Contents
पाठ्यक्रम के निर्माण में राष्ट्रीय विचारधाराओं में शैक्षिक दृष्टिकोण (National Idealogies and Educational Vision in Curriculum development)
पाठ्यक्रम के निर्माण में राष्ट्रीय विचारधाराओं में शैक्षिक दृष्टिकोण- शिक्षा का सीधा सम्बन्ध समाज में रहने वाले व्यक्तियों से होता है। अतः व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उससे शिक्षा प्रभावित होती है। प्लेटो ने व्यक्ति की उदात्त प्रकृति एवं सार्वभौमिक मूल्यों से युक्त आदर्श जीवन ढंग के महत्त्व पर बल दिया है। अरस्तु के अनुसार व्यक्ति किसी विशिष्ट प्रकार की सरकार, संस्था अथवा संगठन के अन्तर्गत समुदायों में रहने वाला सामाजिक प्राणी है। कुछ निश्चित आदर्शों, मूल्यों, सरकारी नियन्त्रणों एवं संस्थाओं के अभाव में सामुदायिक या सामाजिक जीवन सम्भव नहीं होता है। अतः ये सभी शिक्षा तथा शिक्षा के पाठ्यचर्या को प्रभावित करते हैं।
देश अथवा समाज अपने आदर्शों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करता है। जैसा समाज होता है, उसी के अनुरूप शिक्षा के उद्देश्य होते हैं तथा उन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तदनुरूप पाठ्यचर्या निर्धारित की जाती है। उदाहरणार्थ – यदि समाज का स्वरूप भौतिकवादी है तो शिक्षा के उद्देश्य भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित होंगे और यदि समाज का स्वरूप आदर्शवादी है तो शिक्षा के उद्देश्य आदर्शवाद से ओत-प्रोत होंगे। इससे स्पष्ट होता है कि समाज की विचारधारा का शिक्षा व्यवस्था से सीधा सम्बन्ध है दार्शनिक विचारधारा की दृष्टि से समाज को भौतिकवादी, आदर्शवादी एवं प्रयोगवादी समाजों में वर्गीकृत किया जा सकता है राजनीतिक विचारधारा के आधार पर समाज मुख्यत: एकतन्त्रवादी और लोकतन्त्रवादी समाजों में विभाजित किया जाता है। फासिस्टवादी एवं साम्यवादी समाज एकतन्त्रीय समाज के निकट माने जा सकते हैं। इन राष्ट्रीय विचारधाराओं का राष्ट्र की – व्यवस्था तथा विशेष रूप से पाठ्यचर्या पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका संक्षिप्त शिक्षा- उल्लेख यहाँ पर किया जा रहा है-
1. भौतिकवादी समाज एवं पाठ्यचर्या (Materialistic Society and Curriculum)- भौतिकवादी समाज का उद्देश्य अधिक भौतिक-सम्पन्नता प्राप्त करना होता है। ऐसे समाजों में व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता है बल्कि सुखमय जीवन जीने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उचित-अनुचित का ध्यान दिए बिना अधिकतम दोहन पर बल दिया जाता है। अतः इसी दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्य भी निर्मित किए जाते हैं इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पाठ्यचर्या में विज्ञान विषयों पर अधिक बल दिया जाता है तथा साहित्य, दर्शन एवं सामाजिक विज्ञानों को कम महत्त्व प्रदान किया जाता है।
2. आदर्शवादी समाज एवं पाठ्यचर्या (Idealistic Society and Curriculum)- आदर्शवादी समाजों में नैतिक आदर्शों, आध्यात्मिक मूल्यों, उत्तम आचरण एवं चारित्रिक विकास पर बल दिया जाता है। ऐसे समाजों में बुद्धि, विवेक एवं विचार का विशेष महत्त्व होता है । अतः पाठ्यचर्या में साहित्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र एवं सामाजिक विषयों को प्रमुख स्थान प्रदान किया जाता है।
3. प्रयोगवादी समाज एवं पाठ्यचर्या (Pragmatic Society and Curriculum)- प्रयोगवादी समाज नियन्त्रण में विश्वास नहीं करता तथा स्वतन्त्रता को अधिक महत्त्व देता । यह विचारधारा, सामाजिक संगठनों को ऐसी स्वतन्त्रता प्रदान करने का समर्थन करती है जिससे वे नए मूल्यों एवं सत्यों का निर्माण कर सके। अतः ऐसे समाजों में विभिन्न संगठनों को शिक्षा व्यवस्था की भी स्वतन्त्रता होती है। संगठन अपनी आवश्यकता एवं उपयोगिता के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों एवं पाठ्यचर्या का निर्माण कर सकता है। अतः स्वाभाविक है कि पाठ्यचर्या में नवीन विषयों को अधिक से अधिक समाहित करने पर बल दिया जाता है। नए विचारों, नयी खोजों, उद्योगों एवं नियात्मक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण में उपयोगिता, रुचि, अनुभव, क्रिया एवं एकीकरण के सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है।
4. राजशाही (एकतन्त्रीय समाज ) एवं पाठ्यचर्या (Monarchy and Curriculum) – राजशाही अथवा एकतन्त्रीय शासन व्यवस्था में सभी शक्तियाँ एक व्यक्ति में निहित होती है । अतः शिक्षा पर भी उसी का पूरा नियन्त्रण होता है। ऐसे समाज में शासकों तथा शासितों के लिए शिक्षा व्यवस्था अलग-अलग की जाती है। शासक वर्ग के लिए उच्च एवं उत्तम शिक्षा का प्रबन्ध किया जाता है। जन साधारण की शिक्षा में मुख्य रूप से कर्तव्य-परायणता, आज्ञापालन एवं अनुशासनप्रियता पर बल दिया जाता है।
5. फासिस्ट समाज एवं पाठ्यचर्या (Fascist Society and Curriculum)— फासिस्ट विचारधारा के अन्तर्गत राज्य को सर्वोपरि माना जाता है तथा व्यक्ति का स्थान गौण होता है। राज्य के हित में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना व्यक्ति का कर्त्तव्य माना जाता है। ऐसे समाज में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को महत्त्व नहीं दिया जाता है। अतः ऐसे समाज में शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार के व्यक्ति द्वारा तैयार करना होता है जो राज्य के हित के समक्ष अपना हित त्याग दे तथा राज्य की सेवा में अपने को पूर्णतया समर्पित कर दें। इस प्रकार फासिस्ट समाज में जन साधारण का कोई महत्त्व नहीं होता है, केवल प्रतिभाशाली व्यक्तियों को मान्यता दी जाती है तथा वे ही शासन करते हैं। अतः ऐसे समाज में सबको शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर नहीं दिए जाते हैं। जन साधारण को राष्ट्रीय भावना की शिक्षा एवं सैनिक शिक्षा प्राप्त करने तक ही सीमित रखा जाता है।
6. साम्यवादी समाज एवं पाठ्यचर्या ( Communist Society and Curriculum)- साम्यवादी समाज में वास्तविक सत्ता एक राजनीतिक दल के हाथ में होती है। इस प्रकार के समाजवाद अर्थात् श्रमिकों की तानाशाही ने चिन्तन के सभी पक्षों में एक दूसरी तरह की विचाधारा विकसित की है। इसका उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों में समाजवादी विचारों एवं श्रमिक दर्शन का प्रतिपादन करना है। यह प्रतिपादन शिक्षा, साहित्य एवं संचार के माध्यम से किया जाता है। साम्यवादी समाज के आदर्श अग्रांकित हैं-
(i) सामाजिक एवं राजनैतिक संस्थाओं का स्वरूप भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के ढंग के अनुसार निर्मित होता है।
(ii) मानसिक एवं शारीरिक कार्य करने वाले में कोई अन्तर नहीं होता।
(iii) किसी वस्तु को बनाने में किए गए परिश्रम के अनुसार उसका मूल्य निर्धारित होता है।
साम्यवादी समाज में शिक्षा के उद्देश्य उक्त आदर्शों से सम्बन्धित होते हैं। शिक्षा पर राज्य अथवा समाज का पूर्ण नियन्त्रण होता है। योग्यता के अनुसार सभी को शिक्षा की पर्याप्त सुविधा दी जाती है। शिक्षा में श्रम को महत्त्व दिया जाता है पाठ्यचर्या एवं सांस्कृतिक मामलों में श्रमिकों को ही केन्द्र में रखा जाता है। उच्च शिक्षा की सुविधा योग्यता के आधार पर चयनित विद्यार्थियों को ही प्रदान की जाती है। छात्रों को मार्क्सवादी दर्शन का अध्ययन एवं दल की नीतियों की जानकारी कराई जाती है। स्कूलों का स्थानीय कारखानों एवं सहकारी फार्मों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।
आर्थिक आवश्यकताओं पर आधारित (Based on Economic Necessity)
आज प्रत्येक राष्ट्र अपने आपको विकसित देशों की पंक्ति में खड़ा करना चाहता है, इसके लिए प्रत्येक राष्ट्र को आर्थिक रूप से मजबूत होने की आवश्यकता है जिसके लिए आर्थिक विकास आवश्यक है। अतः आर्थिक विकास से अभिप्राय है जिसमें एक देश की अर्थव्यवस्था में सभी लोगों को समान रूप से आजीविका के साधन उपलब्ध हो और उनका जीवन स्तर उच्च हो इस आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए चूँकि शिक्षा एक माध्यम का कार्य करती है अतः पाठ्यचर्या भी आर्थिक आवश्यकताओं पर आधारित होनी चाहिए जिसके आधार पर पूरी शिक्षा प्रणाली को प्रभावी व आर्थिक व्यवस्था के अनुकूल बनाया जा सके। इस सन्दर्भ में पाठ्यचर्या द्वारा शिक्षा का व्यवसायीकरण आवश्यक है अर्थात् व्यावसायिक पाठ्यचर्या को स्थान मिलना चाहिए। इसके लिए निम्न बातों पर ध्यान दिया जाए-
(1) व्यावसायिक शिक्षा पर राज्य विभागों द्वारा अलग-अलग राज्यों में 8+ के विद्यार्थियों के लिए प्रयोगात्मक विधियों द्वारा छोटे-छोटे स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा का प्रबन्धन किया जाए।
(2) तकनीकी संस्थाओं से जुड़े विद्यालयों के भीतर विभिन्न विषयों पाठ्यचर्या के अन्तर्गत डिप्लोमा तथा एडवान्स डिप्लोमा को लागू किया जाना चाहिए ताकि शिक्षा के साथ-साथ छात्रों आधार पर तकनीकी ज्ञान प्रदान करने योग्य बनाया जा सके।
(3) व्यावसायिक शिक्षा पर आधारित पाठ्यचर्या के अन्तर्गत लड़कियों के लिए गृहविज्ञान पर आधारित पाठ्यचर्या पर शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
(4) प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक स्तर पर पाठ्यचर्या के भीतर कॉमर्शियल कोसों को शामिल किया जाए जिसके आधार पर छात्रों को औद्योगिक प्रणाली का ज्ञान प्रदान किया जा सके जिसके आधार पर वह आर्थिक विकास से सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त कर सके।
(5) पाठ्यचर्या के अन्तर्गत विभिन्न व्यवसायों से सम्बन्धित शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा वे व्यवसाय व्यक्ति व समुदाय की आवश्यकता व माँगों के अनुसार होनी चाहिए जिसके आधार पर छात्र उचित व्यावसायिक कुशलता अर्जित करने में सफल हों जिसके आधार पर राष्ट्रीय समस्या जैसे, बेरोजगारी में वृद्धि न हो।
3. तकनीकी सम्भावनाओं पर आधारित पाठ्यचर्या (Curriculum based on teachnological Possibilities)
तकनीकी प्रगति आर्थिक विकास की महत्त्वपूर्ण निर्धारक तत्व है जिसमें शिक्षण के द्वार विज्ञान के क्षेत्र में हो रही प्रगति और तकनीकी प्रगति का ज्ञान प्रदान किया जा सकता है जिसके आधार पर छात्रों को तकनीकी उन्नति से अवगत कराकर उनमें तकनीकी समझ उत्पन्न करने के साथ-साथ इसके प्रयोग सम्बन्धी योग्यता को भी विकसित किया जा सकता है।
सांस्कृतिक अभिविन्यास (Cultural Orientation)
मनुष्य में देश-प्रेम की भावना प्राचीन काल से ही पाई जाती रही है। हमारे देश में तो जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना गया है। कविवर रामनरेश त्रिपाठी ने मानव की स्वाभाविक देश-प्रेम की भावना को इस प्रकार व्यक्त किया है-
“विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर
करता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृभूमि पर।
ध्रुव वासी जो हिम में, तम में, जी लेता है काँप-काँप कर
कर देता है प्राण निछावर, वह भी अपनी मातृभूमि पर।”
इस प्रकार देश-प्रेम का अर्थ उस स्थान से प्रेम रखना है जहाँ व्यक्ति जन्म लेता है और ऐसा होना स्वाभाविक भी होता है। राष्ट्रीयता देश-प्रेम अथवा देश-भक्ति से अधिक व्यापकता की ओर संकेत करती है तथा राष्ट्रीयता की भावना का जन्म अठारहवीं शताब्दी में फ्रांश की महान क्रान्ति के पश्चात् ही हुआ है राष्ट्रीयता का अर्थ केवल राज्य के प्रति असीम भक्ति ही नहीं है अपितु इसका अभिप्राय राज्य तथा उसके धर्म, भाषा, इतिहास तथा संस्कृति से भी पूर्ण श्रद्धा रखना है। अतः राष्ट्रीयता, राष्ट्र के प्रति अपार भक्ति, आज्ञापालन, कर्त्तव्यपरायण एवं सेवा है, परन्तु देश-प्रेम एवं राष्ट्रीय चेतना दोनों एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं। देश-प्रेम, देश-भक्ति एवं राष्ट्र-प्रेम उसी स्थिति में सम्भव है जब व्यक्ति को अपने राष्ट्र और राष्ट्र की समस्त भौतिक एवं सांस्कृतिक सम्पत्ति से प्रेम हो। अतः सामान्य रूप से हम यह कह सकते हैं राजनीतिक क्षेत्र में जिसे राष्ट्रीयता कहा जाता है, साहित्य की भाषा में उसे ही देश-प्रेम, देश-भक्ति और राष्ट्र-प्रेम कहा जाता है। इस प्रकार सच्चा देश-प्रेम अथवा सच्ची राष्ट्रीयता वही है जिसमें व्यक्ति देश हित अथवा राष्ट्र हित के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो। इस दृष्टि से राष्ट्रीय चेतना अथवा राष्ट्रीय एकता को हम इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं-
“जब किसी राष्ट्र के नागरिक स्थान, वेश-भूषा, खान-पान, रहन-सहन, भाषा-साहित्य, मूल्य-मान्यताओं, जाति, समूह और धर्म आदि के अन्तर होते हुए भी अपने को एक समझते हैं तथा राष्ट्र-हित के आगे अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक हितों का त्याग करने को तत्पर होते हैं तो इस भावना को राष्ट्रीय चेतना अथवा राष्ट्रीय एकता कहा जाता है।”
भारत विभिन्न जातियों, धर्मों, भाषाओं एवं संस्कृतियों का देश है। भारतीय संविधान में इसी दृष्टि से राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने का संकल्प प्रस्तुत किया गया है राष्ट्र को सबल एवं सफल बनाने के लिए नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना विकसित करना परम आवश्यक है। इसलिए विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं, उप-संस्कृतियों, सम्प्रदायों की विविधताओं में एकता का अनुभव कराकर मातृभूमि के प्रति प्रगाढ़ प्रेम की उस भावना को अक्षुण्ण बनाए रखना जिसका विकास हमने राष्ट्रीय आन्दोलन के समय किया था, हमारी वर्तमान शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए, जिससे हम अपनी राष्ट्रीय संस्कृति, परम्पराओं एवं मान्यताओं पर गर्व कर सकें।
वर्तमान समय में भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास में जो तत्व बाधक हैं उनमें प्रमुख हैं— प्रांतवाद, क्षेत्रीयता, भाषावाद, साम्प्रदायिकता, मूल्यहीन सत्तावाद, त्यागपूर्ण नेतृत्व का अभाव, कर्तव्यों के प्रति विमुखता तथा अधिकारों के प्रति प्रमुखता आदि। इन बाधाओं को पार करने के उद्देश्य से विद्यालयों के पाठ्यचर्या में आवश्यक परिवर्तन करके उसमें समाज सेवा एवं राष्ट्रीय सेवा के कार्यों को अनिवार्य किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय पर्व एवं राष्ट्रीय त्यौहार को मनाने पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। प्राथमिक स्तर के पाठ्यचर्या में लोकगीतों तथा देश के विभिन्न भागों की कहानियों को विशेष स्थान दिया जाना चाहिए। इसमें देश के भिन्न-भिन्न भागों का भौगोलिक ज्ञान और वहाँ की सांस्कृतिक झाँकी प्रस्तुत करने वाली पाठ्य सामग्री होनी चाहिए। माध्यमिक स्तर के पाठ्यचर्या में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा तथा सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय महत्त्व की पाठ्य सहगामी क्रियाओं को महत्त्व दिया जाना चाहिए। इस स्तर पर भारत के औद्योगिक एवं आर्थिक विकास से सम्बन्धित विषयों को पाठ्यचर्या में स्थान दिया जाना चाहिए तथा त्रिभाषा सूत्र को लागू करना चाहिए। विश्वविद्यालय स्तर पर भारत की विभिन्न भाषाओं, धर्मों एवं संस्कृतियों के तुलनात्मक अध्ययन की व्यवस्था की जानी चाहिए। इस स्तर पर शिक्षा का माध्यम हिन्दी अथवा अंग्रेजी हो, किन्तु अन्ततः राष्ट्रभाषा हिन्दी को ही माध्यम बनाने पर बल देना चाहिए।
सरकारी तन्त्र व अन्य शक्तिशाली समितियाँ (System of Governance and Power Relations)
शिक्षा द्वारा राष्ट्र तथा समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। शासन प्रणाली बदलने से पाठ्यचर्या के प्रारूप को बदलना होता है। केन्द्र तथा राज्य स्तर की पार्टी की सत्ता बदलने से भी पाठ्यचर्या के प्रारूप पर प्रभाव पड़ता है। पाठ्यचर्या के विशिष्ट प्रारूप को केन्द्रीय सरकार प्रभावित करती है। रूस में शासन सत्ता बदलने से पाठ्यचर्या का प्रारूप बिल्कुल ही बदल गया था।
भारत में भी पाठ्यचर्या के प्रारूप का निर्माण अध्ययन समितियों, राष्ट्रीय आयोग व विभिन्न बोडों द्वारा किया जाता है। विभिन्न स्तरों पर अध्ययन समितियों के द्वारा पाठ्यचर्या का निर्माण व सुधार किया जाता है। अध्ययन समिति के सदस्यों की सूझ-बूझ व अनुभवों द्वारा हा पाठ्यचर्या के प्रारूप को विकसित किया जाता है। साधारणतः अध्ययन समिति के अध्यक्ष ही पाठ्यचर्या का प्रारूप बनाते हैं और बदलते हैं।
इसी प्रकार राष्ट्रीय आयोग तथा समितियाँ भी गठित की जाती हैं जो विश्वविद्यालय, माध्यमिक तथा प्राथमिक स्तर पर सुधार के लिए सुझाव देती है और उन सुझावों को लागू करने के प्रयास में पाठ्यचर्या के प्रारूप को भी बदलना पड़ता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में व्यावसायिक शिक्षा (Vocational education) को अधिक महत्त्व दिया गया है। अतः शिक्षा के आयोगों तथा समितियों के सुझाव के आधार पर भी पाठ्यचर्या का प्रारूप निर्धारित होता है।
IMPORTANT LINK…
- पाठ्य-पुस्तक से क्या तात्पर्य है? पाठ्य-पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्त्व
- पाठ्य-पुस्तक के विषय सामग्री के चुनाव
- 20वीं सदी में स्त्रियों की दशा में क्या परिवर्तन हुए?
- आजादी के बाद भारत में स्त्रियों के परम्परागत एवं वैधानिक अधिकार
- लड़कियों की शिक्षा के महत्त्व
- छिपे हुए पाठ्यक्रम / Hidden Curriculum in Hindi
- शिक्षक परिवर्तन का एक एजेन्ट होता है।
- हमारी पाठ्य-पुस्तक में जेण्डर को कैसे स्थापित किया गया है ?
- लिंग की समानता की शिक्षा में संस्कृति की भूमिका