथमिक स्तर पर स्कूल भेजी जाती हैं जबकि लड़कों का प्रतिशत 88 है। माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की संख्या लड़कों की आधी ही रह जाती है। इस महाद्वीप का स्त्री शिक्षा का प्रतिशत (36) दुनिया के अन्य सभी क्षेत्रों से कम है। यह विकासशील देशों के औसत प्रतिशत 62 से भी कम है । इस उपमहाद्वीप की 24 करोड़ 30 लाख अशिक्षित स्त्रियाँ हैं, जो पूरी स्त्री जनसंख्या का दो तिहाई हिस्सा है तथा पूरे विश्व की अशिक्षित स्त्रियों का 45 प्रतिशत है। ह्यूमेन डेवलपमेंट रिपोर्ट 1997 में ग्रामीण भारत में साक्षरता दरें हिंदू और मुसलमान दलित सवर्ण के संदर्भ में आँकी गई है। हर वर्ग में स्त्री साक्षरता दर पुरुषों से कम है ।

स्त्री शिक्षा की इस माली हालत के लिए गरीबी तथा स्त्रियों के लिए समाज का सौतेला रुख जिम्मेदार है। सीमित साधनों वाले परिवार बेटे की शिक्षा पर ही अपने साधन लगाते हैं गरीब परिवारों की बच्चियों की घरेलू जिम्मेदारियों को देखते हुए स्कूली शिक्षा घर के नजदीक उपलब्ध कराना, पढ़ाई का समय इन बच्चियों की सुविधा के अनुसार तय करना स्कूलों में मूल सुविधाएँ मुहैया कराना, केवल लड़कियों के लिए विद्यालय तथा शिक्षिकाओं की व्यवस्था आवश्यक है । व्यावसायिक शिक्षा की सुविधाएँ तथा स्तर दोनों ही अपर्याप्त और कमजोर हैं । अतः कम विद्यार्थियों को दाखिला मिलता है। लड़कियों की संख्या खासकर दलित आदिवासी स्त्रियों की तो नगण्य ही होती है। भर्ती होने के बाद भी बड़ी संख्या में विद्यार्थी पढ़ाई छोड़ देते हैं। ग्रामीण तथा स्त्रियों की पहुँच इन संस्थानों में सीमित होती है।

शिक्षा व्यवस्था में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर शिक्षा में हो रहे भेदभाव पर ध्यान नहीं दिया गया है। हालाँकि लड़कियों की शिक्षा की गति में तीव्रता आई, परंतु यह तीव्रता सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों या इलाकों की स्त्रियों की शिक्षा में नहीं आई सरकारें जाति आधारित शिक्षा का प्रावधान करती हैं। परंतु इस शिक्षा का स्तर सुधार कर शिक्षितों को समाज की मुख्य धारा से जुड़ने लायक बनाने में उनकी रुचि नहीं रही है। अतः आरक्षण का लाभ केवल ‘क्रीमी लेयर’ को ही मिलता रहा है।

वर्तमान उदारीकरण तथा संरचनात्मक सामंजस्य के दौर में बाजार के नियमों को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है, साथ ही राज्य की समाज कल्याण की जिम्मेदारियों को घटाने पर जोर दिया जा रहा है। स्त्रियों की शिक्षा स्वास्थ्य संबंधी प्रावधानों पर इसका सीधा असर पड़ रहा है। शिक्षा के निजीकरण तथा इससे सरकारी अनुदान कम करने या हटाने का अर्थ है गरीब तथा पिछड़े वर्ग की बच्चियों से यह सुविधा छीनना ।

शिक्षा का परिवार के सामाजिक और आर्थिक स्तर से करीबी रिश्ता है। साठ और सत्तर के दशक में मध्यम वर्ग की लड़कियों के लिए शिक्षा रोजगार का एक माध्यम बन गया । इसीलिए हाई स्कूल के बाद लड़कियों की शिक्षा का प्रतिशत इस दौरान बढ़ा ही है। स्त्री शिक्षा की प्रगति की रफ्तार गाँवों, शहरों, अगड़ी और पिछड़ी जातियों में अलग-अलग रही थी । मुसलमानों में भी स्त्री शिक्षा का प्रसारण नगण्य ही था। पिछले 10-15 सालों में किए गए सर्वेक्षणों से पता चला है कि स्त्री शिक्षा, सामाजिक और आर्थिक कारकों से प्रभावित हुई थी । आमतौर पर एक तिहाई बच्चियाँ प्राइमरी स्कूलों में दाखिला नहीं पाती, जो दाखिला पा जाती हैं उनमें से 70 प्रतिशत कक्ष चार पास करने से पहले ही स्कूल छोड़ देती है। इन दोनों परिस्थितियों का कारण गरीबी तथा घर के कामों में इन बच्चियों की मुख्य भूमिका होती है । इन कारणों के साथ-साथ बच्ची की बढ़ती आयु स्कूल की घर से दूरी, केवल सह-शिक्षा संस्थाओं का होना, शिक्षित लड़की के लिए दहेज की माँग की वजह से बड़ी संख्या में लड़कियों की शिक्षा छुड़ा दी जाती है । इस प्रकार से स्कूल या इससे ऊँची शिक्षा संभ्रांत घरों की लड़कियाँ ही पा सकी हैं। इनमें से अधिकतर शहरी होती हैं। संक्षेप में सबसे गरीब घरों की लड़कियाँ तो पाठशाला की देहरी ही पार नहीं कर पाती हैं। उनसे थोड़ी कम गरीब लड़कियाँ कक्षा चार या पाँच पास कर पाती हैं। उनसे थोड़ी और शहरी आर्थिक स्थिति वाली आठवीं या हाई स्कूल तक पढ़ पाती हैं।

1998 में दिल्ली साइंस फोरम ने अपनी रपट में कमोवेश ऐसी ही तस्वीर खींची। इस के अनुसार हालाँकि स्त्रियों में साक्षरता की दर बढ़ी है परंतु अशिक्षितों की संख्या भी बढ़ी है। अनुमान के अनुसार 39 प्रतिशत बच्चियाँ प्राथमिक शिक्षा भी पूरी नहीं करतीं । 57 प्रतिशत माध्यमिक शिक्षा से पहले स्कूल छोड़ देती हैं और 10 प्रतिशत हाई स्कूल से पहले छोड़ देती हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार गाँवों में स्त्री अशिक्षा दर 69.7 प्रतिशत थी। शहरों में 36.1 प्रतिशत थी। ग्रामीण अशिक्षा दर का आधार जाति भी रहा है। 90 प्रतिशत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की स्त्रियाँ अशिक्षित हैं। बाल श्रमिकों में भी 70 प्रतिशत बच्ची श्रमिक हैं।

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Anjali Yadav

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